एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान – नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे” – यही वह नारा था, जिसकी खातिर भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया। भारत माता के भाल कश्मीर की रक्षा के संकल्प ने उन्हें बलिदान के पथ पर पुकारा। यह जानते हुए भी कि कश्मीर जाने का प्रण जीवन का अंतिम पथ हो सकता है, इसकी परवाह किए बगैर स्वयं को राष्ट्र की बलिवेदी पर समर्पित कर दिया। उन्होंने जन-जन के मन में एक राष्ट्र के भाव को पुष्ट किया। अनगिनत क्रांतिकारियों की बहादुरी और कुर्बानियों के फलस्वरूप जब देश स्वतंत्रता की दहलीज पर था, उसी समय सत्ता प्राप्ति की पिपासा ने हमारे राष्ट्र को टुकड़ों में बांट दिया। कांग्रेस और मुस्लिम लीग के गठजोड़ से पाकिस्तान का निर्माण हुआ। उस वक्त डॉ. मुखर्जी के ही प्रयास से ही बंगाल और पंजाब का एक बड़ा हिस्सा भारत का अंग बना। तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने देश की 500 से ज्यादा देशी रियासतों को अपनी सूझबूझ से भारत में विलीन करवा लिया। परन्तु, दुर्भाग्यवश जम्मू-कश्मीर राज्य का मामला पं. जवाहरलाल नेहरू ने अपने हाथ में ले लिया और समस्या उलझती ही चली गई। जिन सिद्धांतों के आधार पर अन्य रियासतों का विलय हुआ था, वह सिद्धांत कश्मीर में नेहरू जी ने उलट दिया। कश्मीर के महाराजा हरिसिंह के सुझाव एवं आग्रह को ठुकराकर नेहरू जी ने शेख अब्दुल्ला के हाथों में राज्य की बागडोर सौंप दी। शेख अब्दुल्ला कश्मीर का भारत में विलय के मुद्दे पर कभी गंभीर नजर नहीं आये। वे वास्तव में आजाद कश्मीर की तमन्ना रखते थे। उन्होंने षड्यंत्रपूर्वक संविधान की धारा 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त कराया। कश्मीर का अलग सदर-ए-रियासत बना, शेख अब्दुल्ला इसके प्रधानमंत्री बने और अलग से इसके लिए झंडा बना।
डॉ. मुखर्जी की मां आदरणीया जोगमाया देवी ने प्रधानमंत्री नेहरू को 4 जुलाई, 1953 को अपने लिखे पत्र में कहा कि “मैं अपने प्रिय बेटे की मौत पर आंसू नहीं बहाऊंगी। मैं चाहती हूं कि लोग खुद निर्णय करें कि इस त्रासदी के पीछे क्या वास्तविक कारण थे और स्वतंत्र भारत की सरकार के द्वारा क्या भूमिका अदा की गई?” इसके उत्तर में अगले ही दिन नेहरू ने निर्लज्जतापूर्वक कहा, “मैं निष्पक्ष रूप से साफ-साफ इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इस मामले में कोई रहस्यमय बातें नहीं है और डॉ. मुखर्जी को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थी।” लेकिन डॉ. मुखर्जी की शहादत ने पं. नेहरू की कलई खोल दी। अंततः शेख अब्दुल्ला बर्खास्त किए गए और 8 अगस्त 1953 को गिरफ्तार कर लिए गए।
इस कानून के खिलाफ देशभर में लोगों ने नाराजगी प्रकट की। जम्मू-कश्मीर में ‘प्रजा-परिषद’ संगठन के नेतृत्व में लोगों ने जमकर इसका विरोध किया। लोग अपने हाथों में संविधान की प्रति और राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की तस्वीर लेकर सड़कों पर उतर आये। आंदोलन की बढ़ती ताकत से शेख अब्दुल्ला घबरा गये। उसने आंदोलनकारियों का मुकाबला लाठी, गोलियों और जेल की प्रताड़ना से किया। गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को बर्फीले इलाकों में बिना उचित वस्त्रों के भेजा गया। उन पर अनेक तरह के जुल्म ढाये गये। इतना सब होने के बावजूद भी नेहरू जी खामोश बने रहे और इससे आगे जाकर वे शेख की पीठ थपथपाते रहे। डॉ. मुखर्जी ने नेहरू को पत्र लिखकर सावधान किया, परन्तु नेहरू ने न केवल इसकी अवहेलना की बल्कि शेख के बर्बरतापूर्ण दमन का समर्थन भी किया। उलटे यह भी घोषणा की कि “यदि मैं शेख अब्दुल्ला के स्थान पर होता तो इससे भी जोर से दमनचक्र चलाता।”
नेहरू-शेख की इस खतरनाक साजिश को बेनकाब करने के लिए डॉ. मुखर्जी के नेतृत्व में जनसंघ ने सशक्त आंदोलन प्रारंभ कर दिया। उन्होंने कश्मीर के भारत में विलय की समर्थक “प्रजा परिषद” के साथ मिलकर इस आंदोलन को गति प्रदान की।
डॉ. मुखर्जी ने जगह-जगह अपने भाषणों में नेहरू और शेख की करतूतों का भंडाफोड़ किया। नेहरू जी इससे घबराकर जनसंघ पर अनर्गल आरोप लगाने लगे। दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने दंगल मैदान में स्वामी करपात्री जी की अध्यक्षता में आयोजित ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा – “नेहरू जी कहता है हम जनसंघ को कुचल डालेगा” जनता ने चारों ओर से आवाज लगाई – ‘धिक्कार है – धिक्कार है’। डॉ. मुखर्जी दो क्षण ठहरे और गरज उठे – “यदि नेहरू कहता है कि वह जनसंघ को कुचलेगा तो हम भी बोलता है कि हम उसकी कुचलने वाली मनोवृत्ति को कुचल डालेगा। (I will crush his crushing mentality)
धारा 370 के कारण जम्मू-कश्मीर में अन्य प्रांत के नागरिकों को बिना परमिट के प्रवेश करने का अधिकार नहीं है। डॉ. मुखर्जी ने इस राष्ट्रद्रोही कानून को तोड़ने के लिए बिना परमिट के कश्मीर जाने का प्रण किया। उन्होंने स्पष्ट चुनौती देते हुए घोषणा की कि “मैं उस भारतीय संसद का सदस्य हूं, जिसमें कश्मीर सम्मिलित है और संसद के प्रत्येक सदस्य का यह कर्तव्य है कि देश के किसी भी भाग में, किसी भी स्थिति का अध्ययन करने वह स्वयं जाये।” उनकी इस घोषणा से देशभर में लोग इस आंदोलन के पक्ष में लामबंद होने लगे।
डॉ. मुखर्जी अपनी घोषणा और ध्येय से पीछे हटे नहीं और अंततः 11 मई, 1953 को पंजाब-जम्मू की सीमा को पार किया। शेख अब्दुल्ला की सरकार ने उन्हें बिना परमिट के राज्य में प्रवेश करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के 3 दिन बाद वे बीमार पड़ गए। उनके दायें पैर में भयंकर दर्द होने लगा। सांस लेने में कठिनाई होने लगी। कर्नल चोपड़ा की रिपोर्ट के मुताबिक दो दिन बाद उनकी स्वास्थ्य जांच कराई गई। ऐसी नाजुक हालत में उनकी मात्र रूटीन जांच चलती रही। किसी विशेषज्ञ डॉक्टर को नहीं बुलाया गया। समुचित चिकित्सीय सुविधा के अभाव में उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। 22 जून को जब तबीयत अत्यधिक खराब हो गई, तब जाकर उन्हें राज्य अस्पताल में भर्ती कराया गया और 23 जून 1953 को उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।
देशभर में शोक की लहर दौड़ गई। एक और जीवन पुष्प भारत माता के चरणों में अर्पित हो गया। जन-जन के प्रिय नेता आजाद भारत में अपने ही शासकों के षड्यंत्र के शिकार हो गए। “तेरा वैभव सदा रहे मां – हम दिन चार रहे न रहे” – गीत की सार्थकता सिद्ध हो गई। वे दीपक की तरह तिल-तिल कर जलते गए और आलोकित कर गए भावी भारत की मजबूत बुनियाद। उन्हीं की प्रेरणा से आज निरंतर हजारों कार्यकर्ता ध्येय-पथ पर बढ़ रहे है।
डॉ. मुखर्जी की मां आदरणीया जोगमाया देवी ने प्रधानमंत्री नेहरू को 4 जुलाई, 1953 को अपने लिखे पत्र में कहा कि “मैं अपने प्रिय बेटे की मौत पर आंसू नहीं बहाऊंगी। मैं चाहती हूं कि लोग खुद निर्णय करें कि इस त्रासदी के पीछे क्या वास्तविक कारण थे और स्वतंत्र भारत की सरकार के द्वारा क्या भूमिका अदा की गई?”
इसके उत्तर में अगले ही दिन नेहरू ने निर्लज्जतापूर्वक कहा, “मैं निष्पक्ष रूप से साफ-साफ इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इस मामले में कोई रहस्यमय बातें नहीं है और डॉ. मुखर्जी को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थी।”
लेकिन डॉ. मुखर्जी की शहादत ने पं. नेहरू की कलई खोल दी। अंततः शेख अब्दुल्ला बर्खास्त किए गए और 8 अगस्त 1953 को गिरफ्तार कर लिए गए।
(लेखक पाक्षिक पत्रिका ‘कमल सन्देश’ के सहायक संपादक हैं.)