दिल्ली हाईकोर्ट ने केजरीवाल सरकार की अपील पर जो फैसला सुनाया है, वह उसके लिए झटका भी है और बचाव का रास्ता भी। हाईकोर्ट ने साफ कर दिया है कि दिल्ली के असल प्रशासक दिल्ली के उपराज्यपाल ही है। जिस 69वें संविधान संशोधन अधिनियम के तहत दिल्ली में विधानसभा है और सरकार बनी है, उसके मुताबिक दिल्ली का उपराज्यपाल ही दिल्ली का असल प्रशासक है और वह केंद्रीय गृहमंत्रालय के अधीन प्रशासन चलाता है। रही बात विधानसभा की तो उसकी वह हैसियत नहीं है, जो हैसियत संघ के दूसरे राज्यों की है।
यह भी ध्यान में रखना होगा कि दिल्ली जितने अधिकारों वाली विधानसभा पुदुचेरी में भी है। लेकिन वहां अब तक पूर्ण राज्य या अधिकार को लेकर सवाल नहीं उठा। वहां की सरकारें अपने सीमित ही सही, दायरे में काम करती रही हैं। चूंकि दिल्ली की सरकार में केजरीवाल भारी बहुमत से आए हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि उन्हें उचित अधिकार नहीं मिला। उन पर दबाव भी होगा अपने ढेर सारे वादों को पूरा करने का…। हाईकोर्ट के फैसले ने एक तरह से केजरीवाल को मौका दिया है कि वे अपने सीमित दायरे में ही काम करें। उन्हें चाहिए कि वे जिन 16 विषयों में उन्हें शासन का अधिकार दिल्ली राज्य अधिनियम से हासिल है, उनपर अपना ध्यान केन्द्रित करें और काम करें।
यहां यह बता देना जरूरी है कि संविधाने के 69वें संशोधन को व्यवहार में राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1991 के नाम से जाना जाता है। केजरीवाल सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग क बीच जारी खींचतान में केजरीवाल का तर्क यही है कि दिल्ली सरकार के कामों में उपराज्यपाल के जरिए केंद्र की मोदी सरकार बाधा डालती है। बार-बार वे और मीडिया का उनका समर्थक तबका यह तर्क देते रहते हैं कि दिल्ली की अपार बहुमत की चुनी हुई सरकार को जानबूझकर काम नहीं करने दिया जा रहा है। ऐसे तर्क देने वाले भूल जाते हैं कि दरअसल केंद्र सरकार और उसके प्रतिनिधि उपराज्यपाल उसी दायरे में काम कर रहे होते हैं, जिसे अधिनियम में तय किया गया है। दिलचस्प बात यह है कि यह तर्क देते वक्त संविधान के अनुच्छेद 239 कक और 239 कख पर जोर नहीं दिया जा रहा है। जिसमें राजधानी दिल्ली की सरकार को लेकर व्यवस्था है – “संविधान के अनुच्छेद 239 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त और 239 कक के अधीन यथा पदाभिहीत दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र का उपराज्यपाल”।
यह मानने का कोई कारण नहीं है कि केजरीवाल और उनकी टीम इस तथ्य को जानती नहीं होगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री के नाते केजरीवाल को बाकी राज्यों की तरह शासन करने का मौका तभी मिल सकेगा, जब दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाया जा सकेगा। अगर उन्हें पूरा अधिकार चाहिए तो दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने की मांग रखनी होगी। वैसे यह मांग भी काफी पुरानी है। जब 1993 में दिल्ली में विधानसभा अस्तित्व में आई और उसमें भारतीय जनता पार्टी को बहुमत मिला, मदनलाल खुराना की सरकार ने बाकायदा विधानसभा से पूर्ण राज्य का प्रस्ताव तक पारित करा दिया था। यह बात और है कि तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। ठीक पांच साल बाद जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी काबिज हुई, तब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार बनी और पूर्ण राज्य की मांग को लेकर अपने-अपने तर्क जारी रहे।
यह बात और है कि 2003 में एनडीए सरकार ने संसद में दिल्ली राज्य अधिनियम पेश तो किया। लेकिन यह अधिनियम पारित हो पाता कि लोकसभा ही भंग हो गई और यह विधेयक भी काल-कवलित हो गया। बहरहाल अब खुद भाजपा ही इस मांग के समर्थन में नहीं हैं। दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का यह कहना कि उनकी पार्टी समय-समय पर अपने फैसलों का विश्लेषण करती है, से साफ है कि पार्टी अब पूर्ण राज्य के मसले पर आगे नहीं बढ़ने वाली। यह तय है कि केजरीवाल सरकार हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी। अगर वहां से भी ऐसा ही फैसला आता है, जिसकी संभावना ज्यादा है तो उनके सामने एक ही विकल्प रहेगा कि पूर्ण राज्य की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ें। हालांकि दिल्ली की जनता आन्दोलन के लिए तैयार है, ये कहना मुश्किल होगा।
वैसे दिल्ली के राज्य बनने और उसे पूर्ण राज्य का दर्जा से नकार को लेकर तर्कों पर भी ध्यान देना जरूरी है। जब अंग्रेजों ने दिल्ली को केंद्रीय राजधानी बनाया और इसका शासन अलग तरीके से चलाने का फैसला किया तो उसकी असल व्यवस्था चीफ कमिश्नर के हाथों में सौंप दी। तब अजमेर और कच्छ जैसे राज्य ही चीफ कमिश्नर के शासन के अधीन थे। जब स्वतंत्रता आंदोलन के चलते अंग्रेजों ने भारतीय स्वशासन के लिए पहली बार गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 पास किया तो उसमें भी दिल्ली के लिए अलग से राज्य की व्यवस्था नहीं की गई। आजादी के बाद जरूर इसकी स्थिति को समझने और उसे भावी राज्य का दर्जा देने के लिए पट्टाभि सीतारमैया की अध्यक्षता में कमेटी बनाई। उस कमेटी ने अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी, ऑस्ट्रेलिया की संघीय राजधानी मेलबर्न और ब्रिटिश राजधानी लंदन की शासन व्यवस्था का अध्ययन किया और इस नतीजे पर पहुंची कि चूंकि राष्ट्रीय राजधानी होने के चलते दिल्ली की स्थिति कुछ अलग है, लिहाजा इसे समूह ग के वर्ग का ही राज्य रहने दिया जाए। बाद में जब 1953 में जब फजल अली आयोग बना और उसने 1955 में राज्यों के पुनर्गठन का सुझाव दिया तो दिल्ली की वह व्यवस्था बदल दी गई, जिसके तहत 1952 में सीमित अधिकारों वाली विधानसभा दी गई थी और उसके तहत चौधरी ब्रह्म प्रकाश को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह बात और है कि पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के बाद दिल्ली की विधानसभा व्यवस्था नवंबर 1956 में वापस ले ली गई। इसके बाद दिल्ली पर पहले नगर निगम और बाद में महानगर परिषद के जरिए शासन किया जाता रहा।
हालांकि लोकव्यवस्था, पुलिस और भूमि व्यवस्था के अलावा सभी अधिकार स्थानीय स्वशासन को सौंपे गए। 1991 के अधिनियम में भी यही व्यवस्था लागू है। इसके मुताबिक संविधान में प्रदत्त राज्य सूची के सभी विषयों पर (लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि को छोड़कर) कानून बनाने का अधिकार दिल्ली विधानसभा को होगा। लेकिन इसी अधिनियम में एक व्यवस्था है कि संसद के कानून की राह में दिल्ली की विधानसभा के कानून बाधा नहीं बनेंगे। इससे साफ है कि दिल्ली विधानसभा को राज्यसूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार भले ही दिया गया, लेकिन यह भी सच है कि उसमें भी संसद को सर्वोच्चता मंजूर की गई है। हाईकोर्ट का फैसला उसी की व्याख्या है। हाईकोर्ट ने उस प्रचलित अवधारणा की ही व्याख्या और स्थापना की है।
यह भी ध्यान में रखना होगा कि दिल्ली जितने अधिकारों वाली विधानसभा पुदुचेरी में भी है। लेकिन वहां अब तक पूर्ण राज्य या अधिकार को लेकर सवाल नहीं उठा। वहां की सरकारें अपने सीमित ही सही, दायरे में काम करती रही हैं। चूंकि दिल्ली की सरकार में केजरीवाल भारी बहुमत से आए हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि उन्हें उचित अधिकार नहीं मिला। उन पर दबाव भी होगा अपने ढेर सारे वादों को पूरा करने का…। जनाकांक्षाओं के ऊंचे रथ पर सवार होकर आई सरकार से उम्मीदें भी ज्यादा हैं। केजरीवाल उसके भी दबाव में होंगे। लेकिन इसका जवाब मोदी या उपराज्यपाल पर जुबानी हमला और काम न करने देने का बहाना नहीं होना चाहिए। हाईकोर्ट के फैसले ने एक तरह से केजरीवाल को मौका दिया है कि वे अपने सीमित दायरे में ही काम करें। उन्हें चाहिए कि वे जिन 16 विषयों में उन्हें शासन का अधिकार दिल्ली राज्य अधिनियम से हासिल है। हालांकि अब उनके पास इस तर्क की गुंजाइश भी बन गई है कि उपराज्यपाल उन्हें काम करने नहीं दे रहे, सब उनके ही अधिकार में है और काम ना करें। फैसला केजरीवाल को ही करना होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉट कॉम में सम्पादकीय सलाहकार हैं।