भाजपा विरोधियों के दोहरे चरित्र से उठने लगा पर्दा, बेनकाब होने लगे चेहरे

शैलेन्द्र कुमार शुक्ल

साल 2014 में जब भारतीय जनता  पार्टी की नेतृत्व वाली एनडीए सरकार सत्ता में आयी तभी से विपक्षी दल, सुनियोजित गैंग की तरह काम करने वाले मीडिया घरानों और कुछ एनजीअे तंत्र द्वारा पूरे देश में ऐसा माहौल बनाया गया जैसे की भाजपा सरकार बनने से देश में तानाशाही लागू हो गयी हो। बेजा विरोध की यह घृणित परंपरा आज भी बदस्तुर जारी है। जब भी भाजपा शासित राज्यों अथवा देश के हिंदुओं के समर्थन में कोई कदम सरकार अथवा किसी संगठन द्वारा उठाया जाता है तो उस पर भी विरोधी दल एक बवाल खड़ा कर देते हैं। यह भारतीय मीडिया और विपक्षी पार्टियों की नैतिकता का दोहरा चरित्र ही कहा जाएगा कि वह हमेशा घटना के एक पक्ष को ही प्रदर्शित करते है, दूसरे को दबा देते हैं। इस बिंदु पर विचार करने के लिए हमें कुछ पीछे जाना होगा। अक्टूबर 2015 में अखलाक हत्याकांड के समय ही दनकौर में एक घटना घटी जिसमें उत्तर प्रदेश की पुलिस द्वारा एक परिवार के सभी लोगों को खुलेआम नंगा किया गया और गाँव में उनकी परेड करायी गयी, दुर्भाग्य से वो परिवार भी दलित था, लेकिन इस मामले को ना तो किसी मीडिया ने उठाया और ना ही कोई स्वयं सेवी संस्था और ना ही विपक्षी पार्टियां ही सामने आईं। दूसरी घटना कम्यूनिस्ट शासन वाले केरल के एर्नाकुलम में हुई। जहां एक 29 साल की लड़की के साथ पहले मारपीट की गयी फिर उसके साथ दुष्कर्म किया गया और फिर उसकी हत्या कर दी गयी, लेकिन इस क्रूर कांड के बाद भी ना तो वहां विपक्ष का कोई नेता गया और ना ही मीडिया में ही इस खबर को उचित कवरेज मिला और मामला ठंढे बस्ते में जाकर  शांत हो गया।

मीडिया को बयाने देते वक्त भाजपा सरकार को कोसने वाले राहुल गांधी बिहार की घटना पर कुछ नहीं बोले। यही नहीं केरल में आए दिन स्वयं सेवकों की हत्याएं और मारपीट होती रहती हैं, मगर उस पर भी कहीं कोई चर्चा नहीं होती। पूर्वोत्तर के बंगाल में बिहार में भी भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्यांऐ होती है, उनसे लूटपाट किया जाता है, लेकिन यह मीडिया के लिए कभी जरूरी खबर नहीं बनती। इनके विरोध के मायने केवल भाजपा और संघ है।  इन लोगों का विरोध यही से शुरू होता है और यही समाप्त होता है।

बड़ा सवाल है कि अगर ये घटनाएँ भाजपा शासित किसी राज्य की होती तब भी इन घटनाओं का ऐसे ही पटाक्षेप हो जाता? जिस अखलाक के मरने के बाद केजरीवाल से लेकर तमाम विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा बिषहाड़ा में कैम्प किया गया जबकि  वहीँ डॉ नारंग की हत्या पर ये तथाकथित सेक्युलर नेता उफ तक नहीं बोले, सहयोग और संवेदना की बात तो दूर है। 

courtesy: http://static.thefrustratedindian.com/
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अभी हाल ही में गुजरात के उना में हुई घटनाओं पर नजर डालें तो भी इन लोगों की नैतिक दोहरेपन का हालिया उदाहरण मिल जाएगा। उना में जिन दलित युवकों को तथाकथित उच्च जाति के लोगों द्वारा पीटा गया, उसे लेकर मामले को जातीयता वाले विवाद का रंग देने की भरसक कोशिश की गयी। जबकि सच्चाई यह है कि यह मुद्दा ही अलग था। जिन लोगों पर मारपीट का आरोप लगा उसमें एक मुसलमान लड़का भी था और यह मामला गौ हत्या का नहीं बल्कि चमड़े के व्यापार को लेकर था। लेकिन विपक्षी दलों से लेकर मीडिया तक में खबर के एक पक्ष को ही बढ़ा-चढाकर दिखाया गया। जब यह सब चल रहा था, ठीक उसी दौरान  बिहार भी एक घटना घटी। बिहार के मुजफ्फरपुर के मठिया टोला में दो युवकों को चोरी के आरोप में पहले जमकर पीटा गया और उसके बाद उन युवकों के मुंह में पेशाब करने जैसा कुकृत्य किया गया, लेकिन इस पर भी कहीं कोई आवाज नहीं सुनने को मिली। उस समय दलित हितों के पैरोकार भी आगे नहीं आए और ना ही केजरीवाल सरीखे मौकापरस्त लोगों की ओर से कोई बयान आया।  इस मामले में कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। ध्यान देने वाली बात यह है कि जिस समय सदन में इस मुद्दे पर चर्चा हो रही थी उस समय कांग्रेस उपाध्यक्ष सदन में सो रहे थे, उनके लिए चर्चा में भाग लेने से ज्यादा जरूरी सोना था। लेकिन दूसरे दिन वो उना में पीड़ित परिवार के लोगों से मिलने पहुंच गए। इस ड्रामें का पटाक्षेप यही नहीं हुआ बल्कि दिखावे के लिए पीड़ितों को, जिनको अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी थी, को फिर से भर्ती कराया गया। मीडिया को बयाने देते वक्त भाजपा सरकार को कोसने वाले राहुल गांधी बिहार की घटना पर कुछ नहीं बोले। यही नहीं केरल में आए दिन स्वयं सेवकों की हत्याएं और मारपीट होती रहती हैं, मगर उस पर भी कहीं कोई चर्चा नहीं होती। पूर्वोत्तर के बंगाल में बिहार में भी भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्यांऐ होती है, उनसे लूटपाट किया जाता है, लेकिन यह मीडिया के लिए कभी जरूरी खबर नहीं बनती। इनके विरोध के मायने केवल भाजपा और संघ है।  इन लोगों का विरोध यही से शुरू होता है और यही समाप्त होता है।