ए. सूर्यप्रकाश
संसदीय मामलों के केंद्रीय राज्यमंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने एक सुझाव दिया है कि स्कूली पाठ्यक्रमों में आपातकाल पर एक पाठ होना चाहिए। इस सुझाव का उन सभी लोगों द्वारा स्वागत किया जाना चाहिए जिनकी हमारे संविधान और लोकतांत्रिक जीवन पद्धति में आस्था है। दरअसल देश में आपातकाल की 41वीं बरसी पर लखनऊ में, जहां कई लोकतंत्र सेनानियों को सम्मानित किया गया, आयोजित कार्यक्रम से इतर नकवी ने कहा कि आने वाली पीढ़ियों को लोकतंत्र पर ग्रहण लगाने वाले 19 महीने के त्रसद घटनाक्रम से अवगत कराया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि देश की 75 फीसद आबादी इससे परिचित नहीं है कि आपातकाल क्यों और कैसे लगाया गया था अथवा उस दौरान क्या हुआ था? स्कूली छात्र जिस तरह स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढ़ते हैं उसी तरह उनको आजाद भारत के काले इतिहास से भी परिचित होना चाहिए। 11971 में रायबरेली लोकसभा सीट के चुनाव में धांधली के चलते इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जून 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जीत को अवैध करार दे दिया था। उसके बाद देश एक निरंकुश शासन के अधीन चला गया। इंदिरा गांधी ने शासन में बने रहने के लिए संविधान और लोकतांत्रिक पद्धतियों की घोर उपेक्षा की। इसके लिए उन्होंने देश में आतंरिक आपातकाल थोप दिया। इससे उन्हें देश में क्रूर कानून लागू करने, अपने राजनीतिक विरोधियों तथा आलोचकों को जेल भेजने और पूरे देश में दमनकरी शासन करने का अधिकार मिल गया। जब लोगों को यह आभास हो जाए कि आपातकाल ने हमारे संविधान और लोकतंत्र के सभी स्तंभों को किस हद तक नुकसान पहुंचाया तब उन्हें नकवी के इस सुझाव का महत्व भी पता चल जाएगा। इंदिरा गांधी के आपातकाल वाले शासन ने संसद, न्यायपालिका, कार्यकालिका और मीडिया सहित सभी प्रमुख संस्थाओं को कुचल कर रख दिया। वर्तमान पीढ़ी को यह बताना जरूरी है कि संविधान को किस तरह तोड़ा-मरोड़ा गया था और किस तरह हर संस्था को घुटने टेकने पर मजबूर किया गया। इससे युवा भारतीयों को पता चल जाएगा कि वास्तव में असहिष्णुता क्या होती है? 1देश के इतिहास के उस काले दौर में संसद रबर स्टैंप बन गई थी। उसने कुछ ऐसे संविधान संशोधन पारित किए जिसने न्यायपालिका को शक्तिहीन कर दिया और उसे प्रधानमंत्री के खिलाफ किसी भी याचिका पर सुनवाई से रोक दिया। इसकी शुरुआत संविधान के 38वें संशोधन के साथ हुई जिसने आपातकाल की घोषणा और राष्ट्रपति तथा राज्यपालों द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों की न्यायिक समीक्षा को प्रतिबंधित कर दिया। 39वां संविधान संशोधन तो और भी बुरा था। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी को चुनाव में धांधली करने का दोषी ठहराए जाने के बाद वह राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं। जस्टिस कृष्ण अय्यर ने हाईकोर्ट के फैसले पर आंशिक रोक लगाकर उन्हें कुछ राहत दी। उन्होंने कहा कि जब तक उनकी याचिका पर सुनवाई पूरी नहीं हो जाती तब तक प्रधानमंत्री संसद जा सकेंगी, लेकिन वोट नहीं दे सकेंगी। इस टिप्पणी ने उनकी याचिका कमजोर कर दी, लेकिन उन्होंने त्यागपत्र नहीं दिया। बावजूद इसके उन्होंने आपातकाल की घोषणा की और संसद में अपने निरंकुश बहुमत के बल पर संविधान को उसके लोकतांत्रिक मूल्यों से दूर कर दिया। 39वें संविधान संशोधन का मुख्य मकसद था सुप्रीम कोर्ट के पर कतर कर उसे उनकी याचिका पर सुनवाई से रोकना। इसके बाद संविधान का 41वां संशोधन सामने आया। उसमें कहा गया कि प्रधानमंत्री द्वारा पदभार ग्रहण करने के पूर्व और बाद में किए गए किसी भी कार्य के लिए उनके खिलाफ कोई भी फौजदारी या आपराधिक कार्यवाही की शुरुआत नहीं की जा सकेगी। दूसरे शब्दों में इस संशोधन का मुख्य उद्देश्य प्रधानमंत्री को सुपर नागरिक बनाना था, जो कि कानून से ऊपर होगा। इसके उपरांत संविधान में 42वां संशोधन किया गया। यह शर्मनाक है कि उसमें अधिकांश प्रावधान सिर्फ इंदिरा गांधी की मर्जी के ही थे। जैसे कि हर कोई इस बात से अवगत है कि तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद इंदिरा गांधी के रबर स्टैंप थे। इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल थोपने संबंधी अधिसूचना उनके पास भेजी तो उन्होंने बिना किसी सवाल-जवाब के चुपचाप तय स्थान पर हस्ताक्षर कर दिए। उन्होंने इंदिरा गांधी से यह पूछना भी उचित नहीं समझा कि बिना अपनी कैबिनेट की स्वीकृति लिए उन्होंने इतना महत्वपूर्ण प्रस्ताव उनके पास कैसे भेज दिया। निश्चित ही यदि राष्ट्रपति ऐसा कहते तो इंदिरा गांधी प्रस्ताव पास कराने के लिए संसद का रुख करतीं। जो बच्चे आज स्कूलों में पढ़ रहे हैं उन्हें यह जानना ही चाहिए कि किस तरह संसद और राष्ट्रपति को रबर स्टैंप बना दिया गया था और न्यायपालिका और मीडिया को झुकने के लिए मजबूर कर दिया गया था। उस समय कई जजों ने दबाव में घुटने टेक दिए। शिवकांत शुक्ला बनाम एडीएम, जबलपुर केस जिसे बंदी प्रत्यक्षीकरण केस के नाम से भी जाना जाता है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। उस केस में सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने इंदिरा गांधी सरकार की इस दलील को स्वीकार कर लिया जिसमें कहा गया था कि आपातकाल के दौरान किसी भी नागरिक को अपनी नजरबंदी को चुनौती देने या बंदी प्रत्यक्षीकरण संबंधी याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं होगा। 1तत्कालीन अटार्नी जनरल ने कोर्ट में यहां तक कहा कि आपातकाल जब तक लागू रहेगा तब तक कोई भी नागरिक कोर्ट से कानूनी राहत नहीं ले सकेगा। तब भी नहीं जब कोई पुलिस वाला किसी नागरिक की गोली मारकर हत्या कर दे। पांच जजों की बेंच में से सिर्फ एक जस्टिस एचआर खन्ना ने इस पर असहमति व्यक्त की। जस्टिस खन्ना भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की रेस थे, लेकिन उन्हें इंदिरा गांधी ने अलग-थलग कर दिया। शेष सभी जज जिन्होंने संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों से नागरिकों को वंचित करने वाला फैसला लिखा, बाद में मुख्य न्यायाधीश बने। युवा पीढ़ी को यह बताया जाना चाहिए कि आपातकाल के दौर में जस्टिस खन्ना जैसे असाधारण जज भी थे जो अपने कॅरियर की चिंता छोड़कर नागरिकों के मौलिक अधिकार के पक्ष में खड़े हुए। युवा पीढ़ी को उन पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों आदि के बारे में बताया जाना चाहिए जो असीम कष्ट सहकर क्रूर शासन के खिलाफ खड़े हुए और जिनकी बदौलत लोकतंत्र की वापसी हुई। यदि बच्चों को इंदिरा गांधी की तानाशाही के खिलाफ संघर्ष करने वाले लोगों की गाथाएं पढ़ाई जाती हैं तो निश्चित रूप से वे उनसे प्रेरणा लेकर अपनी आजादी के हक में खड़े होंगे।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं। यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित है)