महात्मा गांधी के नाम से दिए जाने वाले जिस पुरस्कार पर कांग्रेस की असलियत उजागर हो रही है वही महात्मा गांधी गीता प्रेस के प्रकाशनों में नियमित रूप से लिखते रहे। गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में तो गांधी जी के लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। 1926 जब कल्याण पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ तब गांधी जी ने यह राय दी थी कि इस पत्रिका में कभी कोई विज्ञापन नहीं छापा जाए। तब से आज तक कल्याण पत्रिका में गांधी जी के इन वचनों का पालन किया जा रहा है।
गीता प्रेस गोरखपुर को 2021 का गांधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा के साथ ही कांग्रेस का हिंदू धर्म विरोधी चेहरा एक बार फिर उजागर हो गया। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार दिए जाने की आलोचना करते हुए इसे सावरकर और गोडसे को पुरस्कार देने जैसा बताया। इस बीच गीता प्रेस ने पुरस्कार को सम्मानपूर्वक स्वीकार करते हुए पुरस्कार के साथ मिलने वाली एक करोड़ रुपये की राशि लेने से इनकार कर दिया। गीता प्रेस ने अपनी स्थापना से लेकर आज तक कभी किसी से एक पैसे तक का अनुदान नहीं लिया है।
महात्मा गांधी के नाम से दिए जाने वाले जिस पुरस्कार पर कांग्रेस की असलियत उजागर हो रही है वही महात्मा गांधी गीता प्रेस के प्रकाशनों में नियमित रूप से लिखते रहे। गीता प्रेस की कल्याण पत्रिका में तो गांधी जी के लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते थे। 1926 जब कल्याण पत्रिका का पहला अंक प्रकाशित हुआ तब गांधी जी ने यह राय दी थी कि इस पत्रिका में कभी कोई विज्ञापन नहीं छापा जाए। तब से आज तक कल्याण पत्रिका में गांधी जी के इन वचनों का पालन किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि गोरखपुर स्थित गीता प्रेस की स्थापना साल 1923 में हुई थी। गीता प्रेस दुनिया के सबसे बड़े प्रकाशकों में से एक है। अब तक इस संस्था ने 14 भाषाओं में 41.7 करोड़ किताबों का प्रकाशन किया है जिनमें 16.21 करोड़ श्रीमद्भगवद्गीता की पुस्तकें शामिल हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस संस्था ने पैसा कमाने के लिए कभी भी अपने प्रकाशनों के लिए विज्ञापन नहीं लिए।
सनातन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में गीता प्रेस का उल्लेखनीय योगदान है। संस्था कम कीमत पर एक से एक मूल्यवान धार्मिक साहित्य गीता, रामायण, वेद, पुराण आदि सनातन धर्मावलंबियों के लिए उपलब्ध कराती रही है। ऐसे गीता प्रेस को सम्मान मिलने पर कांग्रेस की बिलबिलाहट उसके हिंदू विरोधी चेहरे को ही सामने ला रही है।
यह पहला मौका नहीं है जब कांग्रेस का हिंदू विरोधी चेहरा उजागर हुआ हो। हाल ही में कर्नाटक में सत्ता में आने वाली कांग्रेस ने भाजपा सरकार द्वारा राज्य में लागू किए गए धर्मांतरण विरोधी कानून को रद्द करने का ऐलान किया।
इसके साथ ही कर्नाटक की कैबिनेट ने कन्नड़ और सोशल स्टडीज की पाठ्यपुस्तकों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार और सावरकर से जुड़े पाठों को भी हटाने का फैसला किया है। असल में कांग्रेस के हिंदू विरोध का इतिहास पुराना है। इसे कुछेक उदाहरणों से समझा जा सकता है।
कांग्रेस ने संविधान में अनुच्छेद-25 शामिल कराया जिसमें धर्म परिवर्तन को मान्यता दी गई। इससे सबसे ज्यादा नुकसान हिंदुओं का हुआ क्योंकि हिंदू धर्म के लोगों का सबसे ज्यादा धर्म परिवर्तन कराया गया।
1951 में हिंदू धर्म दान अधिनियम के द्वारा कांग्रेस सरकार ने राज्यों को यह अधिकार दिया कि वे बिना कारण बताएं किसी भी मंदिर को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं। 1976 में आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करते हुए इसकी प्रस्तावना में पंथनिरपेक्षता को शामिल किया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत हिंदू बहुल देश होते हुए भी हिंदू देश नहीं कहा जा सकता।
1991 में पूजा स्थल कानून बनाया गया। इसके अनुसार हिंदू अपने मंदिरों की मुसलमानों के हाथ से छीनने की लड़ाई नहीं लड़ सकते। इस प्रकार मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा विध्वंस किए गए मंदिरों की लड़ाई की राह में कानून की बाधा खड़ी कर दी।
1995 में कांग्रेस की सरकार ने वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन किया किया जिसका मुख्य उद्देश्य अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देना था। आज वक्फ बोर्ड के पास भारतीय सेना और रेलवे के बाद सबसे ज्यादा जमीन है। इस प्रकार वक्फ बोर्ड देश का तीसरा सबसे बड़ा जमींदार है। इसी क्रम में 2004 में कांग्रेस सरकार ने भगवान श्री राम को काल्पनिक बताने वाला हलफनामा सुप्रीम कोर्ट में दायर किया था। यह सब कांग्रेस के हिंदू विरोधी चरित्र के चंद उदाहरण मात्र हैं।
हिंदू विरोधी मानसिकता और मुस्लिमपरस्ती का ही नतीजा है कि कांग्रेस का जनाधार लगातार कम होता जा रहा है। कभी देश के हर गांव, कस्बे से नुमाइंगदी दर्ज कराने वाली कांग्रेस आज गठबंधन की राजनीति के जरिए सत्ता की मलाई पाने के लिए भांति-भांति के उपाय कर रही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)