दशकों से भ्रष्टाचार, धनबल, बाहुबल, जाति, धर्म के अंतहीन जाल में उलझी भारतीय राजनीति को आम आदमी पार्टी ने एक नई दिशा देने की शुरूआत की थी। इसीलिए जनता ने भी उसे हाथोहाथ लिया; लेकिन राजनीति की यह स्वच्छ धारा अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार बनकर राजनीति के कीचड़ में तब्दील हो गई।
पत्रकार से नेता बने आम आदर्मी पार्टी के वरिष्ठ नेता आशुतोष के इस्तीफे ने पार्टी की नींव हिलाने का काम किया। भले ही केजरीवाल इस्तीफा स्वीकार नहीं करने की बात कर रहे हैं, लेकिन इतना तो तय है कि आम आदर्मी पार्टी अब खास आदमी पार्टी बन चुकी है। आशुतोष अरविंद केजरीवाल की तानाशाही और भ्रष्ट कार्यशैली के पहले शिकार नहीं हैं। इससे पहले शाजिया इल्मी, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण आनंद कुमार जैसे वरिष्ठ नेताओं को पार्टी छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया या पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया।
लोकतंत्र में चुनाव सिर्फ सरकार बनाने की प्रक्रिया नहीं है। यह राजनीतिक दलों की नीतियों, संगठन और नेतृत्व तक की परीक्षा भी होते हैं। चुनाव राजनीतिक दलों के चाल, चरित्र और चेहरे को भी उजागर करते हैं। आम आदमी पार्टी और इसके मुखिया अरविंद केजरीवाल का चाल चरित्र उसी दिन से उजागर होना शुरू हुआ जिस दिन से पार्टी को दिल्ली में 70 में से 28 सीटों पर विजय मिली। यह जीत अरविंद केजरीवाल की राजनीतिक मेहनत का नतीजा न होकर कांग्रेसी करप्शन की देन थी, लेकिन केजरीवाल ने उसी कांग्रेस से समर्थन ले लिया जिस कांग्रेस की भ्रष्ट भूमि पर आम आदमी पार्टी की पैदाइश हुई थी।
जनता में गलत संदेश जाता देख केजरीवाल ने जल्दी ही कांग्रेस से पीछा छुड़ा लिया। इसके बाद से ही केजरीवाल में प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा कुलाचें मारने लगी। हालांकि लोक सभा चुनाव में पार्टी की बुरी तरह से हुई हार ने उनके सपनों की उंची उड़ान पर ग्रहण लगा दिया लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में से 67 सीटों पर मिली जीत से एक बार फिर वे पुरानी रौ में आ गए।
अब केजरीवाल अपने उन साथियों को किनारे लगाने लगे जिनसे उन्हें चुनौती मिलने की अंदेशा था। इसके बाद से ही वे मोदी विरोधी अखिल भारतीय चेहरे के रूप में उतरने की कवायद में जुट गए। लालू यादव के साथ गलबहियां ऐसी ही कवायद थी।कांग्रेसी कुशासन और भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में हीरो बनकर उभरने वाले केजरीवाल का कांग्रेस की गोद में जाकर बैठना जनता के साथ केजरीवाल के उन साथियों को भी नागवार गुजरा जिन्होंने अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में अपना पसीना बहाया था।
अब केजरीवाल लोगों का ध्यान बंटाने की कांग्रेसी राह पर चल पड़े। दिल्ली में सुशासन की राजनीति करने की बजाय केजरीवाल कभी मोदी पर सीधा हमला बोलते तो कभी ईवीएम को कटघरे में खड़ा करने लगे। इतना ही नहीं केजरीवाल अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए भ्रष्टाचार को भी प्रश्रय देने लगे।
राज्य सभा के दिल्ली कोटे की तीन सीटों के चुनाव के समय आम पादमी पार्टी का असली चरित्र उजागर हुआ। इसमें जिन सुशील गुप्ता को केजरीवाल ने राज्य सभा का टिकट दिया, वे महज 35 दिन पहले तक कांग्रेसी हुआ करते थे। उनके चुनाव के समय विरोधियों ने ही नहीं, केजरीवाल के नजदीकी सहयोगियों ने भी सीट के बदले नकद लेन-देन का आरोप लगाया था। इस प्रकार जिस स्वच्छ राजनीति का ख्वाब आम आदमी पार्टी ने दिखाया था, वह केजरीवाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का शिकार बन गई।
जनता में पार्टी की साख गिरने का नतीजा हुआ कि आम आदमी पार्टी राज्यों के विधानसभा चुनावों में बुरी तरह हारने लगी।पंजाब में सरकार बनाने की अग्रिम तैयारी करने वाली पार्टी को महज 20 सीटें मिली जबकि 25 पर उसकी जमानत जब्त हो गई। कमोबेश यही हाल गोवा में भी हुआ। आमतौर पर उप चुनाव के नतीजे सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में जाते हैं लेकिन दिल्ली के राजौरी गार्डन उपचुनाव में आप को हार का सामना करना पड़ा।
समग्रत: आम आदमी पार्टी (आप) ने जिस शुचिता और ईमानदारी की राजनीति का आगाज किया था, उसका सूर्यास्त होने को है। राजनीति की दिशा और दशा बदलने का दावा करने वाली पार्टी परंपरागत राजनीति में घुलमिल कर रह गई। आम आदमी पार्टी को जो कामयाबी मिली थी, वह परंपरागत राजनीति के खिलाफ जनता के मन में बैठे असंतोष के कारण मिली थी। चूंकि अब पार्टी लकीर का फकीर बन चुकी है, इसीलिए अब उसके भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)