आज नीतीश कुमार अपनी सरकार के विकास के कार्यों के साथ जनता के बीच हैं, उनके पास अपने शासन की उपलब्धियों का एक मजबूत बुनियादी आधार है, जो बिहार में हुए विकास-यात्रा की कहानी को बयान कर रहा है। वहीं तेजस्वी व महागठबंधन के पास वादों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
बिहार देश का ऐसा राज्य है जहाँ के चुनाव पर देश की नजर गड़ी रहती है। आज फिर बिहार चुनाव के मुहाने पर खड़ा है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ अपने सियासी समीकरण को साधने में लगी हुई हैं। विकास की बात सबकी जुबान पर है, इन सब के बीच बिहार की जनता किसपर विश्वास करती है। यह सबसे अहम है।
मुख्य रूप से देखें तो एक तरफ एनडीए गठबंधन के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं, तो दूसरी तरफ तेजस्वी यादव। चुनाव किस दिशा में जा रहा है, अभी यह कहना जल्दीबाजी होगी। लेकिन इतना स्पष्ट है कि एक तरफ नीतीश की विकास पुरुष वाली छवि है, दूसरी तरफ लालू राज को जनता आज भी भूलने को तैयार नहीं है। जो सीधे-सीधे तेजस्वी के लिए मुश्किलें पैदा करने वाली बात है।
चुनाव है, तो तमाम तरह के चुनावी विमर्श भी हो रहे हैं। इसमें सबसे प्रमुखता से चर्चा 15 साल बनाम 15 साल की हो रही है। क्योंकि दोनों प्रतिस्पर्धी दलों के शासन का कालखंड लगभग बराबर है। बिहार के विकास को इस कसौटी पर कसने की आवश्यकता है। तब स्थिति और स्पष्ट हो सकेगी कि बिहार के विकास को लेकर किस सरकार ने कितने काम किए हैं और क्या होना रह गया है।
कृषि क्षेत्र को समझने की कोशिश करें तो 1991-92 से 1995-96 बिहार में कृषि की औसत विकास दर -2% थी, 1994-95 से 2001-02 में यह 0.8% तक पहुंचा था। फिर 2005 के बाद इसमें निरंतर बढ़ोत्तरी दर्ज की गई और 2014-15 में कृषि विकास की औसत दर 6.02% रही।
अगर कृषि बजट की बात करें तो 2005-06 में कृषि का बजट 241 करोड़ था, जो 2020 -21 में बढ़कर 3152 करोड़ है। बिजली, सड़क और पानी के मुद्दे पर एनडीए सरकार के कार्यों को रेखांकित करने की आवश्कता नहीं है क्योंकि यह सभी जानते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र की बात करें तो 2001 में महिलाओं की साक्षरता दर 33% थी जो 2011 की जनगणना में 53.3% दर्ज हुई। 2005 तक बिहार में मात्र 13 सरकारी पोलिटेक्निक कॉलेज थे, आज लगभग हर जिले में पोलिटेक्निक कॉलेज हैं। अभियंत्रण कॉलेज की बात करें तो 2005 तक मात्र 3 ही कॉलेज थे, आज लगभग 39 अभियंत्रण कॉलेज हैं। यह सब तब संभव हुआ जब सरकार ने शिक्षा पर खर्च होने वाले बजट को बढ़ाया।
2001 में बिहार में शिक्षा विभाग का बजट 2448 करोड़ था, जो 2004-05 में 3876.22 करोड़ हो गया और 2019-20 में अभूतपूर्व बढोत्तरी के साथ यह बजट 34,798 करोड़ पर जा पहुंचा है। इसी तरह आधारभूत ढांचे के विकास पर भी बल दिया गया है। 2005 तक बिजली की उपलब्धता मात्र 22% थी, आज शत प्रतिशत बिजली की उपलब्धता है। पुल, सड़क और हाइवे के निर्माण में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। स्पष्ट है, विकास के आंकड़े एनडीए सरकार के पक्ष में हैं।
जैसे-जैसे चुनाव की तारीखें करीब आती जा रही हैं, चुनाव दिलचस्प होता जा रहा है। तेजस्वी लगातार बड़े-बड़े वादे करके जनता को अपनी तरफ मोड़ने के प्रयास में लगे हुए हैं, तो दूसरी तरफ एनडीए गठबंधन अपने कार्यकाल की रिपोर्ट जनता के समक्ष रख रहा है। ‘बिहार में का बा’ बनाम ‘बिहार में ई बा’ के जरिये यह वाक्युद्ध चल रहा है। उपरोक्त आंकड़े के आधार पर इस बिंदु पर भी हमें बिहार को समझना आवश्यक है।
यह स्याह सच है कि राष्ट्रीय जनता दल की सरकार में बिहार में बुनियादी सुविधाओं का घोर आभाव था। कानून व्यवस्था बहुत लचर थी। ऐसे बिहार को इस स्थिति में लाकर खड़ा करना निश्चित तौर पर कठिन कार्य था, जिसे नीतीश सरकार ने किया। जिस स्थिति में नीतीश कुमार शासन संभाला था उस समय की सबसे बड़ी चुनौती कानून व्यवस्था और शांति को स्थापित करना था, जिसमें नीतीश कुमार नेतृत्व में एनडीए सरकार ने सफलता अर्जित की।
आज नीतीश कुमार अपनी सरकार के विकास के कार्यों के साथ जनता के बीच हैं, उनके पास अपने शासन की उपलब्धियों का एक मजबूत बुनियादी आधार है, जो बिहार में हुए विकास-यात्रा की कहानी को बयान कर रहा है। वहीं तेजस्वी व महागठबंधन के पास वादों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
महागठबंधन में शामिल प्रमुख दल कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल का इतिहास भी इतना कुख्यात है कि गलती से भी इनके नेता नहीं चाहेंगे कि इसका जिक्र हो, लेकिन जनता मतदान से पहले जनता इतिहास-भूगोल सबकुछ देखती है। आखिर जनता की इस कसौटी पर कौन खरा उतरेगा, ये तो चुनाव परिणाम बताएंगे किंतु इसमें कोई संकोच नहीं कि यह चुनाव बिहार के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण चुनाव है।
आज बिहार मूलभूत सुविधाओं से लैस हो चुका है। सड़क, बिजली, पानी के साथ आधारभूत संरचना के विकसित होने से बिहार की जनता का जीवन सरल व सुगम हुआ है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। लेकिन करने को अभी बहुत कुछ बाकी भी है और चुनौतियाँ भी हैं, जिनसे आगे बनने वाली सरकार को निपटना पड़ेगा।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में शोधार्थी हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)