स्वामी विवेकानंद जब शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में पहुँचे थे, तो भारत को लेकर विश्व का दृष्टिकोण पूर्वग्रहों पर आधारित था। स्वामीजी को भी बहुत उपेक्षा झेलनी पड़ी। उन्हें अमेरिका में रहने, खाने व ठण्ड के दिनों में पर्याप्त कपड़े नहीं होने के कारण परेशानी उठानी पड़ी। रंग भेद का भी सामना करना पड़ा। लेकिन इस सब उपेक्षा के कारण उनमें भारतीय संस्कृति, दर्शन और अपनी पहचान को लेकर कोई हीनताबोध नहीं विकसित हुआ, बल्कि जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो वो वक्तव्य इतिहास की अमूल्य धरोहर बन गया।
गत 12 नवम्बर की तारीख दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के लिए ऐतिहासिक रही। इस दिन वामपंथी विचारधारा की नर्सरी माने जाने वाले इस विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के माध्यम से स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा का अनावरण किया।
निश्चित रूप से जेएनयू देश का एक अत्यंत प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान है, लेकिन स्थापना के समय से ही इसकी वैचारिक पहचान मार्क्सवादी विचारधारा पर आधारित रही है। संस्थान की छात्र राजनीति पर वामपंथी छात्र संगठनों का वर्चस्व रहा है।
अतः आज जब इस विश्वविद्यालय में देश की सांस्कृतिक पहचान व भारतीयता की भावना से विश्व को परिचित कराने वाले महान राष्ट्रवादी चिंतक स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा की स्थापना हुई है, तो इससे एक उम्मीद जगती है कि अब यहाँ आयातित वामपंथी विचारधारा का वर्चस्व कम होगा तथा भारतीयता के विचारों को प्रोत्साहन मिलेगा।
स्वामीजी की प्रतिमा का अनावरण करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कई महत्वपूर्ण बातें कही। प्रधानमंत्री के वक्तव्य की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि राष्ट्र के विरोध में रहने वाली कोई भी विचारधारा स्वीकार्य नहीं हो सकती। इस कथन के माध्यम से कहीं न कहीं प्रधानमंत्री ने बिना नाम लिए इशारों-इशारों में वामपंथी विचारधारा के छात्र संगठनों व अनुयायियों को ही नसीहत देने का काम किया है।
दरअसल इस विचारधारा के अनुयायी जेएनयू में अनेक बार ऐसी-ऐसी चीजों के लिए चर्चा में आए हैं, जो राष्ट्र के विरुद्ध रही हैं। फिर चाहें नक्सली हमले में शहीद हुए जवानों की मृत्यु पर जश्न मनाना हो या आतंकवादी अफज़ल गुरु की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित कर देशविरोधी नारे लगाना हो अथवा नवरात्र में महिषासुर शहादत दिवस मनाना हो।
इस तरह के अनेक आपत्तिजनक कृत्य इस संस्थान में वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा न केवल किए जाते रहे हैं, बल्कि उल-जुलूल दलीलें देकर उन्हें सही ठहराने की कोशिश भी की जाती रही है। यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद की मूर्ति के इस अनावरण पर भी वामपंथी छात्र संगठनों ने सवाल उठाया है और इसके खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया है।
दरअसल जेएनयू को सरकार से भारी सब्सिडी मिलती रही है, जिस कारण यहाँ रहने-खाने और पढ़ने का खर्च अपेक्षाकृत रूप से काफी कम है। इसके हॉस्टल के कमरों का किराया लम्बे समय से दस और बीस रूपये था तथा अन्य खर्च भी कम थे, जिसमें गत वर्ष वृद्धि की गयी तो छात्रों ने बवाल मचा दिया था। खैर तब किसी तरह ये मामला सुलझा था।
लेकिन आज सवाल ये है कि देश के करदाताओं के पैसे से मिली सब्सिडी पर जेएनयू में नाममात्र के खर्च पर पढ़ने वाले ये छात्र, वामपंथी विचारधारा के प्रभाव में आकर, आखिर कैसे देश के ही खिलाफ बातें करने लगते हैं ? प्रधानमंत्री द्वारा अपने उक्त कथन में विचारधारा के इन्हीं अनुयायियों की तरफ इशारा किया है।
इसके अलावा प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता को लेकर भी महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भर भारत का अर्थ केवल संसाधनों की ही नहीं, बल्कि सोच और संस्कारों की आत्मनिर्भरता भी है।
इस संदर्भ में प्रधानमंत्री स्वामी विवेकानंद से जुड़ा बड़ा रोचक प्रसंग भी सुनाया कि विदेश में एकबार स्वामीजी से किसीने पूछा कि आप ऐसे कपड़े क्यों नहीं पहनते जिससे जेंटलमैन लगें। इसपर स्वामीजी ने बड़ी विनम्रता से कहा कि आपके कल्चर में एक टेलर जेंटलमैन बनाता है, लेकिन हमारे कल्चर में चरित्र तय करता है कि कौन जेंटलमैन है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि स्वामी विवेकानंद का ये कथन भारतीय संस्कृति की तेजस्विता और आत्मनिर्भरता को ही दर्शाता है। वास्तव में आज जब देश का युवा, विशेषकर शहरी युवा वर्ग, पश्चिमी संस्कृति के आकर्षण में डूबता जा रहा है और इसके कई दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं, तब भारत की इस सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता पर बात करना और इससे युवाओं को परिचित कराना बेहद जरूरी हो जाता है।
प्रधानमंत्री का ‘सोच और संस्कारों की आत्मनिर्भरता’ का कथन मुख्यतः युवा वर्ग के प्रति ही है। देश का युवा सही अर्थों में तब ‘ब्रांड इंडिया’ का ब्रांड एम्बेसडर बन पाएगा जब वो अपने देश की सांस्कृतिक विशिष्टता को समझने व ग्रहण करने लगेगा। क्योंकि, भारत की पहचान उसकी सनातन संस्कृति से ही है, अतः बिना इसको अपनाए ‘ब्रांड इंडिया’ की वैश्विक प्रतिष्ठा नहीं हो सकती।
स्वामी विवेकानंद जब शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय धर्म सम्मेलन में पहुँचे थे, तो भारत को लेकर विश्व का दृष्टिकोण पूर्वग्रहों पर आधारित था। स्वामीजी को भी बहुत उपेक्षा झेलनी पड़ी। उन्हें अमेरिका में रहने, खाने व ठण्ड के दिनों में पर्याप्त कपड़े नहीं होने के कारण परेशानी उठानी पड़ी। रंग भेद का भी सामना करना पड़ा। लेकिन इस सब उपेक्षा के कारण उनमें भारतीय संस्कृति, दर्शन और अपनी पहचान को लेकर कोई हीनताबोध नहीं विकसित हुआ, बल्कि जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो वो वक्तव्य इतिहास की अमूल्य धरोहर बन गया।
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि स्वामीजी के शब्दों में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन का सारगर्भित समावेश था। उनके स्वर में भारत की सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता का आत्मविश्वास था। इसी आत्मविश्वास की जरूरत आज के युवाओं को भी है। उम्मीद कर सकते हैं कि ऐसा ही आत्मविश्वास, जेएनयू में स्थापित स्वामीजी की प्रतिमा विश्वविद्यालय परिसर के युवाओं में भी पैदा करेगी। संभव है कि यह जेएनयू में एक नए वैचारिक युग के आगाज की मजबूत आधारशिला भी बने।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)