एक कहावत है कि जब रोम जल रहा था तब वहां का शासक नीरो एकांत में बैठकर बंशी बजा रहा था। कुछ ऐसी ही स्थिति दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की है। याद होगा जब समूचा देश अगस्ता वेस्टलैंड की सच्चाई जानना चाह रहा था तब केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की डिग्री के पीछे पड़े थे।डिग्री की सच्चाई आने के बाद केजरीवाल ने अपनी खूब किरकिरी कराई ये पहला ऐसा मौका नही था जब केजरीवाल के दावों की हवा निकली हो। समय–समय पर केजरीवाल के झूठे आरोपों की सच्चाई जनता देखती रही है। बहरहाल, ताज़ा मामला संसदीय सचिवों की नियुक्ति संबंधि विधेयक को राष्ट्रपति द्वारा नामंजूर कर देने का है। राष्ट्रपति द्वारा विधेयक को नामंजूर करने के बाद केजरीवाल कुछ ऐसे ही झूठे आरोप प्रधानमंत्री पर लगा रहें है। इस पूरे प्रकरण को समझने के बाद एक बात तो स्पष्ट है कि यह मामला विशुद्ध रूप से कानून का है, जिस पर संज्ञान राष्ट्रपति को लेना है और निणर्य चुनाव आयोग को करना है। उसके बाद भी केजरीवाल ओछी राजनीति करते नजर आ रहे हैं। भारतीय राजनीति के इतिहास में अरविंद केजरीवाल इकलौते ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने पद और दायित्यों के निर्वहन में जब असफल हो जाते हैं तो देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ बोलकर अपने गुनाहों पर पर्दा डालने लगते हैं। हालिया घटना पर नजर डाली जाए तो केजरीवाल का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ पूर्वाग्रह अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच चुका है। इस बार राष्ट्रपति ने जब दिल्ली सरकार द्वारा संसदीय सचिव नियुक्त किए जाने संबंधी विधेयक को मंजूरी देने से इनकार कर दिया, जिसके बाद ‘आप’ के 21 विधायकों की सदस्यता खतरे में पड़ गयी है। इस समय केजरीवाल को इस समस्या पर गंभीर आत्म चिंतन करने की आवश्यकता हैं लेकिन राजनीतिक और व्यक्तिगत पूर्वाग्रह से ग्रसित केजरीवाल के निशाने पर फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं, जबकि पूरा देश देख रहा है कि विधेयक संबंधी नामंजूरी महामहिम राष्ट्रपति की है और विधायकों की जन्म कुडली अब चुनाव आयोग के पास है, अर्थात विधायकों की सदस्यता संबंधी फैसला चुनाव आयोग को करना है जो एक स्वतंत्र संस्था है। 2006 में जब सोनिया गांधी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष बनी थी जिसकों कानूनन लाभ का पद माना गया था, बहुत नाटक नौटंकी करने के बाद अंत में सोनिया गाँधी को भी पीछे हटना पड़ा और पद से त्यागपत्र देकर दुबारा चुनाव लड़ना पड़ा। जबकि उस समय भी हालात ऐसे ही थे। तब भी विपक्ष में बैठी भाजपा पर ही निशाना साधा गया था, तथा उसको कठघरे में खड़ा किया गया था। जबकि उस घटना से भाजपा का कुछ लेना देना नहीं था वह भी पूर्णतः संवैधानिक मामला था। आज केजरीवाल द्वारा उसी घटना की पुनरावृत्ति की जा रही है। केजरीवाल हर मंच से अपने इमानदारी का प्रमाण पत्र प्रस्तुत करते रहते हैं। वे यह भी दावा करते हैं संसदीय संचिवों को कोई पारिश्रमिक या सुविधा नहीं मिलती है, जबकि यहां मामला इसके उलट है। विधायकों को संसदीय सचिव बनाना दिल्ली विधानसभा सदस्य अयोग्यता निवारण अधिनियम 1997 का उल्लंघन है। जिसके तहत संसदीय सचिव को लाभ का पद माना गया है तो जून 2015 में ‘आप सरकार ने विधानसभा से उपरोक्त कानून में संशोधन का विधेयक पारित कराया। इसके जरिए अतीत की तारीख से संसदीय सचिव बने विधायकों को संरक्षण देने का प्रयास किया गया। अपनो के सेवा भावना और राजनीतिक नैतिकता को ताक पर रखकर केजरीवाल जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे को विधायकों के वेतन भत्ते बढ़ाने में खर्च कर दिया। अपने स्वार्थ के विज्ञापन के लिए केजरीवाल जनता की गाढ़ी कमाई पानी की तरह बहा रहे है। खैर विगत एक साल से केजरीवाल के विधायकों और मंत्रियों पर संगीन आरोप लगते रहे हैं, किसी पर फर्जी डीग्री का तो किसी पर पत्नी के उत्पीड़न का तो किसी पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे हैं। हाल ही में परिवहन मंत्री गोपाल राय पर भी एक कंपनी को फायदा पहुचाने का आरोप लगा है। हम सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर यही मामले भारतीय जनता पार्टी के किसी नेता अथवा मंत्री द्वारा किया गया होता तो केजरीवाल और उनकी पार्टी की क्या प्रतिक्रिया होती।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च एसोसिएट हैं)