अरविंद जयतिलक
भारत और अमेरिका के बीच एक-दूसरे के सैन्य साजो-सामान और सैनिक अड्डों के इस्तेमाल की परस्पर सहमति दोनों देशों के बेहतर होते संबंधों के निरुपण और भारत की विदेश नीति में बदलाव के एक नए युग की शुरूआत है। भारत और अमेरिका विश्व के दो महान लोकतांत्रिक देश हैं और इनके बीच लॉजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट सप्लाई एग्रीमेंट (एलईएमओ) पर आगे बढ़ने का संकेत एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। इस समझौते से दोनों देशों के युद्धपोत और फाइटर एयरक्राफ्ट एक दूसरे के सैनिक अड्डों का इस्तेमाल तेल भराने एवं अन्य साजो-सामान की आपूर्ति के लिए कर सकेंगे। समझौते से जहां अमेरिका को एशियाई क्षेत्रों में भारत से सैन्य सुविधा का रास्ता खुलेगा वहीं भारत को दक्षिणी चीन सागर और हिंद महासागर में चीन की बढ़ती आक्रामकता की धार को भोथरा करने में मदद मिलेगी। हालांकि इस समझौते को अभी आकार दिया जाना बाकी है लेकिन दोनों देशों ने सैद्धांतिक सहमति जताकर एक नई सैन्य मोर्चाबंदी की बुनियाद रख दी है। उल्लेखनीय है कि यह समझौता पिछले दस वषों से अटका हुआ था और तत्कालीन यूपीए-एक की सरकार इस समझौते पर इसलिए आगे नहीं बढ़ी क्योंकि उसे लगता था कि इससे भारत की सामरिक स्वायत्ता प्रभावित हो सकती है।
गौरतलब है कि उस समय यह समझौता लॉजिस्टिक सप्लाई एग्रीमेंट (एलएसए) के रूप में था और यह तीन विवादास्पद समझौते का हिस्सा था। जिसमें दो अन्य समझौते-संचार और सूचना सुरक्षा समझौता ज्ञापन और बेसिक एक्सचेंज एंड को-ऑपरेशन एग्रीमेंट है। आज की तरह उस समय भी अमेरिका ने भारत को भरोसा दिया था कि इस समझौते से दोनों देशों की सेनाओं को बेहतर तरीके से समन्वय करने में मदद मिलेगी और वे एक-दूसरे को आसानी से ईंधन बेच सकेंगे। लेकिन यह समझौता मूर्त रूप नहीं ले सका। दरअसल भारत की तत्कालीन यूपीए-एक की सरकार को वामदलों का समर्थन हासिल था और वे किसी भी सूरत में इस समझौते के पक्ष में नहीं थे। वामदलों ने इस समझौते का यह कहकर विरोध किया कि इससे भारत की धरती पर अमेरिकी सेना की तैनाती का रास्ता खुल जाएगा। जबकि समझौते में ऐसा कुछ नहीं था। वामदलों का मकसद कुतर्को के जरिए देश को भ्रमित कर मनमोहन सरकार पर दबाव बनाना था। फिलहाल मोदी सरकार ने इस समझौते को मूर्त रूप देने की हामी भर दी है और यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इससे भारत को नुकसान नहीं होने वाला।
अमेरिकी रक्षामंत्री ने भी स्पष्ट किया है कि इस समझौते के तहत भारत में अमेरिकी सैनिकों की तैनाती नहीं होगी। यह समझौता सिर्फ मानवीय सहायता अभियानों के लिए है और इसके तहत दोनों देश मिलकर काम करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि यह समझौता दोनों पक्षों को किसी विशेष परिस्थिति के लिए बाध्य नहीं करेगा। यानी कल अगर अमेरिका भारत के किसी मित्र देश के विरुद्ध युद्ध छेड़ता है तो भारत अमेरिका को मदद के लिए बाध्य नहीं होगा। लेकिन विडंबना है कि कांग्रेस और वामदल इस समझौते को नकारात्मक फ्रेम में फिट कर बिना वजह सियासत कर रहे हैं। कांग्रेस ने कहा है कि यह एक खतरनाक समझौता है और इससे भारत को पीछे हट जाना चाहिए। इस समझौते से भारत अमेरिकी सैन्य ब्लॉक का हिस्सा बन जाएगा। उधर, वामदलों का कहना है कि इस समझौते ने भारत को पूरी तरह अमेरिका का सहयोगी बना दिया है। बहरहाल वामदलों का विरोध तो समझ में आता है कि वे जन्मजात अमेरिका विरोधी हैं और उनकी वैश्विक सियासत भी इसी विरोध पर टिकी हुई है। लेकिन इस समझौते का कांग्रेस क्यों विरोध कर रही है यह समझ से परे है। जबकि उसी की यूपीए-एक की सरकार ने भारत-अमेरिका परमाणु करार को हरी झंडी दिखायी। क्या यह दर्शाता नहीं है कि कांग्रेस दोहरा मापदंड अपना रही है? मजे की बात यह कि कांग्रेस और वामदल दोनों इस सचाई से अवगत हैं कि इस समझौते से भारत को फायदा होगा। लेकिन उनके रुख से प्रतीत होता है कि उनकी चिंता देश को लेकर नहीं बल्कि परेशानी मोदी सरकार से है। अन्यथा वे कुतर्कों का पहाड़ नहीं खड़ा करते। कुछ सामरिक विशेषज्ञ इस समझौते का यह कहकर आलोचना और विरोध कर रहे हैं कि अमेरिका भरोसे के काबिल नहीं। वह पारंपरिक तौर पर उस पाकिस्तान का मित्र है जो भारत का शत्रु है। दो राय नहीं कि अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान के प्रति यादा है। यह भी सही है कि भारत के विरोध के बावजूद भी वह पाकिस्तान को सैन्य और आर्थिक मदद देता है। हाल ही में उसने पाकिस्तान को 8 एफ-16 लड़ाकू विमान देने की घोषणा की। लेकिन उसकी इस मदद को अफगानिस्तान-तालिबान समस्या के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस निष्क र्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि वह भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तान की मदद कर रहा है। अमेरिका एक प्रभुतासंपन्ना राष्ट्र है। उसको अधिकार है कि वह भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भिन्न-भिन्न आयामों से रिश्ते स्थापित करे।
समझना होगा कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में विशेष रूप से दक्षिण एशिया में चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ से भारत की मुसीबत बढ़ी है। ऐसे में अमेरिका के निकट होना आवश्यक है। पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि भारत अमेरिकी गोलबंदी का हिस्सा बनने जा रहा है। सच तो यह है कि इस समझौत क मूल मकसद दोनों देशों के बीच सैन्य भागीदारी व युद्धाभ्यास को बढ़ाना है। 28 अप्रैल को इंडियन एयरफोर्स के लड़ाकू विमान अमेरिका के अलास्का में रेड फ्लैग एक्सरसाइज कार्यक्रम शिरकत करने वाले हैं। उधर, जून महीने में भारत, जापान और अमेरिका के नौसैनिक युद्धपोत ओकिनावा में युद्धाभ्यास करें। जहां तक इस समझौते के नफे-नुकसान का सवाल है तो नि:संदेह यह समझौता अमेरिकी सैन्य बल के लिए एशिया-प्रशांत क्षेत्र में लाभकारी साबित होगा। भारतीय नौ सेना अपने तट से दूर जाकर शायद ही कार्रवाई करती है, लेकिन जिबूती और डियो गार्सिया जैसी जगहों पर पहुंच उनके लिए फायदे की बात हो सकता है। दूसरी ओर अमेरिकी मदद से भारत को अपने पुराने सैन्य साजो-सामान नवीनीकरण करने में मदद मिलेगी। आज की तारीख में अमेरिका भारत को हथियार आपूर्ति करने वाला सबसे बड़ा देश है। साल 2007 के बाद से अब तक उसने भारत से 14 अरब डॉलर के हथियारों के ठेके प्राप्त किए हैं। अभी भी कई सैन्य समझौतों होने बाकी है। संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता के लिए भी भारत को अमेरिकी समर्थन की दरकार है। क्या ऐसे में भारत पाकिस्तान की वजह से अमेरिका से दूरी बनाकर रह सकता है? यह एक नासमझी भरा कदम होगा।
लॉजिस्टिक सप्लाई एग्रीमेंट (एलएसए) के अलावा दोनों देशों ने पनडुब्बी से संबंधित मुद्दों को कवर करने के लिए नौ सेना स्तर की वार्ता को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है। दोनों ने नौवहन की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानून की जरूरत पर भी बल दिया है। संभवत: यह निर्णय दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दखलअंदाजी पर लगाम कसने के लिए लिया है। गौरतलब है कि विवादित दक्षिणी चीन सागर में चीन अपना प्रभुत्व लगातार बढ़ा रहा है। उसकी इस हरकत से अमेरिका एवं भारत ही नहीं बल्कि जापान, फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रुनेई और ताईवान सभी चिंतित हैं। भारत-अमेरिका के बीच मिलीटरी लॉजिस्टिक सप्लाई एग्रीमेंट से चीन चिढ़ा है और अपनी कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर कर रहा है। यह दर्शाता है कि भारत की कुटनीतिक रणनीति सही दिशा में है। भारत और अमेरिका ने रक्षा वाणिय एवं प्रौद्योगिकी पहल के तहत दो अन्य नयी परियोजनाओं पर भी हामी भरी है। इसमें सामरिक जैविक अनुसंधान इकाई भी शामिल है। इन समझौतों से दोनों देशों की रक्षा पंक्ति मजबूत हुई है और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में एक नई दूरदृष्टि विकसित हुई हैं। आपसी समझदारी बनी रही तो दोनों देश इस संवेदनशील क्षेत्र में अपनी साझा सुरक्षा और आर्थिक मजबूती के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)