काश्यां हि काशते काशी काशी सर्वप्रकाशिका।
सा काशी विदिता येन तेन प्राप्ताहि काशिका।।
(भावार्थ: आत्मज्ञान के प्रकाश से काशी जगमगाती है, काशी सब वस्तुओं को आलोकित करती है। जो इस सत्य को जान गया वह काशी में एकरूप हो जाता है।)
महान तत्वज्ञानी, सनातन धर्म-दर्शन के ध्वजावाहक, आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित काशीपंचकम का यह श्लोक आज पुनः जीवित हो उठा है। काशी से नित्य निकल रहे प्रकाश से भारतीय समाज की सदियों की वेदना और अत्याचार के सबूत प्रकाशित हो उठे हैं। हमारा जनमानस स्वतः जागृत हो रहा है। बिना किसी राजनैतिक आंदोलन के, बिना किसी नेता के नेतृत्व के, बिलकुल शांत और शालीन तरीक़े से।
हमारे पौराणिक सांस्कृतिक केंद्र के भग्नावशेष तो वहाँ पहले से ही परिलक्षित थे, पर इसबार अब तो वहाँ लगभग पिछले 350 सालों से असभ्य तरीक़े से बंदी बना कर रखी गयी उसकी आत्मा ही मिल गयी है। प्रमाण ऐसा कि सदियों से एकटकी लगाए नंदी महाराज एक सीध में उधर ही देखे जा रहे हैं। ऐसी भक्ति और अविचल निष्ठा को साष्टांग नमन है।
इस बार असत्य और कपट का व्यापार करने वालों को भी शुरू से ही पता है कि सत्य क्या है। इसी जमात के एक वयोवृद्ध इतिहासकार तो यहाँ तक कह रहे हैं कि हाँ इस इस्लामी मुग़ल शासक ने मंदिर तोड़े थे उसकी जगह मस्जिद बनाया और यह भी बोला कि यहाँ मंदिर नहीं बनने दूँगा, इतिहास में इसकी तारीख़ तक मौजूद है। लेकिन इस बार की इनकी सीनाज़ोरी थोड़ी अलग है। ये आगे कहते हैं, तो क्या? अब सरकार भी पुराने जमाने की तरह उस मस्जिद को हटा कर वहाँ मंदिर बनाएगी?
राम मंदिर की राह में भी रोड़े अटकाने वाली यही जमात, बाबरी ढाँचे के बारे में कहती थी कि इस बात के कोई प्रमाण ही नहीं हैं कि बाबर ने अयोध्या में मंदिर विध्वंस किया है और उस पर मस्जिद बनायी है। वो प्रश्न पूछते थे कि राम का जन्म यहीं हुआ है इसके सबूत क्या हैं ? अर्थात् उस समय इनके तर्कों के हिसाब से अगर मंदिर को हटा के मस्जिद बनने के सबूत उनके मुताबिक़ अगर प्रत्यक्ष होते तो इन्हें कोई आपत्ति नहीं होती और सहर्ष राम की चीज़ वो राम के नाम कर देते!
सुन्नी बोर्ड का भी यही कहना था कि ज़मीन खोद के देख लो सब दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। अयोध्या में पुरातात्विक विभाग ने न्यायालयी आदेश से जब सर्वेक्षण शुरू किया था, तब दोनों पक्षों में एक मौन सहमति बनी थी कि ज़मीन के नीचे जिसके सबूत निकले उसकी बात सच मान ली जाएगी। डर दोनों तरफ़ था कि क्या निकलेगा पर एक बात दोनों ही पक्षों ने समय-समय पर एक दूसरे को बोला कि आपकी बात का आधार क्या है? आप सबूत दो मैं मान जाऊँगा।
पर इस बार की कहानी ही अलग है। इस बार तो वो खुद ही कह रहे हैं कि हाँ मंदिर तोड़े, उसपर मस्जिद बनी है लेकिन फिर भी अब ये तुम्हें वापस नहीं करूँगा। काशी का प्रकाश कैसे इनके छल को जगज़ाहिर कर रहा है ये देखिए। पहले तो ये मानते ही नहीं थे कि मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनायी भी गयी हैं। तलवारों के दम पर कुछ रेगिस्तानी क़बिले भारत को भारतीयों की ही मरुभूमि बनाने पर आतुर थे, इस बात पर से भी इन्हें आपत्ति थी। इनके मुताबिक़ सूफ़ी करिश्मे और जादू ने इस्लाम भारत में लाकर भारतीयों पर बड़ा भारी एहसान किया था।
और अब आज इनका कुल मिला के जमा तर्क ये है कि 1991 का एक क़ानून है जो हमारे उन ढाँचों को मंदिरों में बदलने से रोकता है जिन्हें मंदिरों को तोड़ कर बनाया गया था ! इस बार इस एक तर्क के अलावा कुछ नहीं है इनके पास। ये लोग अन्याय की निशानी को यह कहकर बचाना चाहते हैं कि तो क्या, तुमने भी तो बहुत सारे बौद्ध मठों-स्तूपों को तोड़कर मंदिर बनाए थे।
हालाँकि ऐसे दावों का कोई आधार या सबूत नहीं है ना ही ऐसा कोई दावा किसी मंदिर को लेकर किसी अन्य समाज का है लेकिन वामपंथी झूठे इतिहास की बदौलत अब ये निर्लज्जता से बोल रहे हैं कि उसी तरह हमारे पूर्वजों ने भी तोड़ा, अब कुछ नहीं हो सकता। ये मान रहे हैं कि हाँ तुम्हारे मंदिरों को तोड़कर हमने मस्जिद बनायी लेकिन अब तुम कुछ नहीं कर सकते। और साथ ही साथ कुछ निज़ामी दंगाई शिव के तांडव को खुली चुनौती देने का दम्भ भर रहे हैं कि इस बार हम चुप नहीं बैठेंगे।
अब सवाल ये है कि चुप कौन बैठा है और चुप किसे बैठना चाहिए? क्या राम मंदिर के समय गढ़े गए उनके तर्क उन्हें ही अब नहीं मानने चाहिए? अपनी सहूलियत के हिसाब से अपने सिद्धांतों को ही बदल देना क्या फ़रेब नहीं है? इन ठेकेदारों ने सच को झुठलाने के प्रयास में भारत में इस्लाम और मुसलमानों का जितना नुक़सान किया है वो अकल्पनीय है। सच को नकार देने से, उससे मुँह मोड़ लेने से वह समाप्त नहीं हो जाता। बल्कि वो आपकी समझ से बाहर हो जाता है और पहले से ज़्यादा कहीं और मज़बूत भी।
काशी के प्रकाश को अब भी ये समझ नहीं पा रहे, दीवार पे लिखी इबारत ये पढ़ नहीं पा रहे! मस्जिद किसी दूसरे की छिनी ज़मीन पर ज़बरदस्ती नहीं बनायी जा सकती, क़ुरान का यह स्पष्ट संदेश है। जो सत्य है, जिसे वो जानते हैं, जिसे वो मानते हैं उसके मुताबिक़, अपने धर्म के मुताबिक़, वो आचरण नहीं कर पा रहे तो फिर अदालतें तो सत्य हेतु अपना निर्णय बनाएंगी ही। यह सुनिश्चित है।
और नित्य नये-नये सत्य अपने आप को अलग-अलग रूपों में प्रदर्शित करता रहेगा यह भी काशी की प्रकृति रहेगी ही। तो इस बार अपने आत्मा की रक्षा हेतु काशी अपने मूल स्वभाव से इतर व्यवहार करेगी यह अपेक्षा करना भी बेमानी है।
भारतीय दर्शन-ज्ञान की धुरी काशी, अखंड भारत के एकता की मिशाल काशी, वैदिक-पौराणिक काल से लेकर भारत की स्वतंत्रता तक भारतीय ज्ञान परम्परा के स्त्रोत रूप में प्रतिस्थापित काशी, क्या इस बार कुछ नया अपने गर्भ में लेकर आ रही है? क्या हम उसे देख पा रहे हैं? क्या हम उसे समझ पा रहे हैं? भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण का यह एक महत्वपूर्ण दौर है जब काशी एक बार फिर भारतीय समाज में व्याप्त मिथकों और अज्ञान को दूर करने वाला है और हमें अपनी जड़ों के नज़दीक ले जा के हमें और संपुष्ट करने वाला है।
ज़रूरत है हमें साहसी बनने की, साहस कि हम सच सुन सकें, सच देख सकें और सच बोल सकें और अंत में ज़रूरत पड़ी तो सच के लिए लड़ भी सकें। सच से नज़र चुराना, डर जाना कि वो कहीं कुछ अनिष्ट ना कर दे, यह महाभारत का सार नहीं है, यह गीता का ज्ञान भी नहीं है। न्याय की अवधारणा के भी यह विरुद्ध है।
अन्याय की इमारतें, अन्याय के प्रतीक चाहे वो किसी के भी हों, किसी भी काल खंड के हों, सभ्य एवं जागृत समाज में उसे गिरना ही होगा अन्यथा वो समाज केवल और केवल कायर ही माना जाएगा। और शिव की काशी कायर होगी, ऐसी सोच भी मूर्खता की पराकाष्ठा होगी।
(प्रस्तुत लेख सम्पादकीय समूह, काशी फाउंडेशन द्वारा लिखा गया है। इसमें व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)