अरुंधति राय ने तब एक शब्द भी नहीं बोला था, जब 1989 में भागलपुर में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। पंजाब में आतंकवाद के दौर में आतंकियों के खिलाफ आपकी कलम क्यों थमी? आतंकवाद के दौर में आप दुबकी रही आतंकियों के भय से। और अब आप सेना के रोल पर सवालिया निशान खड़े कर रही हैं। कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ तक देश के सामने चुनौती है। निश्चित रूप से देश के सुरक्षा बल देश को तोड़ने की मंशा रखने वालों को धूल में मिला देंगे। पर, देश को परेश रावल और अरुंधति राय में से एक को चुनना होगा। एक देश के शत्रुओं को कुचलने की बात करता है, दूसरा उनके साथ खड़ा है।
हिन्दी फिल्मों के बेहतरीन चरित्र अभिनेता और बीजेपी सांसद परेश रावल के पीछे सारी सेक्युलर बिरादरी हाथ धोकर पड़ गई है। परेश रावल ने कश्मीर में आर्मी की जीप से एक युवक को बांधकर घुमाने वाले मामले पर ट्वीट किया कि किसी पत्थरबाज को जीप से बांधने से अच्छा है अरुंधति राय को बांधो। इस ट्वीट पर तगड़ा बखेड़ा खड़ा हो गया। वाम और तथाकथित सेकुलर ब्रिगेड के पैरोकार परेश रावल की लानत-मलानत करने में लग गए। राजनीतिक गलियारे में कांग्रेस आदि विपक्षी दल भी परेश रावल के विरोध में उतर पड़े।
परेश रावल की भाषा पर सवाल उठ सकते हैं, पर बड़ा सवाल यह है कि क्या कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ तक में देश विरोधी ताकतों का खुलकर साथ देने वाली अरुंधति राय को कोई कुछ नहीं कहे? यानी वो देश को तोड़ने वाली शक्तियों के साथ घूमे-हाथ मिलाएं। अरुंधति राय यह सब करके अपने अगाध राष्ट्रप्रेम का परिचय देती हैं। परेश रावल या कोई अन्य अंरुधति राय की हरकतों पर सवाल खड़े कर तो आप उसे रगड़ दें। यह कहां का न्याय है?
अरुधंति राय कथित मसिजीवियों की उस जमात में शामिल हैं, जिनकी कलम देश को तोड़ने वाली शक्तियों के लिए ही चलती है। ये साऊथ दिल्ली के पॉश इलाकों की कोठियों में रहते हैं और बौद्धिक आतंक फैलाते हैं।
कभी अरुंधति राय छतीसगढ़ के दीन-हीन आदिवासियों का खून बहाने वाले माओवादियों के साथ खड़ी हो जाती हैं, तो कभी वो कश्मीर के पृथकतावादी नेता यासीन मलिक के साथ फोटो खिचवा रही होती हैं। अरुंधति राय कश्मीर की आजादी की पैरोकार हैं। वो कश्मीर में सेना पर पथराव से लेकर छतीसगढ़ में जवानों के शहीद होने पर एक शब्द भी नहीं बोलीं।
अब तो अरुंधति राय भारतीय सेना पर भी हमला बोलने लगी हैं। कहती हैं कि 1947 से भारतीय सेना का देश की जनता के खिलाफ ही इस्तेमाल हो रहा है। इसी तरह का बयान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार भी दे चुके हैं। बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अरुंधति राय ने सोच लिया है कि मानों उन्हें देश के खिलाफ बोलने का लाइसेंस सा मिल गया है।
अरुधंति राय ने कुछ समय पहले एक तमिल पुस्तक के विमोचन पर कहा कि ‘भारतीय सेना कश्मीर, नगालैंड, मिजोरम वगैरह में अपने लोगों पर अत्याचार करती रही है।’ अरुंधति राय का नजरिया भारत विरोधी भी है।
सरकार की नीतियों का विरोध करने का अधिकार देश के हरेक नागरिक को प्राप्त है। बेशक, आप सरकार की किसी नीति से असहमत हों। लेकिन माओवादियों के खेमे में जाकर बैठी इस मोहतरमा को बेनकाब किया जाना चाहिए। सबसे दुखद और चिंताजनक पक्ष ये है कि अरुंधति राय सरीखे देश-विरोधी तत्वों के कुछ चाहने वाले इनके लेखों-बयानों के लिंक्स को सोशल मीडिया पर साझा करके अपने कर्तव्य का निर्वाह भी करते हैं।
इन्हें ये सब करने में बड़ा आनंद आता है। अरुंधति राय वाम विचारधारा के उन कथित लेखकों के समूह का नेतृत्व करती हैं, जिन्हें भारत विरोध प्रिय है। ये लेखकों की जमात सुविधाभोगी है। ये वही लेखक हैं, जो दादरी कांड के बाद अभिव्यक्ति की आजादी का कथित तौर पर गला घोंटे जाने के बाद अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा रहे थे।
भारतीय सेना पर कठोर टिप्पणी करने वाली अरुंधति राय से पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने क्यों कभी सेना के कश्मीर से लेकर चेन्नई की बाढ़ राहत कार्यों को अंजाम देने पर लिखना पसंद नहीं किया?
अरुंधति राय की यासीन मलिक के साथ हाथ में हाथ डाले फोटो देखिए गूगल सर्च करके। यह वही यासीन मलिक है, जो इस्लामाबाद में भारतीय हाई कमीशन के बाहर धरना देता है मुंबई हमलों के मास्टरमाइंड हाफि़ज सईद के साथ बैठकर। अब जरा अंदाजा लगा लीजिए कि किस तरह के आस्तीन के सांप इस देश में पल रहे हैं। क्या अरुंधति राय भूल गई हैं कि सन 2008 में पाकिस्तान से आए आतंकियों ने मुंबई में करीब 200 लोगों का खून बहाया था? उस सारे आतंकी अभियान का अगुवा था पाकिस्तान में बैठा हाफिज सईद।
परेश रावल के ट्वीट पर उनकी जान के प्यासे हो गए कथित प्रगतिशील तत्वों से मेरा सवाल है कि वे बताएं कि अरुंधति राय ने कौन सी कालजयी पुस्तक लिखी है? क्या उनके लेखन से देश का आम-जन वाकिफ है? जवाब होगा कि कतई नहीं। क्या किसी भी आम-आदमी ने ख़रीद कर अरुंधति राय की एक भी पुस्तक पढ़ी?
यह रोना व्यर्थ होगा कि अब लोगों की पढ़ने की आदत ख़त्म हो गयी है। अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत जैसे लेखकों की रचनाएँ लांच होने से पहले कैसे बिक जाती हैं? ये क़लम की कथित सिपाही अपने लेखन से जन-जागरण करने के बजाय देश विरोधी ताकतों की मोहरा बन कर ख़ुश हैं। देश विरोध का टेंडर उठा चुकी अंरुधति राय ने गोधरा कांड में मारे गए मासूमों को लेकर कभी एक लेख या निबंध नहीं लिखा।
अरुंधति राय ने तब एक शब्द भी नहीं बोला था जब 1989 में भागलपुर में मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। पंजाब में आतंकवाद के दौर में आतंकियों के खिलाफ आपकी कलम क्यों थमी? आतंकवाद के दौर में आप दुबकी रही आतंकियों के भय से। और अब आप सेना के रोल पर सवालिया निशान खड़े कर रही हैं। कश्मीर से लेकर छतीसगढ़ तक देश के सामने चुनौती है। निश्चित रूप से देश के सुरक्षा बल देश को तोड़ने की मंशा रखने वालों को धूल में मिला देंगे। पर देश को परेश रावल और अरुंधति राय में से एक चुनना होगा। एक देश के शत्रुओं को कुचलने की बात करता है, दूसरा उनके साथ खड़ा है।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)