सिख दंगे के दोषी निवर्तमान कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को सजा होने में 34 साल लग गए, लेकिन कुछ सवाल आज भी प्रासंगिक हैं कि क्या पंजाब सहित सिखों के इस नरसंहार को रोका जा सकता था? क्या पंजाब को उसके सबसे बुरे दौर में जाने से बचाया जा सकता था? क्या महज एक राजनीतिक बढ़त लेने के लिए सैकड़ों जिंदगी के साथ सौदा कर लिया गया? वास्तव में सिख विरोधी दंगा कांग्रेस की राजनीति के वास्तविक और क्रूर चरित्र को ही दिखाता है।
यही नवम्बर महीने के शुरूआती दिन थे और साल था 1984, जब राजधानी दिल्ली की सड़कों पर मौत का तांडव मचा कर करीब 3 हजार सिखों का कत्लेआम कर दिया गया। कुछ दिनों बाद इंदिरा के बेटे राजीव गांधी ने जैसे इस नरसंहार को जायज ठहराते हुए कहा कि जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है।
दरअसल दंगे से मात्र तीन दिन पहले 31 अक्टूबर 1984 को ही इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही सिख अंगरक्षकों ने कर दी थी। इस घटना के बाद ही 4 दिनों तक दिल्ली में सिखों के खिलाफ कांग्रेस का गुस्सा फूट पड़ा और घरों से बाहर निकालकर सिखों को जिंदा जला दिया गया।
सिख विरोधी दंगा भारतीय राजनीति के इतिहास की एक दुर्दांत घटना है। सवाल यह है कि इंदिरा गांधी की हत्या और सिख दंगे के पीछे हरिमंदिर साहिब में सेना भेजना और ऑपरेशन ब्लू स्टार है? या फिर 1977 के चुनावों में देश और पंजाब में कांग्रेस की अप्रासंगिकता?
भारतीय राजनीति के इतिहास में रुचि रखने वालों को संभवतः यह ज्ञात होगा कि 1977 में कांग्रेस, देश और पंजाब में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में हार गई। यहीं शायद इंदिरा गांधी की हत्या और सिख दंगों की नींव भी पड़ गई। कांग्रेस की हार के बाद अकाली दल की सरकार बनी और प्रकाश सिंह बादल मुख्यमंत्री बनें। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का कहना था कि कांग्रेस नहीं चाहती थी कि सिखों का जुटाव अकाली दल में हो, इसलिए कांग्रेस ने अपनी राजनीति साधने के लिए एक ऐसे आदमी का सहारा लिया जिसने सात साल में पंजाब ही नहीं पूरे देश को हिला दिया। उस शख्स का नाम जरनैल सिंह भिंडरावाले था। भिंडरावाले की खोज करने वाले ज्ञानी जेल सिंह और संजय गांधी थे।
कुलदीप नैयर के मुताबिक़ भिंडरावाले का बाकायदा इंटरव्यू हुआ था, जिसका जिक्र नैयर ने अपनी किताब बियॉन्ड द लाइन्स में भी किया है। कुलदीप नैयर लिखते हैं कि भिंडरावाले का अक्खड़पन और तीखे तेवर संजय गांधी को बहुत पसंद आए। संजय को समझ में आ गया था कि अकाली दल को टक्कर देने के लिए भिंडरावाले एकदम फिट है।
ऐसी भी चर्चा थी कि वर्तमान में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और तब संजय के दोस्त रहे कमलनाथ ने भिंडरावाले को कई बार पैसे भी दिए थे। बीबीसी के पत्रकार सतीश जैकब और मार्क टुली ने अपनी किताब “अमृतसर, मिसेज गांधीज़ लास्ट बैटल” में लिखा है कि कांग्रेसी नेताओं ने भिंडरावाले के प्रचार प्रसार के लिए एक नई पार्टी बनवा दी। 1980 के चुनावों में भिंडरावाले ने कांग्रेस के समर्थन में प्रचार-प्रसार भी किया था।
9 सितंबर 1981 को हिंदी को मातृभाषा बनाए जाने के पक्षधर लालाजगत नारायण की गोली मार कर हत्या कर दी गई और हत्या का आरोप भिंडरावाले पर लगा। इस पूरी घटना की रिपोर्टिंग बीबीसी के पत्रकार सतीश जैकब ने की थी। जैकब कहते हैं कि ऐसा लग रहा था मानो जानबूझ कर भिंडरावाले की ऐसी इमेज बनाई गई जिससे आम लोगों को यह लगे कि भिंडरावाले बहुत मजबूत शख्स है। इंदिरा गांधी की दोस्त रहीं पुपुल जयकर के मुताबिक इंदिरा के हस्तक्षेप के चलते भिंडरावाले को जमानत पर रिहा कर दिया गया।
भिंडरावाले की ताकत बढ़ती जा रही थी, इस बीच 15 दिसंबर 1983 को भिंडरावाले ने अपने हथियार बंद साथियों के साथ अकाल तख़्त पर कब्ज़ा कर लिया। भिंडरावले का कब्ज़ा यह बताता है कि उसका कद कितना बढ़ गया था। यहीं से उसने इंदिरा को चुनौती दी थी।
पंजाब में हिंदुओं पर लगातार हमले किए जा रहे थे। बढ़ते तनाव के बीच 1 जून 1984 को पंजाब को सेना के हवाले कर दिया गया। 3 जून को पत्रकारों को स्वर्ण मंदिर से बाहर कर दिया गया। मेजर कुलदीप सिंह के नेतृत्व में सेना स्वर्ण मंदिर की ओर बढ़ चुकी थी।
5 जून को सेना ने कार्रवाई करते हुए यह तय किया कि अकाल तख़्त में छिपे आतंकियों को बाहर निकालने के लिए टैंक लगाना होगा। जहां एक ओर पंजाब में तनाव था, वहीं दिल्ली में ज्ञानी जैल सिंह और इंदिरा में तीखी बहस चल रही थी क्योंकि इस ऑपरेशन ब्लू स्टार की जानकारी इंदिरा ने ज्ञानी जैल सिंह को नहीं दी थी। सेना का स्वर्ण मंदिर में जाना एक बहुत बड़ी घटना मानी जाती है। यह सिख सेंटिमेंट के साथ की गई बहुत बड़ी भूल मानी जाती है।
इसमें बहुत मूल्यवान किताबें और जरुरी दस्तावेज जल गये और अकाल तख़्त को काफी नुकसान हुआ। 6 जून की सुबह से शाम तक गोली चली और शाम को भिंडरावाले की लाश मिली। 7 जून को ऑपरेशन ब्लू स्टार खत्म हुआ।
आज तकरीबन साढ़े तीन दशक बाद सिख दंगों में मारे गए परिजनों को न्याय की एक हल्की सी झलक तब मिली जब कांग्रेसी नेता सज्जन कुमार को दिल्ली हाईकोर्ट ने उम्र कैद की सज़ा सुनाई। 1984 से ही सज्जन कुमार पर केस चल रहा था। सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर सिख-विरोधी दंगों के प्रमुख चेहरे हैं। 2009 में कांग्रेस ने जब सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर को लोकसभा का टिकट दिया, तो बवाल मच गया और भारी विरोध के चलते तब इन दोनों नेताओं का टिकट कैंसल करना पड़ा था।
सज्जन को कातिल साबित करने में 34 साल लग गए, लेकिन कुछ सवाल आज भी प्रासंगिक है कि क्या पंजाब सहित सिखों के इस नरसंहार को रोका जा सकता था? क्या पंजाब को उसके सबसे बुरे दौर में जाने से बचाया जा सकता था? क्या महज एक राजनीतिक बढ़त लेने के लिए सैकड़ों जिंदगी के साथ सौदा कर लिया गया? वास्तव में सिख विरोधी दंगा कांग्रेस की राजनीति के वास्तविक और क्रूर चरित्र की एक बानगी है।
इस दंगे से ही संबंधित 186 मामले सबूतों के अभाव की वजह से बंद कर दिए गए थे, जिसके बाद पीड़ित सुप्रीम कोर्ट पहुंचे तो कोर्ट ने बंद पड़े केस दोबारा खोलने के लिए जस्टिस ढींगरा की अगुवाई में एसआईटी बनाई थी। हाल ही में एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी है और अब इस मामले की सुनवाई 19 नवंबर को होनी है। आशा है, न्यायालय की ये सुनवाई याची पीड़ितों को पूरा न्याय देने की शुरुआत करेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)