प्रेस की आजादी का अर्थ है, कामकाज और विषय चुनने में स्वतंत्रता और किसी भी तरह के बाहरी दखल का अभाव। एक जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्रेस की स्वतंत्रता सबसे जरूरी मानी जाती है। क्या कोई देश का प्रमुख चैनल या अखबार कह सकता है कि उस पर सरकार किसी विषय पर न बोलने और लिखने का दबाव बना रही है? नहीं कह सकता। मगर एनडीटीवी समर्थकों का पाखण्ड देखिये कि सरकार के खिलाफ हर तरह से खुलकर बोल लेने के बाद अंत में ये कहते हैं कि सरकार बोलने नहीं दे रही।
एनडीटीवी पर केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने आईसीआईसीआई बैंक को कथित तौर पर 48 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाने के आरोप में छापा मारा। छापे एनडीटीवी के सह संस्थापक और सह अध्यक्ष प्रणव रॉय और उनकी पत्नी राधिका राय के ग्रेटर कैलाश स्थित आवास पर मारे गए।
अफसोस हो रहा है कि प्रणव रॉय के खिलाफ की जा रही सीबीआई कार्रवाई को प्रेस की आजादी पर हमला बताया जा रहा है। बताने वाले भी शेखर गुप्ता और एच.के.दुआ सरीखे मीडिया के पुराने चावल हैं। क्या कभी इन्होंने छोटे-छोटे शहरों-कस्बों में काम करने वाले स्वतंत्र पत्रकारों की दशा-दुर्दशा की खबर ली है? क्या इन्हें मालूम है कि अकेले दिल्ली शहर में हजारों पत्रकार आज बेरोजगार घूम रहे हैं? उनके पास कोई आय का साधन नहीं है। एनडीटीवी पर सीबीआई छापों पर स्यापा करने वालों को इन तमाम प्रश्नों के जवाब देने होंगे।
जिस पत्रकारिता की दुहाई देकर ये अपनी दुकानदारी चला रहे हैं, इस पेशे से जब पत्रकार निकाले जाते हैं, तब यह मंडली कहां होती है। इस पूरे प्रकरण को प्रेस की आजादी पर बड़े हमले के रूप में पेश करने वाले कह रहे हैं कि देश में अभिव्यक्ति की स्वत्रंता खतरे में है। क्या देश के मीडिया संस्थान, देश के कानून से ऊपर हैं? क्या उन्हें बैंकों का पैसा गबन करने या मारने का अधिकार प्राप्त है?
अगर बैंकों का पैसा लेकर उसे वापस न करने की आपको छूट हासिल है, तो फिर यह कहना बंद कीजिए कि देश के बैंकों की हालत खराब होती जा रही है। सरकारी और निजी बैंकों के डूबते लोन ने चौतरफा खलबली मचा दी है। ये फंसा हुआ कर्ज़ बैंकिंग की दुनिया की भाषा में नॉन-पर्फामिंग असेट्स (एनपीए) कहलाता है। थोड़ी देर से ही सही, पर अब सरकार इस दिशा में सक्रियता से कदम उठाती नज़र आ रही है।
दरअसल बैंकों से लोन लेकर उसे न वापस करने वालों के बहुत लंबे हाथ और पहुंच रही हैं। वे बैंकों के शिखर अफसरों को लोन की कुछ फीसद राशि घूस में देने का वादा करते और निभाते रहे हैं। नतीजे में बैंक अफसर उनके लोन क्लीयर करते रहे हैं। कहने वाले कहते हैं कि कुल सैंगशन लोन पर 0.3 फीसद से लेकर 2 फीसद तक घूस मिलने की ‘स्वस्थ परम्परा’ पिछली सरकार के वक्त में रही है।
यानी 100 करोड़ रुपये के लोन पर 50 लाख रुपये से लेकर 2 करोड़ रुपये तक घूस मिल जाती थी। और ये घूस आला अफसरों में पद के हिसाब से बंटती। इस स्वादिष्ट मलाई को खाकर सब गदगद रहते। और लोन लेने के बदले में घूस देने वाले को लगता है मानो उसने घूस देकर लोन की कुल रकम ब्याज के साथ वापस कर दी। फिर तो वह मूल रकम और ब्याज न देने के बहाने बनाता है। उसे बचने के रास्ते भी घूस खाने वाले अफसर ही बताते हैं। जाहिर है, अब मोदी सरकार ने इस लूट पर करारी चोट की है।
बैंकों के फंसे हुए लोन को निकालने की पहल को प्रेस की आजादी पर खतरा कहा जा रहा है। आप इस मसले को गर्म करने वालों के नामों को गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि ये सभी एनडीटीवी से उपकृत होने वाले हैं। यानी उसमें अपनी राय रखते हुए मिल जाते हैं। अगर मामला वास्तव में प्रेस की आजादी से जुड़ा होता तो देश के सारे पत्रकार एनडीटीवी के साथ होते। लेकिन एनडीटीवी के पक्ष में हुई बैठक में कमोबेश वे ही पत्रकार ही थे, जिन्होंने अपनी पारी खेल ली है। ये सभी एक स्वर में एक बैंक घोटाले की जांच के सिलसिले में एनडीटीवी के मालिक प्रणव रॉय के यहां मारे गए छापे को प्रेस की आजादी पर हमला बता रहे थे।
प्रेस की आजादी का अर्थ है, कामकाज और विषय चुनने में स्वतंत्रता और किसी भी तरह के बाहरी दखल का अभाव। एक जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए प्रेस की स्वतंत्रता सबसे जरूरी मानी जाती है। क्या कोई देश का प्रमुख चैनल या अखबार कह सकता है कि उस पर सरकार किसी विषय पर न बोलने और लिखने का दबाव बना रही है? मगर यहाँ तो स्थिति ये है कि सरकार के खिलाफ हर तरह से खुलकर बोल लेने के बाद अंत में एनडीटीवी और उसके जैसे कुछ पत्रकार कहते हैं कि सरकार सवाल पूछने से रोक रही है।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)