राकेश सिन्हा
किसी भी सरकार की समीक्षा के दो रूप होते हैं- एक, अंकगणितीय और दूसरा, गुणात्मक। पहले में सरकार के कामकाज का लेखा-जोखा मात्रत्मक संदर्भ में किया जाता है और वह आंकड़ों का प्रदर्शन मात्र होता है, जबकि दूसरे में सरकार की नीतियों, कार्य-शैली व नेतृत्व के सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक धरातल पर प्रभावों को आंका जाता है। इन दोनों का समन्वय ही एक सरकार की सफलता-विफलता को मापने का पैमाना बनना चाहिए।नरेंद्र मोदी सरकार के पहले दो साल में गुणात्मक प्रभाव इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसके गठन के काल से ही इसे कई तरह के बनावटी विवादों से गुजरना पड़ा है। यह किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए असहज स्थिति होती है। इसलिए इसकी कोई भी समीक्षा उन विवादों व ताकतों की उपेक्षा करके नहीं की जा सकती है। चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और विचारधारा का विरोध जिस प्रकार से हुआ, उसी प्रकार का विरोध सरकार-गठन के बाद भी चलता रहा। उदाहरण के लिए, चुनाव से पूर्व द न्यूयॉर्क टाइम्स के 19 सदस्यीय संपादकीय मंडल और ब्रिटेन के द गाजिर्यन अखबार ने भारत व विदेशी बुद्धिजीवियों का संयुक्त बयान जारी करके भारतीय मतदाताओं से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने की अपील की थी। चुनाव के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि धारणाओं व विद्वेष पर आधारित विवाद समाप्त हो जाएगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। मसलन, भारत के बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने सम्मान-वापसी के नाम पर पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया कि संघ की विचारधारा से जुड़ी यह सरकार देश में बहुमतवाद के तहत सांप्रदायिक-सामाजिक दर्शन के आधार पर काम कर रही है। इस प्रपंच को भारत के बाहर के उन बुद्धिजीवियों का भी समर्थन प्राप्त हुआ, जिन्होंने चुनाव से पूर्व नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का विरोध किया था। अत: दो वर्षो तक भारतीय विपक्ष का काम नेहरूवादी वामपंथी बुद्धिजीवी करते रहे और इसका प्रभाव पहले साल में संसदीय गतिविधियों पर भी पड़ा। साल 2015 के मानसून सत्र में, जहां लोकसभा में 48 प्रतिशत समय का सदुपयोग हुआ, वहीं राज्यसभा, जहां विपक्ष का दबदबा है, अपनी कुल अवधि का सिर्फ नौ प्रतिशत उपयोग कर पाई। सवाल यह उठता है कि क्या इस बौद्धिक कोलाहल से सरकार के क्रिया-कलापों पर कोई अंतर पड़ा? मोदी सरकार का गठन दो बातों के लिए महत्वपूर्ण है। पहली, इसने विकास के नए अधिष्ठान को स्थापित किया है। नेहरू युग से लेकर नव-उदारवाद तक, भारत की आर्थिक और वैश्विक क्षेत्र में भूमिका कमजोर व रक्षात्मक रही है। यही कारण है कि आजादी के 67 वर्षो बाद भी 2014 तक भारत की सरकारें और अर्थशास्त्री गरीबी-रेखा को लेकर ही विमर्श करते रहे। देश में गरीबी रेखा से नीचे अब भी 27 प्रतिशत से अधिक लोग रह रहे हैं। वह भी तब, जब गरीबी रेखा को न्यूनतम श्रेणी में परिभाषित किया जाता है। देश सैन्य सुरक्षा से लेकर घरेलू उपभोक्ता वस्तुओं तक के लिए आयात पर निर्भर रहा है। इस विरासत के बीच मोदी सरकार के कुछ उल्लेखनीय कार्य हैं, जिन पर गौर किया जाना चाहिए। इसे आंकड़ों के संदर्भ में नहीं देखकर, व्यापक परिवेश में देखना चाहिए। दूसरी, मोदी सरकार ने धन सृजन का काम किया है। इसका तात्पर्य है, देश में बड़े पैमाने पर पूंजी-निर्माण का काम करना। अब तक देश का आर्थिक दर्शन समाजवाद के चक्रव्यूह में फंसा हुआ था। इसने विकास की गति और विकास के पैमाने को हीन भावना का शिकार बना दिया था। इस सरकार ने देसी व विदेशी पूंजी का सदुपयोग आधारभूत संरचना को तेज गति से बेहतर बनाने के लिए किया है। इसी का उदाहरण है, रेल, सड़क, बंदरगाह व जलमार्गो के विकास को प्राथमिकता देना। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश यानी एफडीआई को मोदी सरकार ने पुन: परिभाषित करते हुए उसको पुराने वैचारिक विमर्श से बाहर निकालकर आर्थिक राष्ट्रवाद से जोड़ दिया है। यानी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनिवार्यता पर इस सरकार ने हर प्रकार की रुकावट को हटाने का काम किया है। सुरक्षा के क्षेत्र में एफडीआई की अनुमति इसी का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस तरह, मोदी सरकार ने तात्कालिकता से हटकर देश के आर्थिक ढांचे को दीर्घकालिक परिवेश में देखने का काम किया है। विदेश नीति के क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को परंपरागत सोच से बाहर निकालने का काम किया है। उन्होंने दूसरे तमाम देशों के साथ संबंधों में आर्थिक व सांस्कृतिक पक्ष को वरीयता दी है। बीते दो वर्षो में प्रधानमंत्री जिन 40 देशों में गए, उनमें से कई ऐसे देश हैं, जिनसे पिछली सरकारों ने संबंध बनाने या मजबूत करने की कोई जरूरत ही नहीं समझी थी। इनमें से कुछ देश आर्थिक दृष्टि से, तो कुछ सांस्कृतिक दृष्टि से और कुछ कूटनीतिक दृष्टि से हमारे लिए आवश्यक हैं। इन दो वर्षो में वियतनाम, मंगोलिया जैसे देशों से संबंध कूटनीतिक दृष्टि से उपयोगी साबित हुआ, तो बौद्ध देशों से संबंध सांस्कृतिक धरातल पर भारत की आवाज मजबूत करता है। जापान जैसे देशों से संबंध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के क्षेत्र में बहुलता और व्यापकता का संकेत है। वर्तमान सरकार की एक विशेषता पारदर्शी शासन और अपने नागरिकों के प्रति उस विश्वास में भी दिखाई पड़ती है, जिसकी अब तक कमी दिखती रही थी। किसी भी राष्ट्र का अपने नागरिकों को महत्व देना कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण होता है। यह देश में सकारात्मक व विश्वास का माहौल पैदा करता है। सरकार ने सामाजिक सरोकार को महत्व देने का काम भी खूब किया है। यह ‘स्वेच्छा से सब्सिडी त्यागने’ की योजना से साफ तौर पर दिखता है। इसके तहत एक करोड़ लोगों ने स्वेच्छा से गैस-सब्सिडी छोड़ने का फैसला लिया है। साथ ही, 32,307 करोड़ रुपये जरूरतमंदों के खातों में सब्सिडी के रूप में पहुंचे हैं। इसी क्रम में आर्थिक सर्व-समावेशी नीति ने लोगों का विश्वास सरकार से टूटने नहीं दिया। इस सरकार के आने के बाद एक बड़ा बदलाव वैचारिक धरातल पर भी दिखता है। देश की सांस्कृतिक व बौद्धिक विरासत को सांप्रदायिक चश्मे से देखा जा रहा था, जिसे अब देश-विदेश में फिर से प्रतिष्ठा मिली है।जो देश अपने आर्थिक विकास के साथ सांस्कृतिक वैभव की महत्वाकांक्षा नहीं रखता, उसका हश्र रोमन साम्राज्यवाद की तरह होता है। आज भारत की सांस्कृतिक विरासत और धरोहर ने देश की पहचान को उलझन से निकालने का काम किया है। यह एक असामान्य उपलब्धि है। जहां पिछली विचारधाराओं ने राजनीतिक व सांस्कृतिक नास्तिकता प्रदान की, वहीं मोदी सरकार ने इस नास्तिकता को आस्तिकता में बदल दिया है।
(लेखक भारत नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक हैं यह लेख २६ मई को दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित हुआ था)