गत आठ वर्षों में सबसे अधिक यदि किसीके प्रति भाषाई अभद्रता दिखी है, तो वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। मोदी की लोकप्रियता के कारण भाजपा को लगातार चुनावी सफलताएं प्राप्त होने से बौखलाया विपक्ष अपनी खीझ जब-तब प्रधानमंत्री के प्रति अपशब्दों के माध्यम से व्यक्त करता रहता है।
राजनीति में सहमति-असहमति और आरोप-प्रत्यारोप के होने से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन असहमति या आरोप की अभिव्यक्ति करते हुए आवश्यक होता है कि भाषाई शुचिता के प्रति सचेत रहा जाए। इस संदर्भ में भारतीय राजनीति की स्थिति चिंतित करने वाली है। कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी द्वारा अभी जिस तरह से देश की नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के प्रति अनुचित शब्दों का प्रयोग किया गया, यह दिखाता है कि हमारे राजनेताओं की भाषा का स्तर किस कदर पतित हो चुका है।
चौतरफा आलोचना के दबाव में राष्ट्रपति को पत्र लिखकर उन्होंने माफ़ी अवश्य मांग ली, लेकिन इस संदर्भ में उनके बयानों से ऐसा कहीं नहीं लगा कि उन्हें अपनी अशिष्ट भाषा को लेकर कोई पछतावा हो। वास्तव में, अधीर रंजन अब भले राष्ट्रपति के प्रति अपनी भाषाई अभद्रता को जुबान की फिसलन कहकर बचने की कोशिश करें, लेकिन यह समझना कठिन नहीं कि उनकी आपत्तिजनक भाषा के मूल में भाजपा उम्मीदवार के राष्ट्रपति बन जाने से उपजी बौखलाहट ही कारण है।
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमर्यादित भाषा की यह समस्या विपक्षी दलों और नेताओं कुछ अधिक ही बढ़ी है। गौर करें तो गत आठ वर्षों में सबसे अधिक यदि किसीके प्रति भाषाई अभद्रता दिखी है, तो वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। मोदी की लोकप्रियता के कारण भाजपा को लगातार चुनावी सफलताएं प्राप्त होने से बौखलाया विपक्ष अपनी खीझ जब-तब प्रधानमंत्री के प्रति अपशब्दों के माध्यम से व्यक्त करता रहता है।
देश की सबसे पुरानी पार्टी होने का दम भरने वाली वाली कांग्रेस की बात करें तो उसपर भाषाई शुचिता के शीलभंग का कुछ अधिक ही उत्साह सवार हो रहा है। अधीर रंजन का बयान तो इसका एक ताजा उदाहरण है ही, पहले भी कांग्रेस नेताओं के एक से एक शर्मनाक एवं आपत्तिजनक बयान सामने आते रहे हैं।
ज्यादा पुरानी बात नहीं जब कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने राफेल प्रकरण में प्रधानमंत्री मोदी के लिए ‘चोर’ जैसे आपत्तिजनक शब्द का प्रयोग किया था। इतना ही नहीं, वे प्रधानमंत्री के प्रति ‘तू-तड़ाक’ जैसी बेहद निम्नस्तरीय भाषा का इस्तेमाल तक कर चुके हैं। प्रबुद्ध राजनेता माने जाने वाले शशि थरूर प्रधानमंत्री की तुलना बिच्छू से कर चुके हैं। ये चंद उदाहरण हैं, अन्यथा मोदी के प्रति भाषाई अभद्रताओं का इतिहास तो ‘मौत के सौदागर’ से लेकर ‘नीच’ तक बहुत लम्बा है।
जाहिर है, राजनीतिक विरोध में अंधे हो चुके विपक्ष को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पदों की गरिमा तक का ख्याल नहीं रह गया है। विपक्ष को समझना चाहिए कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री किसी दल-विशेष के नहीं होते बल्कि देश के होते हैं, जिनका अपमान देश की जनता का अपमान है। विपक्ष की भाषाई अभद्रता के बचाव में तर्क दिया जाता है कि जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तो उनके प्रति तत्कालीन विपक्ष भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता था।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि संप्रग-2 सरकार के दौरान जिस तरह से सरकारी एजेंसियों द्वारा केन्द्रीय स्तर पर एक के बाद एक घोटाले सामने लाए गए, उनके चलते मनमोहन सिंह विपक्ष के निशाने पर रहे थे। लेकिन तमाम घोटाले सामने आने के बावजूद भाजपा के किसी शीर्ष नेता ने कभी मनमोहन सिंह के लिए ‘चोर’ शब्द का प्रयोग नहीं किया।
प्रधानमंत्री मोदी तो अक्सर अपने भाषणों में दलीय दायरे से ऊपर उठकर देश के विकास में मनमोहन सिंह समेत पिछले सभी प्रधानमंत्रियों के योगदानों का उल्लेख करते रहे हैं। इसी तरह, अभी हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने एक संबोधन में कहा कि मैं नेहरू या किसी भारतीय प्रधानमंत्री की नीतियों पर सवाल उठा सकता हूँ, नीयत पर नहीं। इस कथन के जरिये राजनाथ सिंह ने कहीं न कहीं भारतीय राजनीति में निहित स्वस्थ आलोचना की परंपरा का ही संदेश दिया। इन बातों से सभी दलों और नेताओं को प्रेरणा लेनी चाहिए।
पहले भी राजनीति में पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप के दौर चलते थे, लेकिन उसमें भाषाई गरिमा का लोप नहीं होता था। नेता एकदूसरे पर तंज़ करते थे, मगर किसीकी तौहीन नहीं की जाती थी। प्रसिद्ध घटना है कि एकबार पं जवाहर लाल नेहरू ने जनसंघ के लिए कहा था कि मैं जनसंघ को कुचल दूंगा। यह एक कठोर भाषा थी, लेकिन जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बड़े ही खूबसूरत ढंग से इसका जवाब देते हुए कहा था कि मैं आपकी कुचलने वाली मानसिकता को कुचल दूंगा।
कहने का अर्थ यह है कि पहले हमारे राजनेताओं में परस्पर सम्मान और सहिष्णुता की भावना होती थी, जो कि अब दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। अब अगर एक पक्ष ने कुछ आपत्तिजनक कहा, तो दूसरा पक्ष उससे भी अधिक आपत्तिजनक शब्दों के साथ जवाब देने उतर पड़ता है। जबकि वास्तव में अशिष्ट भाषा न केवल बात की गंभीरता को खत्म कर देती है, बल्कि बोलने वाले के वैचारिक दिवालियेपन को भी दिखाती है। बावजूद इसके हमारे विपक्षी नेताओं के अपशब्दों से लगाव का कारण समझ से परे है।
महात्मा गांधी के लिए हिंसा का अर्थ सिर्फ किसीको शारीरिक चोट पहुँचाना ही नहीं था, बल्कि कठोर शब्दों के जरिये मन को कष्ट पहुंचाने को भी वे हिंसा ही मानते थे। इस कारण वे अक्सर सत्य किन्तु मीठा बोलने पर जोर देते थे। अब गांधी के नामपर दशकों तक सत्ता का सुख भोगने वाली कांग्रेस गांधी की इस एक अति-सामान्य और सहज कसौटी पर कहाँ ठहरती है, यह बताने की जरूरत नहीं।
कुल मिलाकर इस स्थिति को देखते हुए नेताओं की भाषाई शुचिता सुनिश्चित करने के लिए भी एक क़ानून या कुछ कानूनी दिशानिर्देशों की सख्त जरूरत महसूस होती है, क्योंकि वर्तमान परिदृश्य में स्वेच्छापूर्वक हमारे नेतागणों से सभ्य भाषा की उम्मीद करना अब बेमानी हो चला है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)