एक ओर सऊदी अरब जैसा रूढ़िवादी देश महिलाओें पर लगी तमाम बंदिशों में ढील दे रहा है, तो दूसरी ओर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में कांग्रेस पार्टी महिलाओं को रूढ़िवादी बेड़ियों में जकड़े रहने के समर्थन में है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि तुष्टिकरण की नीति के चलते घटते जनाधार के बावजूद कांग्रेस पार्टी मुस्लिमपरस्ती के संकीर्ण खोल से बाहर निकलने को तैयार नहीं है।
इसे नरेंद्र मोदी की राजनीतिक रणनीति की कामयाबी ही कहेंगे कि व्हिप जारी होने के बावजूद कांग्रेस पार्टी के पांच सांसद मतदान के दौरान सदन से अनुपस्थित रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2019’ को राज्यसभा ने 84 के मुकाबले 99 मतों से पारित कर दिया। हालांकि ये पांच लोग होते तो भी इस विधेयक को पारित होने से रोका नहीं जा सकता था।
देखा जाए तो अपने सिमटते दायरे के बावजूद कांग्रेस पार्टी तुष्टिकरण की नीति से बाज नहीं आ रही है तो इसका कारण कांग्रेस पार्टी का इतिहास है। अपने गठन से ही कांग्रेस पार्टी मुसलिमपरस्ती की नीति अपनाती रही। देश विभाजन के कत्लेआम, हैदराबाद प्रकरण, 1950 के दशक में समान नागरिक संहिता पर बहस, 1980 के दशक में शाहबानों केस और अब तीन तलाक पर कांग्रेस के रवैये से साबित हो गया कि 135 साल पुरानी पार्टी अभी भी रूढ़ियों में जकड़ी है।
2014 के लोक सभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त ने कांग्रेस पार्टी को आत्मचिंतन के लिए मजबूर किया था। इसी को देखते हुए हार के कारणों की समीक्षा के लिए वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ए के एंटनी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति कांग्रेस को ले डूबी। इसके बाद लोगों को उम्मीद जगी थी कि कांग्रेस में एक नए युग का सूत्रपात होगा लेकिन कांग्रेस पार्टी ने निराश कर दिया।
संख्या बल में हावी विपक्ष दो बार राज्य सभा में तीन तलाक विधेयक को रोक चुका था। कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी द्वारा युवाओं को तरजीह देने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उम्मीद थी कि कांग्रेस अपनी गलतियों पर पश्चाताप करेगी और मुस्लिम महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए आगे आएगी। यह उम्मीद इसलिए भी जगी थी क्योंकि हाल के दिनों में पार्टी के अंदर एक बड़े वर्ग ने एहसास किया है कि तुष्टिकरण की नीति पार्टी को मुख्यधारा की राजनीति से दूर ले जा रही है। इसके बावजूद तीन तलाक बिल पर कांग्रेस की सोच शाहबानों काल वाली ही बनी रही।
गौरतलब है कि 1978 में पति द्वारा तीन तलाक देकर घर से निकाली गई महिला शाहबानों ने गुजारा भत्ता के लिए अदालत की शरण लिया। जब यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा तब न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैसला दिया जो सभी पर लागू होता है। उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि शाहबानों को निर्वाह योग्य भत्ता दिया जाए। इस फैसले के बाद रूढ़िवादी और कट्टरपंथी तबकों में खलबली मच गई। उन्होंने राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाया कि वे न्यायालय के फैसले को पलटने के लिए कानून बनाएं। मुस्लिम वोट बैंक छिटकने के डर से तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक अधिकार संरक्षण) कानून 1986 पारित करके उच्चतम न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी बना दिया।
सरकार के इस फैसले का प्रगतिशील तबकों ने विरोध किया लेकिन राजीव गांधी सरकार ने इस विरोध को नकार दिया। इसके बाद से ही बहुसंख्यक हिंदुओं में कांग्रेस की मुस्लिमपरस्त छवि बनने लगी और उसका जनाधार घटने लगा। इसका परिणाम क्षेत्रीय दलों के उभार और कांग्रेस के पराभव के रूप में सामने आया।
कांग्रेस के तमाम अड़ंगों के बावजूद राज्य सभा में ‘मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक, 2019’ के पारित होने से भारत में सकारात्मक राजनीति की धमक सुनाई देने लगी है। इस प्रगतिशील राजनीति में कांग्रेस पार्टी अपने को कितना स्थापित कर पाती है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, लेकिन इतना तो तय है कि तुष्टिकरण की राजनीति की उसे आगे और भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)