आम आदमी पार्टी को शायद अब रुकना चाहिए। सांस लेकर यह सोचना चाहिए कि क्या दिल्ली में मिले मैंडेट का उसने सही उपयोग किया है? यह सोचने पर केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को समझ आएगा कि दिल्ली में मिले जनादेश का उन्होंने अपने अबतक के शासन में केवल दुरूपयोग किया है। केवल केंद्र सरकार और उपराज्यपाल से बेवजह की खींचतान और अपने लोगों को सरकार में मलाईदार पद देने के अलावा अबतक के शासन में केजरीवाल ने कोई काम नहीं किया है। दिल्ली की जनता ठगी हुई महसूस कर रही है।
पंजाब चुनाव के दौरान मेरी मुलाकात अरविंद केजरीवाल से भटिंडा की एक रैली में हुई थी। उस वक़्त अरविंद का दावा था कि पार्टी को तकरीबन 100 के आस पास सीटें तो मिलेंगी ही मिलेंगी, लेकिन जब परिणाम आए तो यह स्पष्ट हो गया कि पंजाब जीतने का अति-आत्मविश्वास वहाँ आम आदमी पार्टी को ले डूबा है। केजरीवाल के दावों की हवा निकल गयी थी।
चुनाव के बाद भी मेरी मुलाकात आम आदमी पार्टी के कई पंजाबी नेताओं से हुई, सबका यही कहना था कि पार्टी के आलाकमान संस्कृति से लोग बेहद त्रस्त थे। अरविंद के कई करीबी लोगों ने पार्टी का बेडा गर्क कर दिया। ऐसा नहीं था कि अरविंद केजरीवाल को इसकी भनक नहीं थी। लेकिन अरविंद केजरीवाल की आँखों पर पंजाब जीतने का अति-आत्मविश्वास इस कदर चढ़ा हुआ था कि वे किसी के खिलाफ शिकायत सुनने को तैयार नहीं थे। फिर टिकट बंटवारे में मनमानी से लेकर नेतृत्व का संकट भी एक बड़ा ज़बरदस्त मुद्दा था। आप के एक विधायक ने तो यहाँ तक कहा कि पंजाबी मतदाता इस बात से खफा थे कि केजरीवाल कहीं किसी गैर पंजाबी को पार्टी पंजाब का मुख्यमंत्री न बना दे। फिर पार्टी की रही-सही छवि तो भगवंत मान के शराब पीने की आदत ने बिगाड़ दी।
खैर, अरविंद केजरीवाल की पंजाब में हुई हार ने पार्टी को ऐसा धक्का दिया है, जिससे उबरना पार्टी के लिए कतई आसान नहीं होगा। पंजाब के साथ-साथ गोवा में भी पार्टी का खाता नहीं खुल पाया। पार्टी ने जान-बूझकर छोटा राज्य चुना था, जहाँ पार्टी का जनाधार आसानी से बनाया जा सकता था। लेकिन इस कदर निराशाजनक प्रदर्शन ने पार्टी के कोर वोट बैंक और कट्टर समर्थकों के विश्वास को भी हिलाकर रख दिया।
जो दिल्ली की सियासत से वाकिफ हैं, उन्हें पता होगा कि दिल्ली गुरुद्वारा का चुनाव कितना अहम होता है। आम आदमी अपने पार्टी हार्ड कोर सिख वोट बैंक को अपने पक्ष में करने के लिए काफी समय से प्रयासरत थी और यहाँ उसका शिरोमणि अकाली दल के वर्चस्व वाली कमिटी से सीधा सीधा मुकाबला हुआ। आप समर्थित उम्मीदवार बुरी तरह से हारे। अभी हाल ही में संपन्न पश्चिमी दिल्ली के राजौरी गार्डन विधान सभा उपचुनाव में भी “आप” की इज्ज़त दांव पर थी। लेकिन नतीजों में आम आदमी पार्टी तीसरे पायदान पर रही। आप उम्मीदवार की जमानत तक ज़ब्त हो गयी। यहाँ अकाली दल-बीजेपी गठबंधन को मिली सफलता कोई तुक्का नहीं थी, बल्कि संकेत यह है कि जनता का मिजाज़ बदल ही रहा है।
इसी महीने एमसीडी का चुनाव भी है। असली इम्तिहान भी तभी होगा। दिल्ली अब तक किसी की नहीं हुई, यह तो सबको पता है। आम आदमी पार्टी को शायद अब रुकना चाहिए। सांस लेकर यह सोचना चाहिए कि क्या दिल्ली में मिले मैंडेट का उसने सही उपयोग किया है? यह सोचने पर केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को समझ आएगा कि दिल्ली में मिले जनादेश का उन्होंने अपने अबतक के शासन में केवल दुरूपयोग किया है। केवल केंद्र सरकार और उपराज्यपाल से बेवजह की खींचतान और अपने लोगों को सरकार में मलाईदार पद देने के अलावा अबतक के शासन में केजरीवाल ने कोई काम नहीं किया है। दिल्ली की जनता ठगी हुई महसूस कर रही है। यह बड़ा कारण है कि उनकी पार्टी को लगातार पराजय मिल रही है। इन पराजयों उन्हें सबक लेते हुए अब उन्हें देश भर में घूम-घूमकर चुनाव लड़ने की बजाय दिल्ली पर ध्यान देना चाहिए।
पंजाब में एक विपक्ष के तौर पर आम आदमी पार्टी के सामने बहुत अच्छा मौका है कि वह सकारात्मक सियासत करे। लेकिन, क्या तब तक अकाली दल और बीजेपी भी बैठी रहेगी? चुनाव से पहले जो सत्ता के खिलाफ जनता की लहर होती है, उसको काफूर होते देर नहीं लगता। समय की गति बहुत तेज़ है, अगर केजरीवाल नहीं संभले तो तेज़ हवा के झोंकों के साथ उनकी सियासत भी हवा हो जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)