17 दिनों (11 से 27 सितम्बर, 1893 ) तक चलने वाली विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था। भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था, उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है, यह विदेशियों को पहली बार पता चला।
मात्र पाँच शब्दों में भी कितनी ताकत हो सकती है, वो हमने 11 सितम्बर, 1893 को अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में देखा था। जब स्वामी विवेकानंद स्वागत का उत्तर देने के लिए खड़े होते हैं और “अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों” से अपना वक्तव्य शुरू करते हैं और सामने बैठे विश्वभर से आये हुए लगभग 7 हज़ार लोग दो मिनट से ज्यादा समय तक तालियाँ बजाते रहते हैं।
अगर स्वामीजी के शब्दों में बताऊँ तो दो मिनट तक ऐसी घोर करतल-ध्वनि हुई कि कान में अंगुली देते ही बनी। यह ताली उस संन्यासी के लिए बज रही थी, जो एक गुलाम देश से आया था और जिसको एक दिन पहले तक अमेरिका में रहने, खाने व ठण्ड के दिनों में पर्याप्त कपड़े नहीं होने के कारण परेशानी का सामना करना पड़ा था। इतना ही नहीं स्वामीजी को रंग भेद का भी सामना करना पड़ा था। कोई उन्हें ब्लैक कहता था तो कोई नीग्रो।
यह सब कुछ सहने के बाद भी स्वामीजी के मुँह से घृणा का शब्द तो छोड़िये शिकायत का भी एक शब्द नहीं निकला था और उन्होंने हृदय से कहा – मेरे अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों! और यह 19वीं शताब्दी की एक प्रमुख घटना बन गई। इस घटना ने भारत की ध्वनि को विश्वभर में गुंजायमान कर दिया।
17 दिनों (11 से 27 सितम्बर, 1893 ) तक चलने वाली विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने छह व्याख्यान दिए थे, जिसके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को विश्व भर से आये हुए लोगो के सामने रखा था। भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको सांप और सपेरों का देश माना जाता था, उसके पास दुनिया को देने के लिए सन्देश भी है, यह विदेशियों को पहली बार पता चला।
आज 130 वर्ष बाद भी क्यों प्रासंगिक है स्वामीजी का 11 सितम्बर 1893 का भाषण?
स्वामीजी का बोला हुआ हर शब्द, मात्र शब्द नहीं था वो उनकी साधना, तपस्या और संयम का निचोड़ था। वो उस भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिसको उन्होंने पिछले पांच वर्ष अधिकतर पैदल, घोड़ागाड़ी और रेल के माध्यम से भ्रमण करके जाना था।
अनेक बार वह पेड़ के नीचे सोये, अनेकानेक दिन बिना भोजन के व्यतीत किये थे, लेकिन भारत को जानना और भारत के पुनरुत्थान का कार्य करना स्वामीजी की प्राथमिकता में था, जिसके लिए उन्होंने हर चुनौती को स्वीकार किया था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही स्वामीजी विदेश गए थे।
2 नवंबर 1893 को मद्रास के अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को 11 सितम्बर, 1893 भाषण के सन्दर्भ में लिखे हुए पत्र में स्वामीजी लिखते हैं, “बाकी सभी प्रतिनिधि भाषण तैयार करके लाये थे और मैंने बिना तैयारी के माता सरस्वती को प्रणाम करके अपने भाषण की शुरुआत की” और समय साक्षी है कि उस भाषण ने भारत और भारतीयता को विश्व के सामने एक नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया और इतिहास में दर्ज हुआ। स्वामीजी अपने भाषण में सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिन्दुओं की ओर से सभी को धन्यवाद देते हैं।
आगे वह कहते हैं कि “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं।” स्वामीजी ने सहन करना नहीं, बल्कि सभी को स्वीकार करने की बात विश्व के सामने रखी थी। इसीलिए यह सबको सहन करने वाला नहीं, अपितु सबको स्वीकार करने वाले हिन्दू धर्म का विश्व को संदेश था।
आज भी जब विश्व सम्प्रदायों और पंथो में बंटा हुआ है। अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रचलन चल रहा है। वहाँ स्वामीजी का यह विश्व बंधुत्व का संदेश सबके लिए एक मार्ग है, जो विश्व के कल्याण की बात करता है, सभी को स्वीकार करने की प्रेरणा देता है। स्वामीजी आगे कहते हैं, “मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूँ, जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को अपने यहां शरण दी।
मुझे आपको यह बताते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत में आकर उसी वर्ष शरण ली थी। जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है।”
इस ऐतिहासिक भाषण के बाद स्वामीजी अमेरिका के घर-घर में विख्यात हो गए थे। अमेरिका में जगह-जगह पर उनके पोस्टर लग गए थे और समाचार पत्रों के माध्यम से उनके व्याख्यान अमेरिका के कोने-कोने तक पहुंचने लगे थे। यह घटनाएं अभूतपूर्व थीं, जिसका वर्णन विद्वानों ने अलग-अलग ढ़ंग से किया है।
प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखित पुस्तक “स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन” के अनुसार विश्व धर्म महासभा में दुनिया भर के दस प्रमुख धर्मों के अनेक प्रतिनिधि आये हुए थे, जिसमें यहूदी, हिन्दू, इस्लाम, बौद्ध, ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे, लेकिन स्वामीजी का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था जो हमें स्वामी निखिलानन्द द्वारा लिखित पुस्तक विवेकानंद एक जीवनी से ज्ञात होता है।
डॉक्टर जे. एच. बैरोज जो की धर्म महासभा के सामान्य समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा था, “स्वामी विवेकानंद ने अपने श्रोताओं पर अद्भुत प्रभाव डाला” और श्री मरविन – मेरी स्नेल जो की महासभा की विज्ञान सभा के अध्यक्ष थे वो लिखते हैं- “निःसंदेह स्वामी विवेकानन्द धर्म महासभा के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। कट्टर से कट्टर ईसाई भी उनके बारे में कहते हैं कि वे मनुष्य में महाराज हैं”।
11 सितम्बर, 1893 को दिए गए इस ऐतिहासिक भाषण को आज लगभग 130 वर्ष हो गए हैं, लेकिन आज भी इस भाषण की प्रासंगिकता उतनी ही है, जितनी तब थी।
विश्व आज साम्प्रदायिकता की आग में झुलस रहा है। हर संप्रदाय अपने आपको एक दूसरे से ऊपर दिखाने की होड़ में लगा है। एक देश दूसरे देश की जमीन हड़पने में लगा है। इन सबके बीच में स्वामीजी का सबको स्वीकार करने वाला यह विश्व बंधुत्व का सन्देश विश्व भर को एक मार्ग दिखाकर मानव समाज को कटुता से बाहर निकालता है और सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार के तौर पर देखने की दृष्टि प्रदान करता है।
(लेखक स्वामी विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रांत के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की तथा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)