भारत का आज का काल, एक क्रांति के दौर से गुजर रहा है। भारत के जनमानस को शायद अभी पूरी तरह से एहसास नही है कि वह, उस सौभाग्यशाली पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, जो भारत के बदलने के हर पल पल को न सिर्फ अपने अंदर समेट रही है, बल्कि उसकी भागीदार भी बन रही है। यह शायद इसलिए है, क्योंकि यह अभी तक एक परस्पर संघर्षहीन क्रांति है, जो भारत में 16 मई 2014 से शुरू हो चुकी है। जनमानस, जब क्रांति की बात करती है तो उसके जहन में एक ही तस्वीर उभरती है, जिसमें जनता सड़क पर आ जाती है और वर्षो से सत्ताधिकार जमाये वर्ग को उखाड़ फेंकती है। लेकिन भारत में यह क्रांति अभी तक लोकत्रांतिक व्यवस्था से निकल कर आयी है, जिसमें जनता ने वोट के माध्यम से 6/7 दशको से सत्ता पर काबिज़ वर्ग को हटा दिया है और एक परिवर्तन की राह को देख रही है। सही मायने में ‘क्रान्ति’ शब्द का प्रयोग सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं में परिवर्तन की ओर संकेत के लिए किया जाता है। इसको यदि राजनीतिक सिद्धांत से समझें तो क्रांति वह है, जो किसी देश में राजनीतिक सत्ता के आकस्मिक परिवर्तन से आरंभ होती है और फिर वहीं के सामजिक जीवन को नए रूप में ढाल देती है।
आज काले धन को संरक्षित करने के लिए गरीबों की तकलीफ का बहाना बनाकर जो लोग लामबंद हुए हैं, वह निश्चित रूप से शक्तिशाली हैं और राष्ट्रहित के प्रति उनकी निष्ठा संदिग्ध प्रतीत होती है। ऐसे में, सभी भारतीयों को चाहिए कि इन विरोधियों से सावधान रहते हुए ऐसी कोशिश करें कि किसी भी तरह का उपद्रव और दंगा न हो और यदि काले धन के हिमायती प्रधानमंत्री मोदी पर या उनकी सरकार पर कोई आक्रमकता दिखाते है तो लोकतान्त्रिक ढंग से उनका माकूल उत्तर भी दिया जाय।
भारत ने जो ढाई वर्ष पूर्व हुए राजनैतिक सत्ता के परिवर्तन को देखा है, अब उस परिवर्तन के सामाजिक जीवन में प्रवेश का समय शुरू हो गया है। उसकी शुरुआत नरेंद्र मोदी के काले धन की संस्कृति पर प्रहार से हो चुकी है और इसी के साथ भारत की राजनीती के स्थापित अघोषित नियमो के अंत की भी शुरुआत हो गयी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस प्रहार को जहाँ देश की जनता ने कुछ तकलीफों के बाद भी हाथो-हाथ लिया है, वहीँ प्रधानमंत्री मोदी के काले धन से निपटने की दृढ़ता से घबड़ाकर काले धन के सरंक्षकों और उससे पल्लवित तन्त्र ने राजनैतिक विचारधारा और सामाजिक व संसदीय मर्यादाओ के बन्धनों को तोड़कर मोदी के विरुद्ध हाथ मिला लिए है।
मोदी जी के राजनैतिक विरोधियों के रुदन और रोष को तो जनता समझ ही रही है, लेकिन उसके साथ उनके कारणों को भी समझ रही है। केजरीवाल इसलिए व्यथित हैं, क्योंकि संभवतः उनकी अपनी पार्टी का सारा पैसा जो पंजाब चुनाव में लगना था, डूब चुका है। ममता बनर्जी इतनी बदहवास हो गईं कि वह बंगाल छोड़ दिल्ली ही आकर बैठ गयी हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये उनकी सरकार के सरक्षण में चलने वाले उनके वोट बैंक अवैध बंगलादेशियों द्वारा “मालदा” से संचालित जाली नोटों का धंधा तितर-बितर होने और शारदा चिट-फंड के सैकड़ो करोड़ रुपये डूबने का गम हो ? राहुल गाँधी एक लाइन से दूसरी लाइन में इस लिए भाग रहे हैं, क्योंकि उनके परिवार और उनकी पार्टी ने जिस संस्कृति को जन्म दिया व संरक्षित किया है, वह आज भयावह रूप से अपने अंत को देख रही है। उत्तर प्रदेश के सैफई परिवार के लोग इस कदर शोक में चले गए कि जहाँ उनके प्रमुख मुलायम सिह यादव को पूरे देश ने 7 दिन की मोहलत की मांग करते हुए देखा है, वहीँ उनके पुत्र अखिलेश यादव को काले धन को भारतीय अर्थव्यवस्था की जरूरत बताकर उसकी वकालत करते हुए भी देखा है। मायावती भी सदमे में हैं। लालू यादव तो खैर अपनी जबान और गवई व्यंग्य की विधा को ही खो बैठे हैं, क्योंकि नोटबंदी बिहार में कुख्यात ‘दरभंगा’ मॉड्यूल का धंधा उजड़ गया है, जो उनके संरक्षण में जाली नोटों के व्यापार से फला फुला था। राजनीतिक लोगो के साथ मिडिया का एक धड़ा भी अकबकाया हुआ है, जो राजदीप, रवीश जैसे कथित पत्रकारों की अगुवाई में एक से एक झूठ का बाजार गर्म करने में संलग्न है।
बहरहाल, आज काले धन को संरक्षित करने के लिए गरीबों की तकलीफ का बहाना बनाकर जो लोग लामबंद हुए हैं, वह निश्चित रूप से शक्तिशाली हैं और उनकी राष्ट्रहित के प्रति उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध प्रतीत होती है। ऐसे में, सभी भारतीयों को चाहिए कि ऐसी कोशिश करें कि किसी भी तरह का उपद्रव और दंगा न हो और यदि काले धन के हिमायती प्रधानमंत्री मोदी पर या उनकी सरकार पर कोई आक्रमकता दिखाते है तो लोकतान्त्रिक ढंग से उनका माकूल उत्तर भी दिया जाय। आज भारत एक ऐसी क्रांति का भागी हो रहा है, जहाँ शासक को जनता का पूरा समर्थन प्राप्त है और जनता अपने भविष्य के लिए मोदी सरकार के समर्थन में खून और पसीना बहाने के लिए तैयार है। आप तैयार और सजग रहिये और एक नारा हमेशा याद रखिये जो नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने भारतवासियों से कहा था. ” तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा”. तब तो हम लोग नही थे, लेकिन आज हैं। आज हमे आज़ादी की उम्मीद है और उसके लिए खून भी देना हो तो हम देंगे।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)