भारत के स्वाभिमान और हिंदू आस्था से जुड़े राम मंदिर निर्माण का प्रश्न एक बार फिर बहस के लिए प्रस्तुत है। उच्चतम न्यायालय की एक अनुकरणीय टिप्पणी के बाद उम्मीद बंधी है कि हिंदू-मुस्लिम राम मंदिर निर्माण के मसले पर आपसी सहमति से कोई राह निकालने के लिए आगे आएंगे। राम मंदिर निर्माण पर देश में एक सार्थक और सकारात्मक संवाद भी प्रारंभ किया जा सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि वह राम मंदिर निर्माण के मसले पर मध्यस्थता करने को तैयार हैं, यदि दोनों पक्ष न्यायालय के बाहर सहमति बनाने को राजी हों। उन्होंने यह भी कहा कि यह एक संवेदनशील और भावनाओं से जुड़ा मसला है। अच्छा यही होगा कि इसे बातचीत से सुलझाया जाए। निश्चित ही मुख्य न्यायमूर्ति का परामर्श उचित है। दोनों पक्षों को उदार मन के साथ इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। मुख्य न्यायमूर्ति का विचार इस विवाद के समाधान की आदर्श पद्धति है। समूचा देश भी यही चाहता है कि भगवान राम का मंदिर अयोध्या में बिना किसी विवाद के बहुत पहले ही आपसी सहमति से बन जाना चाहिए था। लेकिन, यह राह इतनी आसान भी नहीं है। इस राह पर चलने में कुछ लोगों के कदम ठिठकेंगे, तो कुछ लोग इस राह आना ही नहीं चाहेंगे। उच्चतम न्यायालय के मंतव्य पर आईं प्रतिक्रियाओं से यह स्पष्ट भी हो गया है कि तथाकथित सेकुलर लोगों को यह सुझाव रास नहीं आया है।
उच्चतम न्यायालय ने राम मंदिर निर्माण पर आपसी सहमति बनाने के बहाने देश में सामाजिक सद्भाव का अभूतपूर्व वातावरण बनाने और हिंदू-मुस्लिम एकता को सिद्ध करने का एक अवसर उपलब्ध कराया है। अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधि तो मानते हैं कि राम मंदिर निर्माण का मामला न्यायालय के बाहर सुलझ सकता है। लेकिन उदारवादी, सेकुलर और सहिष्णु होने का दावा करने वाले खेमे के सिपहसलारों ने पहली ही फुरसत में न्यायालय के सकारात्मक विचार को खारिज कर दिया। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) पार्टी के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता सीताराम येचुरी ने एक सुर में उच्चतम न्यायालय की पहल को खारिज कर दिया है।
उच्चतम न्यायालय ने राम मंदिर निर्माण पर आपसी सहमति बनाने के बहाने देश में सामाजिक सद्भाव का अभूतपूर्व वातावरण बनाने और हिंदू-मुस्लिम एकता को सिद्ध करने का एक अवसर उपलब्ध कराया है। मुख्य न्यायमूर्ति की पहल को मजबूति के साथ आगे बढ़ाना चाहिए था, जो कि दिख नहीं रहा है। कुछ लोगों को नकारात्मक सोचने, देखने और विचार करने की लाइलाज बीमारी है। उदारवादी, सेकुलर और सहिष्णु होने का दावा करने वाले खेमे के सिपहसलारों ने पहली ही फुरसत में एक सकारात्मक विचार को खारिज कर दिया। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) पार्टी के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेता सीताराम येचुरी ने एक सुर में उच्चतम न्यायालय की पहल को खारिज कर दिया है। इनकी तरह और भी कुछ लोग हैं, जिनका मानना है कि पूर्व में बातचीत असफल रही है, विवाद बाहर नहीं सुलझा, इसीलिए न्यायालय में पहुँचा है। इस मसले का समाधान आपसी सहमति से निकलना संभव नहीं है। एक हद तक इन लोगों का कहना सही दिखता है। क्योंकि, अयोध्या में मंदिर निर्माण का विषय सैकड़ों वर्षों से अनसुलझा है। हमें ज्ञात है कि भगवान श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का विषय 1992 या फिर 1948 में उत्पन्न नहीं हुआ है। अपितु, इस देश के नागरिक उसी दिन से व्यथित हैं, जिस दिन अपनी ताकत का उपयोग करते हुए विदेशी आक्रांता बाबर ने राम मंदिर तोड़ा था। देश में राम मंदिर निर्माण का संघर्ष उसी दिन से चल रहा है। आज तक इस विषय में कोई उचित समाधान नहीं निकल सका है। लेकिन, क्या अब भी नहीं निकल सकता? सच्चे मन और उदार मन से क्या एक बार और प्रयास करके नहीं देखना चाहिए?
एक ओर, तथाकथित उदारमना यह लोग लकीर के फकीर बनकर बैठ गए हैं। वहीं, जिन्हें सांप्रदायिक, कट्टर और अडिय़ल प्रचारित किया जाता है, वह उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी का स्वागत कर रहे हैं और सकारात्मक रुख दिखा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधि मानते हैं कि राम मंदिर निर्माण का मामला न्यायालय के बाहर सुलझ सकता है। यकीनन, यदि दोनों पक्षों के प्रतिनिधि इस प्रकार का सकारात्मक वातावरण बनाएं, तब इस मसले का रचनात्मक समाधान आ सकता है। सकारात्मक वातावरण में सबको इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहिए कि आखिर अयोध्या में राम का मंदिर नहीं बनेगा, तब कहाँ बनेगा? इसके साथ ही, भारतीय मुसलमानों को अपने भीतर इस प्रश्न का उत्तर टटोलना चाहिए कि क्या उनके लिए एक विदेश आक्रांता बाबर महत्त्वपूर्ण है? एक आक्रांता और लुटेरे के नाम पर इस देश में मस्जिद क्यों होनी चाहिए? एक ऐसा स्थान अल्लाह की इबादत के लिए पाक कैसे हो सकता है, जिस पर विवाद है? इस्लाम के हिसाब से वह स्थान अल्लाह की इबादत के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता, जहाँ पहले से कोई अन्य धार्मिक स्थल हो। पुरात्तत्व विभाग की देखरेख में हुई खुदाई में भी यह बात साबित हो चुकी है कि जिस बाबरी ढांचे को 1992 में हटाया गया, उसके नीचे पहले एक विशाल हिंदू मंदिर था। बाबर ने उसी मंदिर को तोड़कर, वहीं मंदिर के अवशेषों पर ही कथित मस्जिद खड़ी करा दी थी। बाबर ने यह निर्णय हिंदू-मुस्लिम एकता को चोट पहुंचाने के लिए किया था। अब अवसर आया है कि हम वहाँ हिंदू-मुस्लिम एकता की मजबूत इमारत खड़ी कर दें, जिसे फिर कभी कोई बाबर नहीं तोड़ पाए। बहरहाल, यदि ईमानदारी से हम सब मिलकर सकारात्मक विमर्श करेंगे, उक्त प्रश्नों के उत्तर तलाशेंगे, तब निश्चित ही आपसी सहमति बनेगी और सभी भारतीय मिलकर एक भव्य और विशाल राममंदिर का निर्माण भगवान श्रीराम की जन्मस्थली पर करेंगे।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्विद्यालय में कार्यरत हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)