देश का पूरा राजनीतिक विमर्श उत्तर प्रदेश पर केंद्रित है। पांच राज्यो के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का अपना अलग महत्त्व है। यह भी तय है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम देश की आगामी राजनीतिक दशा और दिशा को तय करने वाले सिद्ध हो सकते हैं। पूरे देश में इस चुनाव को लेकर जबरदस्त ऊहापोह है, जिज्ञासा है। सपा-कांग्रेस गठबंधन, बसपा और भाजपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला है और चारो तरफ हवा में यही सवाल तैर रहा है कि आखिर सत्ता किसके पास जायेगी ? किसी भी चुनाव के परिणाम की भविष्यवाणी करना यद्यपि बेहद जटिल है, परन्तु कुछ संकेतो की चर्चा की जा सकती है। चुनाव की घोषणा के दौरान देश नोटबन्दी जैसे बड़े निर्णय से गुजर रहा था। किसी को भी इस निर्णय के लाभ-हानि की पक्की जानकारी नही थी, लेकिन दिल्ली में बैठा संपादको/विश्लेषकों का बड़ा वर्ग यह मानकर चल रहा था कि जनता इस निर्णय से बेहद परेशान है और इसका बदला विधानसभा चुनाव में भाजपा से जरूर लेगी। लगभग सपा और बसपा भी इसी खुशफहमी में थे कि नोटबन्दी के फैसले से भाजपा ने खुद को चुनावी दौड़ से बाहर कर लिया है; बिल्कुल यहीं से चुनाव के रोचक होने की पटकथा लिखे जाने की शुरुआत हुई। लेकिन जैसे-जैसे चुनाव आगे बढ़ा और बेंको की स्थिति सुधरी तो पहल चरण के चुनाव से ही यह साफ़ हो गया कि जनता थोड़ी तकलीफ उठाकर भी इस साहसिक फैसले में मोदी सरकार के साथ खड़ी है। उड़ीसा, महाराष्ट्र, चंडीगढ़ आदि स्थानों पर हुए निकाय चुनावों में भाजपा को मिले जबरदस्त जनसमर्थन ने भी इस बात की पुष्टि कर दी कि नोटबन्दी से भाजपा के प्रति जनसमर्थन कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ा ही है।
जनता को भाजपा के घोषणापत्र में एंटी रोमियो स्क्वायड, भूमाफिया स्क्वायड, कत्लखानो पर पाबंदी, चौबीस घण्टे बिजली, कन्याओ को निःशुल्क शिक्षा और किसानो के ऋण माफ़ी जैसे मुद्दे खूब लुभा रहे हैं। सभाओ में जनता की उत्साही प्रतिक्रिया भी मिल रही है। इसके विपरीत जब जनता इन मुद्दों पर वर्तमान अखिलेश यादव सरकार को कसती है तो उसे निराश ही हाथ लगती है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में अनेक लोगों को आज भी मोदी पर पूरा भरोसा है और वे मोदी के हाथ को और मजबूत करना चाहते हैं। मोदी की विश्वसनीयता 2014 के बाद से बढ़ती हुई नजर आ रही है।
खैर! अभी तक उत्तर प्रदेश में चुनावी समीकरण कुछ इस तरह के होते थे कि चुनावी विश्लेषक वातुनुकूलित कमरो में बैठकर जन्मपत्रियां बांच दिया करते थे, परंतु इस बार उन वामपंथी रुझान के विश्लेषकों के चेहरे पर भी हवाइयाँ नजर आ रही है। एक वरिष्ठ विश्लेषक कहते हैं कि ‘ इस बार दिल्ली में बैठकर कुछ कह पाना ठीक नही होगा’। इसका विशिष्ट कारण यह है कि भाजपा ने प्रचलित समीकरणों का ध्वस्त करने का काम किया है। पहले किसी मजबूत नेतृत्व के अभाव में ओबीसी तबका यादवों के साथ जाने को मजबूर था; कमोबेश यही स्थिति गैरजाटव दलित तबके की भी थी। मुस्लिमो का तो एक ही मुख्य एजेंडा देखने में आता था कि जो दल भाजपा को हरा सकता है, उसे वोट किया जाये। ये तीनों स्थापित समीकरण इस बार के चुनाव में नदारद दिख रहे हैं। भाजपा ने गैरयादव ओबीसी तबके को टिकट वितरण तथा पार्टी के नेतृत्व में खासी तवज्जो दी है। लोध, कुर्मी, सैनी तथा गुर्जर आदि छोटी-छोटी जातियों का वोट 35 प्रतिशत तक है, जो 9 प्रतिशत यादवो के द्वारा सत्ता के अधिकारो के मामले में हाशिये पर था। भाजपा ने इस पूरे गैरयादव ओबीसी मतदाताओं के मन को नयी उड़ान दी है तथा इनके अंदर यह विश्वास पैदा किया है कि भाजपा भी उन्हें प्रतिनिधित्व देने में सक्षम है। यही स्थिति दलित समाज के साथ भी रही है। दलित समुदाय को मायावती का वोट बैंक माना जाता रहा है, परन्तु जाटव समुदाय (जिससे खुद मायावती आती हैं) को छोड़कर बाकी दलित वर्ग की जातियों का अनुभव मायावती को लेकर कोई ख़ास अच्छा नही रहा है। बाकी दलित समाज मायावती के कार्यकाल में उपेक्षित ही रहा है। भाजपा के रणनीतिकारों ने बड़ी सजगता से गैरजाटव दलित समाज को साधने का काम किया है, जिसके परिणामस्वरुप भाजपा को मजबूती मिलती दिख रही है।
सपा गठबंधन और बसपा को अपने कोर वोटबैंक में मुस्लिम मत जुड़ जाने पर जीत की स्पष्ट स्थिति दिख रही थी, इसलिए दोनों दलों ने बड़ी बेसब्री और आक्रामकता के साथ आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ाते हुए भी मुस्लिमो को लुभाने की कोशिश की। लेकिन लगता नहीं कि इसबार मुस्लिम मत एकमुश्त इन दोनों में से किसी भी दल की तरफ गए होंगे। इस प्रकार सपा, बसपा के जातीय समीकरण गड़बड़ा रहे हैं, वहीँ भाजपा को केंद्र सरकार के विकास कार्यों और अपने घोषणापत्र का भी लाभ मिलता दिख रहा है। केंद्र सरकार की उज्ज्वला योजना को भी इस यूपी चुनाव में एक बड़ा फैक्टर माना जा सकता है। गरीब, दलित और ओबीसी परिवारों की महिलाएं इस योजना से सीधी-सीधी लाभान्वित हुई हैं और उनके जीवन में अप्रत्याशित सकारात्मक परिवर्तन हुआ है। सरकार का कहना है कि मात्र उत्तरप्रदेश में ही 50 लाख गैस कनेक्शन दिए गए हैं। इसका मतलब 50 लाख परिवारो के डेढ़ करोड़ से ज्यादा मतदाता सरकार की इस योजना से जुड़े हैं। मुद्रा योजना से काफी लोग लाभान्वित हुए हैं। मनरेगा में अब मजदूरी सीधे बैंक खाते में मिलने लगी है; लोग बैंक सिस्टम में आये हैं। रेलवे और हाइवे के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। किसानो को यूरिया की नीमकोटिंग का लाभ साफ़ तौर पर मिल रहा है, जिसे लोग महसूस भी कर रहे हैं।
जनता को भाजपा के घोषणापत्र में एंटी रोमियो स्क्वायड, भूमाफिया स्क्वायड, कत्लखानो पर पाबंदी, चौबीस घण्टे बिजली, कन्याओ को निःशुल्क शिक्षा और किसानो के ऋण माफ़ी जैसे मुद्दे खूब लुभा रहे हैं। सभाओ में जनता की उत्साही प्रतिक्रिया भी मिल रही है। इसके विपरीत जब जनता इन मुद्दों पर वर्तमान अखिलेश यादव सरकार को कसती है तो उसे निराश ही हाथ लगती है। पूर्वी उत्तरप्रदेश में अनेक लोगों को आज भी मोदी पर पूरा भरोसा है और वे मोदी के हाथ को और मजबूत करना चाहते हैं। मोदी की विश्वसनीयता, प्रामाणिकता 2014 के बाद से बढ़ती हुई नजर आ रही है। मोदी की रैली में जनता का उत्साह, प्रतिक्रिया और सहभागिता किसी भी लिहाज से कमतर नजर नही आ रही है। कोई भी विश्लेषक इस तथ्य को नकार भी नही पा रहा है।
फिलहाल मतदान पूर्वी उत्तरप्रदेश में हो रहा है, परंतु उसकी गूँज और चुनाव का लब्बो-लुआब पश्चिमी उत्तरप्रदेश में साफ़-साफ़ जनता के मन में गूँज रहा है। सहारनपुर देहात के सचिन चड्ढा, बागपत के हेमन्त तोमर और मोदीनगर के रोशन सिंह का खुलकर यही कहना है कि शुरू में कुछ असमंजस था, लेकिन अब साफ़ है कि भाजपा आ रही है। ऐसा लगता है कि इस बार के चुनाव परिणाम एक बार फिर चौंकाने वाले होंगे और चुनावी विश्लेषक, रणनीतिकार अपने निर्धारित खाँचो से निकलकर भाजपा की अचूक सामाजिक, प्रशासनिक रणनीति और विकास के एजेंडे की सफलता को गहराई से समझने व स्वीकारने को मजबूर होंगे।
(लेखक पेशे से प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)