रे! रोक युधिष्ठर को न यहाँ
जाने दो उनको स्वर्ग धीर!
पर, फिरा हमें गांडीव-गदा
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से आज करें,
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार;
सारे भारत में गूँज उठे,
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,
रे तपी! आज तप का न काल,
दिनकर के इन्हीं शब्दों में भारत की उन्नत्ति और सभी समस्याओं का समाधान है। आज भारत का बुद्धिजीवी वर्ग असमंजस में है, बहुत-सी भ्रामक धारणाएँ उन्हें दिगभ्रमित कर रही हैं! कायरतापूर्ण दर्शन और कुटिल हृदय-मस्तिष्क से देश का उद्धार नहीं होने को! आज मानवाधिकार, धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव की बातें बेमानी है, कोरा वितंडावाद है! सच तो ये है कि देश में एक अच्छा-खासा वर्ग है जो शल्य की भूमिका निभाता हुआ राष्ट्र के उत्साह और सामूहिक बल, संकल्प-शक्ति में पलीता लगाने का कार्य करता है, राष्ट्र के कर्णधारों को उनकी परवाह नहीं करनी चाहिए। कहाँ हैं वे मानवाधिकारवादी जो बात-बात पर अपराधियों-आतंकवादियों के मानवाधिकारों की दुहाई देते नहीं थकते ? कहाँ हैं धर्मनिरपेक्षता के वे झंडाबरदार जिन्हें भारत एक असहिष्णु देश लगता है ? कहाँ हैं अवॉर्ड वापसी गैंग के गुर्गे ? कहाँ हैं पैलेटगन का विरोध करनेवाले और कहाँ हैं बुरहान बानी जैसों के समर्थन में प्राइमटाइम वारने वाले ? कहाँ हैं भारत-पाक वार्त्ता के वे तमाम पैरोकार? नाज़ुक मौकों पर सबको साँप सूँघ जाता है! यही है इनकी नीति कि सामान्य परिस्थितियों में बिलों से निकल-निकल विभाजन के विष-बेल का पृष्ठ-पोषण और संकट-काल में बिलों में छिपकर शांत-मौन धारण!
प्याज़ के लिए आसमान सिर पर उठा लेने वाला समाज, दाल के लिए छाती-कूट विलाप करने वाला समाज, छोटी-छोटी माँगों-सुविधाओं के लिए आए दिन धरने-प्रदर्शन करने वाला समाज क्या युद्ध की कीमत चुकाने को तैयार है? सरकार को हमले की नसीहत देना, नहीं अब बहुत हुआ, अब और नहीं की उद्घोषणा करना आसान है, पर उसके लिए कठिनाइयों का स्वैच्छिक मार्ग चुनना दूसरी बात। फूलों की सेज़ चुनने वाला समाज, दिन-रात उनके ख़्वाब देखने वाला समाज, क्या काँटों का दंश झेलने को तैयार है?
बात-बेबात शांति के सुर अलापने वाले लोगों,आँख-कान खोलकर देख-सुन लो! जिस देश का जन्म ही मज़हबी जुनून की कोख से हुआ हो; जहाँ उसकी आज़ादी से लेकर आज तक भारत के प्रति घृणा की विषबेल को सींचने और पोषित करने का एकसूत्री कार्यक्रम चलाया जा रहा हो; जहाँ भारत से प्रतिकार व प्रतिशोध के लिए बच्चों-वयस्कों-प्रौढ़ों को विधिवत प्रशिक्षण से लेकर लौकिक-पारलौकिक प्रलोभन तक दिए जाते हों; जहाँ भिन्न मतों-पंथों के प्रति स्वाभाविक अनुदारता-अस्वीकार्यता की विषैली ग्रन्थि पैठी हो; जहाँ के शासक निर्लज्जता एवं ढीठता का धृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए जघन्य-से-जघन्य आतंकवादी वारदातों की पैरवी करते हुए मौत के सौदागरों को पुरुस्कृत-प्रोत्साहित करने का बहाना ढूँढ़ते हों; जहाँ बंदूकों-बमों, विध्वंसक हथियारों को ही प्रगति का एकमात्र पर्याय मान लिया गया हो; जहाँ लोकतंत्र के कोंपल को पनपने से पूर्व ही फ़ौजी बूटों तले निर्ममतापूर्वक कुचल दिया जाता हो; जहाँ की नसों और शिराओं में भारत-विरोध का लहू उबाल मारता हो..वहाँ बातचीत से किसी समाधान की उम्मीद करना कोरा स्वप्न है। कुछ वैसा ही स्वप्न कि इधर हम ” हिंदी-चीनी भाई-भाई” के नारे लगाते हुए शांति के कबूतर उड़ाते रहे और उधर वे हमारी सीमाओं के पर कतरते रहे।
आखिर क्यों समय रहते नहीं चेतते हमारे नेता..क्यों वे एक स्वप्निल और वायवीय दुनिया में जीते हुए विश्वशांति का मसीहा बनने का ख़्वाब संजोते हैं, क्यों वे अपनी ही छवि से मुग्ध होकर ऐसे-ऐसे फैसले लेते हैं, जिसकी कीमत पीढ़ियों को चुकानी पड़ती है? चाहे ताशकंद समझौता हो या शिमला, चाहे लाहौर वार्त्ता हो या आगरा – हर बातचीत की कीमत हमें अपने सैनिकों की कुर्बानी, अमानुषिक नरसंहार, अवांछित युद्ध तथा जन-धन की अपूर्णनीय क्षति के रूप में चुकानी पड़ी। एक ओर हम हर मंच पर पाकिस्तानी गायकों-कलाकारों को पुरस्कृत-सम्मानित करने का एकपक्षीय प्रयत्न करते रहे, दूसरी ओर वे दुनिया भर में हमें बदनाम करने की साजिशें रचते रहे। सच तो यह है कि भारत-पाक वार्त्ता एक अंतहीन एवं निरर्थक क़वायद है। समाधान भारत-पाक वार्त्ता में नहीं, इजराइल, अमेरिका और रूस जैसी नीति अपनाने में है। अच्छी बात ये है कि मोदी सरकार पाकिस्तान के साथ बातचीत और शांति प्रयत्नों को अब बंद कर चुकी है तथा उसके प्रति कठोर रुख अपना ली है।
युद्ध एकमात्र विकल्प नहीं, माना कि युद्ध के परिणाम भयानक ही सिद्ध होते हैं, किंतु युद्ध के डर से कब तक हम पलायन करते रहेंगे, कब तक हाथ पर हाथ धरे रहेंगे? क्या शांति का उत्तरदायित्व केवल हम पर है? इतिहास साक्षी है कि युद्ध के भय से डर-डरकर जीने वाली कौमों का कोई भविष्य नहीं होता। बल्कि कई बार शांति और स्थाई शांति के लिए युद्ध उसी प्रकार अवश्यंभावी हो जाता है, जिस प्रकार नवनिर्माण के लिए विनाश। बिना विनाश के सृजन संभव ही नहीं। एक टुटपुंजिया-सा देश हमें परमाणु हमले की धमकी देता है और हम सहम जाते हैं, ये तो हद है! मरने के डर से हम जीना ही छोड़ दें, ये कौन-सी बुद्धिमानी है? गीता का पाठ करने वाले देश को ये कायरता और कापुरुषता का घुन कहाँ से लग गया!
अब भी जाग जाइए, आपकी लड़ाई उन वहशी लोगों से है जो मज़हब के नाम पर कुछ गुज़रने के लिए तैयार हैं, जो या तो इस्लाम का राज्य स्थापित करने या मर गए तो जन्नत के हूर की तलाश में जान हथेली पर लिए-लिए घूम रहे हैं, आपकी लड़ाई उन लोगों से है जो छठी शताब्दी से तिल भर भी आगे नहीं बढ़े हैं, जिन्हें अपने पैगंबर का हुक्म बजाने के अलावा न कुछ और आता है, न वे जानना चाहते हैं, पर नहीं, आप हैं कि आज भी नर्सरी के स्लोगन-“हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई” आपस में हैं भाई-भाई” की पैरोडी-पैरोडी खेल रहे हैं। भूल जाइए, भ्रमित करने वाले इन विचारों, भटकाने वाले दर्शनों को अपने मन-मस्तिष्क से निकाल दूर फेंकिए; हर वक्त, हर घड़ी सचेत रहिए,सन्नद्ध रहिए,एक अघोषित युद्ध के लिए तैयार रहिए, वरना भविष्य में कोई नामलेवा भी नहीं बचेगा।
प्याज़ के लिए आसमान सिर पर उठा लेने वाला समाज, दाल के लिए छाती-कूट विलाप करने वाला समाज, छोटी-छोटी माँगों-सुविधाओं के लिए आए दिन धरने-प्रदर्शन करने वाला समाज क्या युद्ध की कीमत चुकाने को तैयार है? सरकार को हमले की नसीहत देना, नहीं अब बहुत हुआ, अब और नहीं की उद्घोषणा करना आसान है, पर उसके लिए कठिनाइयों का स्वैच्छिक मार्ग चुनना दूसरी बात। फूलों की सेज़ चुनने वाला समाज, दिन-रात उनके ख़्वाब देखने वाला समाज, क्या काँटों का दंश झेलने को तैयार है? यदि नहीं तो भूल जाइए आज़ादी! भूल जाइए स्वाभिमान! भूल जाइए राष्ट्राभिमान! ऐसे ही गाज़र-मूली की तरह कटते रहेंगे हम, ऐसे ही गजनवियों, गोरियों, तैमूरलंगों, नादिरशाहों, बाबरों, अज़हरों के हाथों लुटते-पिटते-मरते रहेंगे हम! राष्ट्र की अस्मिता, राष्ट्र के गौरव के लिए क्या इस देश के नौजवान अपना ही सलीब अपने कंधे पर लेकर चलने को तैयार हैं? पहले इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ लीजिए, फिर युद्ध की गर्जना कीजिए!
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)