कांग्रेस मुक्त भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नारे की अनुगूंज और हालिया विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद पस्त पड़ी देश की सबसे पुरानी पार्टी को लेकर तीन बड़ी हस्तियों के विचार इन दिनों अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। देश ही नहीं, कांग्रेस के भी इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती महात्मा गांधी के विचारों का संकलन कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी के नाम से हुआ है। इसके वॉल्युम नब्बे में साफ दर्ज है कि आजादी के तत्काल बाद गांधी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देते हुए कहा था कि कांग्रेस का गठन देश की आजादी हासिल करने के लिए हुआ था। चूंकि अब उसका उद्देश्य पूरा हो गया है, लिहाजा उसे भंग कर देना चाहिए। 1916 से लगातार गांधी के इशारों पर चलने वाली कांग्रेस ने आजादी हासिल होते ही अपने प्रणेता के विचार को ही नकार दिया। गांधी के इस विचार के आलोक में अगर आज की कांग्रेस की हालत को देखते हैं तो लगता है कि जो काम गांधी नहीं कर पाए, उसे उसकी नीतियां लगातार कर रही हैं। असम और केरल के विधानसभा चुनावों में उसकी नीतियों ने ही उसे हार की राह पर धकेल दिया। हार के इन झटकों से अभी वह उबरी भी नहीं कि छत्तीसगढ़ में उसके क्षत्रप अजीत जोगी ने अलग राह चुन ली। कुछ उसी अंदाज में, जिस अंदाज में नब्बे के दशक में ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में अपनी अलग राह तलाश ली थी।
असम में वोट हासिल करने के लिए कांग्रेस ने लगातार विदेशी घुसपैठियों और अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीतियों को प्रश्रय दिया। इसका असर यह हुआ कि बराक घाटी और सीमावर्ती जिलों में असम के मूल निवासी लगातार अल्पसंख्यक होते गए और बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों की संख्या बढ़ती गई। शुरूआती दौर में तो यह सहनीय रहा। लेकिन 2012 में हुए दंगों में असम के मूल निवासियों के खिलाफ अवैध घुसपैठिया आबादी ने हमले किए और पुलिस मूकदर्शक की भूमिका में रही, उसी वक्त असमिया मूल के लोगों के मनों में देश की सबसे पुरानी पार्टी के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया। केरल में भी कुछ ऐसा ही हुआ।
अजीत जोगी का कांग्रेस से बाहर जाना मामूली बात नहीं है। अजीत जोगी कथित तौर पर आदिवासी नेता हैं। कथित इसलिए कि उनकी जाति का मसला अभी अदालत में लंबित है। उन पर आरोप है कि वे अनुसूचित जनजाति से नहीं आते। जिसके नाम पर वे पहले प्रशासन और बाद में राजनीति की मलाई खाते रहे हैं। जोगी का ताल्लुक उस अल्पसंख्यक वर्ग से है, जो ईसाई कहा जाता है। इस नाते उनके रिश्तों की मजबूत डोर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी जुड़ी रही है। सोनिया की सरपरस्ती के ही चलते वे पहले मध्य प्रदेश के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह को अपने ठेंगे पर रखते रहे और बाद में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने। सोनिया का चहेता होने का ही नतीजा था कि उन्होंने छत्तीसगढ़ के ताकतवर कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा, विद्याचरण शुक्ल, श्यामाचरण शुक्ल, नंदकुमार पटेल आदि को अपने सामने कुछ नहीं समझा। अगर ऐसे अजीत जोगी कांग्रेस का दामन छोड़कर अलग राह चुनते हैं तो इसे सामान्य घटना कम से कम उस कांग्रेस के लिए नहीं माना जा सकता, जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं।
अजीत जोगी के साथ छोड़ने के गम से उबरने की कोशिशें अभी जारी ही थीं कि हरियाणा कांग्रेस के बारह विधायकों ने राज्यसभा चुनावों के दौरान अजब खेल कर दिया। उन्होंने कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार आरके आनंद को वोट तो दे दिया, लेकिन वोट मिलने के बाद भी आनंद हार गए। उन्होंने आलाकमान का आदेश मानकर आर के आनंद को वोट दे भी दिया और वोट नहीं भी दिया। दरअसल उन्होंने अलग स्याही से वोट डाला। जिन बारह विधायकों ने ऐसा किया, वे मंजे हुए राजनेता हैं। उनसे अनजाने में यह गलती नहीं हुई। दरअसल हरियाणा कांग्रेस नहीं चाहती थी कि राज्य की राजनीति में उसकी विरोधी इंडियन नेशनल लोकदल के घोषित उम्मीदवार आरके आनंद का समर्थन करके उसकी पिछलग्गू बने। दिलचस्प यह है कि हरियाणा कांग्रेस में इस अनोखे विद्रोह का नेतृत्व उस भूपिंदर सिंह हुड्डा ने किया, जिन्हें 2004 में हरियाणा में जीत हासिल करने के बाद तत्कालीन हरियाणा कांग्रेस अध्यक्ष भजनलाल पर तरजीह देते हुए सोनिया गांधी ने राज्य की कमान सौंपी थी। तब से लेकर लगातार दस साल तक हुड्डा राज्य की कांग्रेसी राजनीति और सत्ता की धुरी रहे। यह बात और है कि इस दौरान उन पर बिल्डर और भूमाफिया लॉबी को बढ़ावा देने और उनके जरिए अकूत कमाई करने का आरोप लगा। उन पर सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की कंपनियों को बेजा फायदा पहुंचाने का आरोप तो उनके ही एक अधिकारी अशोक खेमका ने लगाया, जिसे उन्होंने लगातार तबादले का दंड दिया। कांग्रेस के लिए बुरी खबर त्रिपुरा से भी रही। उसके छह विधायकों ने एक साथ पार्टी छोड़ दी और ममता बनर्जी की अगुआई वाले तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया। इस तरह राज्य विधानसभा में कांग्रेस की बजाय तृणमूल कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल बन गई।
असम और केरल की कांग्रेस की हार के पीछे उसकी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति का कहीं ज्यादा असर रहा है। असम में वोट हासिल करने के लिए कांग्रेस ने लगातार विदेशी घुसपैठियों और अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण की नीतियों को प्रश्रय दिया। इसका असर यह हुआ कि बराक घाटी और सीमावर्ती जिलों में असम के मूल निवासी लगातार अल्पसंख्यक होते गए और बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों की संख्या बढ़ती गई। शुरूआती दौर में तो यह सहनीय रहा। लेकिन 2012 में हुए दंगों में असम के मूल निवासियों के खिलाफ अवैध घुसपैठिया आबादी ने हमले किए और पुलिस मूकदर्शक की भूमिका में रही, उसी वक्त असमिया मूल के लोगों के मनों में देश की सबसे पुरानी पार्टी के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया। केरल में भी कुछ ऐसा ही हुआ। वहां ईसाइयों और मुस्लिम आबादी के गठजोड़ और हिंदुओं के इजवा समुदाय के सहयोग से कांग्रेस सरकार चलाती रही। दिलचस्प यह है कि यहां वर्षों से अल्पसंख्यक ईसाई समुदाय के हाथों कांग्रेस के सत्ता की कमान रही। के करूणाकरण के बाद एके एंटनी और ओमान चांडी के ही हाथ राज्य की सत्ता की कमान रही और यह तथ्य जब बहुसंख्यक हिंदू समाज ने समझा तो वह गोलबंद होना शुरू हुआ और कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसल गई। अगर वह अपनी मौजूदा नीतियों में बदलाव नहीं करती तो आगे उसके लिए हालात और खराब होने हैं।
1962 के आम चुनावों में हार के बाद डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद का सिद्धांत गढ़ा था। इस सिद्धांत में समाजवादी दलों के साथ तत्कालीन भारतीय जनसंघ भी शामिल था। लोहिया आजाद भारत की तमाम बुराइयों के लिए कांग्रेस को ही जिम्मेदार मानते थे। उन्होंने संसद में तीन आना बनाम पच्चीस हजार का बहस चलाकर कांग्रेस को बचाव की मुद्रा में ला दिया था। उन दिनों देश के बहुसंख्यक समुदाय की रोजाना की आमदनी महज तीन आना यानी अठारह पैसे थी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पर रोजाना पच्चीस हजार रूपए खर्च हो रहे थे। इस बहस के बाद कांग्रेस कठघरे में आई और गैर कांग्रेसवाद के सैद्धांतिक आधार पर जब विपक्ष एकजुट हुआ तो 1967 के चुनावों में नौ राज्यों में कांग्रेस को सत्ता खो देनी पड़ी। लेकिन आज कांग्रेस की हालत यह है कि वह बिहार और उत्तर प्रदेश में गैरकांग्रेसवाद के पैरोकार लोहिया के राजनीतिक वारिसों की पिछलग्गू बन बैठी है। बिहार में तो उसने गैरकांग्रेसवाद के वारिसों के साथ ही गठजोड़ किया और सत्ता की मलाई खा रही है। दिलचस्प यह है कि सिद्धांत और लोहिया की विरासत की राजनीति करने वाले नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव जैसे लोग गैरकांग्रेसवाद का नारा भूल चुके हैं और कांग्रेस के साथ ही अपना भविष्य देख रहे हैं। यह बात और है कि ज्यादा फायदे में वे ही हैं और कांग्रेस उनकी पिछलग्गू ही नजर आ रही है।
कांग्रेस में मौजूदा बिखराव और उसके प्रभामंडल में लगातार हो रहे संकुचन को देखकर एक सैद्धांतिकी विकसित होती नजर आ रही है। माना जा सकता है कि कांग्रेस को एकजुट रखने का बड़ा माध्यम सत्ता ही है। यानी सत्ता नहीं रही तो उसके बिखराव की गुंजाइश बढ़ जाती है। हरियाणा और छत्तीसगढ़ को इस सैद्धांतिकी के निकष पर कसा जा सकता है। दूसरी सैद्धांतिकी यह मानी जा सकती है कि बदलते भारत की राजनीतिक जरूरत को समझने में कांग्रेस नेतृत्व चूक रहा है।
गैरकांग्रेसवाद के जनक लोहिया के शिष्य मधु लिमये भी ताजिंदगी कांग्रेसविरोध की ही राजनीति करते रहे। लेकिन 1995 में अपनी मृत्यु से कुछ दिनों पहले लिखे अपने लेख में लिमये ने कांग्रेस को देश की एकता के लिए जरूरी बताया था। गैरकांग्रेसवाद की विरासत के प्रबल पैरोकार के विचारों में कांग्रेस की हमदर्दी के संदर्भ में यह बदलाव नहीं आया था। दरअसल उन्हें लगा था कि अपने देशव्यापी संगठन के चलते देश विरोधी भावनाओं का मुकाबला करने में कांग्रेस की योद्धा की भूमिका निभा सकती है। फिर उसके पास स्वतंत्रता आंदोलन की महत्वपूर्ण थाती भी है। इस लेख को तब और ज्यादा महत्व मिला था, जब लिमये का निधन हो गया। तब कांग्रेस विरोधी संपूर्ण राजनीतिक खेमे ने भी लिमये के इस विचार से सहमति जताई थी। लेकिन क्या आज की कांग्रेस लिमये की मंशा को पूरा कर पा रही है। वोट हासिल करने को लेकर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और हवाई बातों पर आधारित उसकी नीतियों और उसके राजनीतिक दांवपेचों में कोई बदलाव नजर नहीं आ रहा है। वह पूर्ववत अपनी ही रौ में आगे बढ़ती नजर आ रही है। इससे वह एक खास वर्ग की ही पार्टी की तरह विकसित भी होती नजर आ रही है। जबकि आजादी के आंदोलन की अगुआई के दौरान उसका नजरिया समग्रता से ओतप्रोत रहा। आजादी के कुछ साल बाद तक वह इस समग्रता को चुनौती देने वाली नीतियों से बचती भी रही। लेकिन सत्तर के दशक में उसमें वोट हासिल करने के लिए जिन लटकों-झटकों की तरफ कदम बढ़ाया, जाति और वर्ग आधारित राजनीति को बढ़ावा दिया, उससे पैदा जिन्न उसे पिछली सदी के नब्बे के दशक में ही खाने लगा था। अब उस जिन्न की भकोसने की गति तेज हो गई है। ऐसे में कांग्रेस के सामने महत्वपूर्ण सवाल यह होना चाहिए था कि उसका मजबूत अस्तित्व कैसे बना रहे। इसके लिए उसे जमीनी हकीकत से पहले रूबरू होना होगा और अपनी नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन लाना होगा। विपक्ष में बैठने के बाद उसके पास इसके लिए पर्याप्त मौका है। लेकिन दुर्भाग्यवश वह रचनात्मक राजनीति और अपनी कमियों की ओर ध्यान देने की बजाय दूसरी ही राह पर चलने में ही अपनी भलाई देख रही है। ऐसे में उसकी सेहत मे बदलाव की उम्मीद बेमानी ही कही जाएगी।
(लेखक नेशनलिस्ट ऑनलाइन डॉटकॉम के संपादकीय सलाहकार हैं)