संकट से अनजान कांग्रेस

राजनाथ सिंह सूर्य

बिहार विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति व्यक्तिगत दुराग्रहयुक्त मानसिकता 19_05_2016-congressmuktवाले लोगों को ऐसा लगा कि एक नया विकल्प खड़ा हो गया जो भाजपा को केंद्रीय सत्ता से बेदखल करेगा। लेकिन पिछले दिनों पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद अब चर्चा इस बात की हो रही है कि क्या कांग्रेसमुक्त भारत एक हकीकत बनने जा रहा है। असम में भाजपा की जीत और केरल में उसके मत प्रतिशत में इजाफा भाजपा के विस्तार की संभावनाओं के प्रति आशान्वित कर रहा है, भले ही उसे बंगाल में कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली और तमिलनाडु में वह शून्य ही बनी रही। दूसरी ओर जहां कुछ कांग्रेसियों ने सर्जरी और कुछ ने पुरानों की छुट्टी का अभियान शुरू कर दिया है वहीं मीडिया के आकलनकर्ताओं ने जो खाका खींचा है उसके अनुसार पचास वर्ष से अधिक केंद्र और अधिकांश राज्यों में सत्ता संभालने वाली कांग्रेस का महज आठ करोड़ आबादी की सत्ता तक सिमट जाना आश्चर्यजनक नहीं है। देश के कुछ 1/6 भाग में ही कांग्रेसी सरकारों का शासन है। उसके पास अब महज एक बड़े राज्य कर्नाटक की सत्ता रह गई है। लोकसभा में तो वह 44 सीटों पर सिमट कर रह गई है और राज्यसभा में उसकी ताकत घट रही है। कांग्रेस अब न तो राष्ट्रीय प्रभाव वाली पार्टी रह गई है और न कोई गैर भाजपा दल उसका नेतृत्व स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। 1लोकसभा चुनाव में अकल्पनीय पराजय के बाद उम्मीद थी कि कांग्रेस में बदलाव के स्वर मुखर होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। इसका कारण यह है कि लगातार सत्ता में रहने के चलते कांग्रेस की हालत ऐसी हो गई है कि वह आसन्न संकट पर भी अपनी आंखें बंद कर लेना ही पसंद करती है। जवाहरलाल नेहरू ने कामराज योजना के तहत संगठन का काम करने के लिए पार्टी के प्रभावशाली लोगों को घर बैठा दिया था, जबकि इंदिरा गांधी ने बार-बार पार्टी को तोड़कर कांग्रेसियों के मन में भय उत्पन्न किया। शायद इसी का परिणाम था कि न भारत, न भारत की राजनीति और न अवाम के स्वभाव से कभी रूबरू होने वाली सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस जन न केवल आह्लादित हुए, बल्कि उन्हें रिकार्ड बीस वर्ष तक पार्टी की कमान भी सौंप दी। पार्टी के उद्धारक के रूप में प्रोजेक्ट किए जा रहे राहुल गांधी की एक के बाद एक असफलता के बावजूद आज जब देश कांग्रेसमुक्त भारत की हकीकत की ओर बढ़ रहा है तब उन्हीं को अध्यक्ष बनाने में पार्टी अपना उद्धार देख रही है। कुछ वर्ष पहले मैंने लिखा था कि एक विदेशी मूल के व्यक्ति ने कांग्रेस की स्थापना की थी और एक विदेशी मूल के व्यक्ति द्वारा उसका विसर्जन भी होगा। सुनने में यह अविश्वसनीय लगता था, लेकिन अब यह हकीकत लगने लगा है। 1कांग्रेस में न तो सर्जरी होगी, न आत्ममंथन और न लीक से हटकर चलने की अपेक्षा के अनुरूप बदलाव। उत्तर प्रदेश में चुनावी सफलता के लिए एक व्यावसायिक संस्था को ठेका देकर देश की सर्वाधिक पुरानी, सेक्युलर और समाजवादी आस्था का दावा करने वाली पार्टी ने यह साबित कर दिया है कि उसने अपने लिए कौन सी दिशा चुन ली है? वैसे भी कांग्रेस बिहार में लालू प्रसाद, बंगाल में मार्क्‍सवादियों और तमिलनाडु में द्रमुक की पिछलग्गू बनकर अपनी सोच का प्रदर्शन कर चुकी है। मई में संपन्न हुए पांच राज्यों के चुनाव के बाद जहां मीडिया और अन्य आकलनकर्ता भाजपा और नरेंद्र मोदी की राह से रोड़े हटने के रूप में देख रहे हैं और यह उम्मीद कर रहे हैं कि दो वर्ष में उनके नेतृत्व में नीतिगत निर्णय के क्रियान्वयन ने जो दिशा पकड़ी है उसके प्रभावकारी परिणाम अगले वर्ष से सामने आने लगेंगे, जो 2019 के चुनाव में मोदी को एक बार फिर पांच वर्ष के लिए सत्ता संभालने का अवसर प्रदान करेंगे। मोदी के सत्ता संभालने के साथ असहिष्णुता के सैलाब का जिन लोगों ने उन्माद पैदा किया था, वे आश्चर्यजनक रूप से केवल चुप नहीं हैं, अपितु रक्षात्मक हो गए हैं। इससे क्या यह मान लिया जाए कि अब ये तत्व शांत हो जाएंगे? ऐसा लगता नहीं है। राजनीतिक मोर्चे पर पराजय के बाद अब संभवत: ये तत्व बतंगड़ को ही प्राथमिकता देंगे और ऐसे मुद्दों को खड़ा करने का काम करेंगे जिससे अराजकता फैले। युवाओं विशेषकर विद्यार्थियों को भ्रमित करने और हिंसात्मक आचरण वालों को वैचारिक ढाल प्रदान करने का अभियान तेज होगा। यदि भाजपा या उसके प्रति अनुकूलता रखने वाले लोग उनसे उलझ गए तो उनका उद्देश्य सफल हो जाएगा। लेकिन यदि प्रधानमंत्री मोदी ने सबका साथ और सबका विकास के संकल्प पर केंद्रित रहकर आचरण किया तो ये हमलावर स्वत: ही अप्रासंगिक हो जाएंगे। भाजपा विरोधी कुछ दलों के स्वर में बदलाव भी परिलक्षित हो रहा है। कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के बाद कुछ दलों ने अगुआई का जो अवसर दिया था वह पूर्णत: विलुप्त हो चुका है और कांग्रेस अपने नेतृत्व के बोझ से दबकर ही धंसती जा रही है तब भाजपा को अपने संकल्प के अनुरूप राज्यों में जो क्षेत्रीय दल विकल्पविहीन बन गए हैं उन्हें सद्भावना के साथ साधना चाहिए। यदि भाजपा ऐसा कर सके तो कांग्रेसमुक्त भारत अर्थात भ्रष्टाचार और स्वेच्छाचारिता वाले राजनीतिक आचरण से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। राजनीतिक सत्ता के विस्तार की गति बने रहने के बावजूद अभी भाजपा को स्वर्णिम भारत का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कई अग्निपरीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा। अगले वर्ष उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव उनमें से एक है।

(लेखक भाजपा के राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं , यह लेख दैनिक जागरण में  २८ मई को प्रकाशित हुआ था )