उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में माँ-बेटी के साथ हुई गैंगरेप की वारदात ने एकबार फिर यह साफ़ कर दिया है कि अपने शासन के चार वर्ष बिता लेने के बाद भी सूबे की अखिलेश सरकार प्रदेश में क़ानून व्यवस्था को जरा भी दुरुस्त नहीं कर सकी है, बल्कि इस अवधि में क़ानून का राज और भी लचर ही हुआ है। इस वारदात के बाद पीड़ित परिवार किस मनोदशा में है, उसे इसी से समझा जा सकता कि वह अब शहर छोड़कर जाने और दोषियों को जल्द से जल्द सजा न मिलने पर जान देने की बात कर रहा है। जिस परिवार के पुरुष की आँखों के सामने उसकी पत्नी और बेटी के साथ हैवानियत की हदें पार की गई हों, उसकी यह मनोदशा होनी स्वाभाविक ही है। यूपी पुलिस तीन लोगों को गिरफ्तार करके अपनी पीठ थपथपा रही तो वहीँ प्रदेश सरकार ने भी कुछेक पुलिस अधिकारियों का निलंबन आदि कर अपराधों के प्रति सख्ती दिखाने के अपने दायित्व की इतिश्री कर ली है। बुलंदशहर के साथ ही शिकोहाबाद के दिल्ली-कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग पर भी पांच व्यक्तियों ने एक परिवार को रोककर ऐसे ही सामूहिक बलात्कार की वारदात को अंजाम दिया। अब ये घटनाएं किसी वीरानें में तो हुई नहीं, राष्ट्रीय राजमार्गों के निकट हुई हैं। लेकिन, घंटों तक चली इन वारदातों के दौरान यूपी पुलिस की कोई पेट्रोलिंग टीम भी इन इलाकों से होकर क्यों नहीं गुजरी, ये बड़ा सवाल है। ऐसे ही और भी कई सवाल हैं, जिनका जवाब न केवल यूपी पुलिस बल्कि समूची अखिलेश सरकार को देना होगा।
यादव तुष्टिकरण के इस आरोप के सम्बन्ध में एक समाचार चैनल की पड़ताल पर गौर करें तो पिछले वर्ष के अंत तक यूपी के कुल ७५ जिलों के १५२६ थानों में से ६०० थानों पर यादव थानेदार नियुक्त थे। इनमे से कितने थानेदार तो इतने सिर चढ़े हैं कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों तक की भी नहीं सुनते। कितनों के तो मुलायम और अखिलेश यादव से सम्बन्ध होने की बात सामने आई है। यह भी आरोप है कि इन यादव थानेदारों की नियुक्ति के लिए अखिलेश सरकार द्वारा नियुक्ति के नियमों में ढील दी जाती है।
यह तो अनुभव सिद्ध बात है कि सपा सरकार जब भी यूपी में सत्ता में रही है, तो अपराध बढ़े हैं। लेकिन, बावजूद इसके साल २०१२ में जब यूपी में चुनाव हुए तो मायावती की अहंकारी, विलासी, भ्रष्ट और तानाशाह जैसी छवि से त्रस्त प्रदेश की जनता ने सपा को पूर्ण बहुमत देकर सिर्फ इसलिए विजयी बनाया कि उसके सामने अखिलेश यादव के रूप में एक युवा चेहरा था। प्रदेश की जनता को लगा कि यह युवा मुख्यमंत्री सपा शासन के पूर्व तौर-तरीकों से अलग, एक नए ढंग, नए जोश और नई ऊर्जा के साथ शासन को चलाएगा। लोगों को लगा कि अखिलेश यादव सपा शासन के पूर्व लक्षणों जैसे कि जातीय तुष्टिकरण, पार्टी कार्यकर्ताओं के अनावश्यक संरक्षण आदि को नहीं अपनाएंगे और प्रदेश को एक बेहतर शासन-प्रशासन मिलेगा। लेकिन, अखिलेश सरकार के शासन की बागडोर सँभालने के बाद से ही यूपी में अपराधों के बढ़ते स्तर ने जनता को हतप्रभ कर दिया। आज इस सरकार के चार साल गुजरने के बाद तो यूपी की जनता समझ चुकी होगी कि समाजवादी पार्टी की इस सरकार में सिर्फ चेहरा बदला है, सूरत मुलायम सरकार की ही है। हालत यह है कि प्रदेश में क़ानून व्यवस्था जैसी कोई चीज दूर-दूर तक नहीं दिखती। अपराध और अपराधियों का ही बोलबाला नज़र आता है। इस संदर्भ में आंकड़ों पर गौर करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार सन २०१२ में सपा सरकार के सत्ता में आने के बाद विगत वर्षों के मुकाबले आपराधिक घटनाओं में प्रतिवर्ष केवल वृद्धि हुई है। वर्ष २०१२ में यूपी में हत्या जैसे जघन्य अपराध के ४९६६ मामले सामने आए तो वहीँ २०१३ में इनकी संख्या बढ़कर ५०५७ हो गई। २०१४ में सभी तरह के अपराध मिलाकर लगभग ३४ हजार आपराधिक घटनाएं हुईं। वर्ष २०१५ में भी स्थिति बहुत अधिक नहीं बदली। अभी ये सिर्फ वे मामले हैं जिनकी प्राथमिकी थानों में दर्ज हुई है। जाने कितने मामले ऐसे होंगे जिनमे प्राथमिकी दर्ज नहीं हुई होगी। इन आंकड़ों के बाद यह कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि यूपी में क़ानून का नहीं अपराधियों का राज रह गया है। अब एक तरफ प्रदेश में क़ानून व्यवस्था की हालत ऐसी है और दूसरी तरफ प्रदेश सरकार पुलिस प्रशासन में जातीय तुष्टिकरण का तिकड़म भिड़ाने में लगी है।
प्रदेश सरकार के इस तुष्टिकरण की चर्चा तो रहती ही थी, लेकिन इस सम्बन्ध बड़ी हलचल तब सामने आई जब गत वर्ष यूपी के बाराबंकी में एक महिला को थाने में थानेदार द्वारा बलात्कार कर जिन्दा जला दिया गया। ये थानेदार साहब यादव जाति के थे। इस मामले में जब प्रदेश सरकार की बहुत किरकिरी होने लगी तो थानेदार को उनके पद से हटाते हुए उन पर हत्या का मुकदमा तो दर्ज हुआ, लेकिन उनकी जगह भगवती प्रसाद यादव यानी फिर एक यादव थानेदार की ही नियुक्ति कर दी गई। इस मामले पर प्रदेश के प्रमुख विपक्षी दल बसपा की प्रमुख मायावती द्वारा सपा सरकार पर आरोप लगाया गया कि वो यादव तुष्टिकरण करने में लगी है, इसी कारण बाराबंकी मामले में थानेदार को बचाने की कोशिश कर रही है। यादव तुष्टिकरण के इस आरोप के सम्बन्ध में एक समाचार चैनल की पड़ताल पर गौर करें तो पिछले वर्ष के अंत तक यूपी के कुल ७५ जिलों के १५२६ थानों में से ६०० थानों पर यादव थानेदार नियुक्त थे। तिसपर इनमे से कितने थानेदार तो इतने सिर चढ़े हैं कि अपने वरिष्ठ अधिकारियों तक की भी नहीं सुनते। कितनों के तो मुलायम और अखिलेश यादव से सम्बन्ध होने की बात सामने आई है। यह भी आरोप सामने आया कि इन यादव थानेदारों की नियुक्ति के लिए अखिलेश सरकार द्वारा नियुक्ति के नियमों में ढील दी जाती है। इन बातों के अतिरिक्त इसे महज संयोग कहें या तुष्टिकरण का एक और नज़ारा कि प्रदेश पुलिस के वर्तमान महानिदेशक उस मुस्लिम समुदाय से हैं, जिसके तुष्टिकरण का आरोप भी सपा सरकार पर लगता रहा है। इनसे पूर्व जगमोहन यादव महानिदेशक थे। इन महानिदेशकों को सपा सरकार के एम्-वाई (मुस्लिम-यादव) फैक्टर के तुष्टिकरण का ही एक उदाहरण कहें तो शायद गलत नहीं होगा। इन तथ्यों के बाद इस बात से इंकार करने की कोई वजह नहीं दिखती कि राज्य की पुलिस व्यवस्था में भी सपा सरकार के जातीय तुष्टिकरण का दीमक लग चुका है और कहीं न कहीं इसीका परिणाम है कि आज राज्य की क़ानून व्यवस्था एकदम ध्वस्त नज़र आ रही है। अगर यही स्थिति रही तो संदेह नहीं कि अगले साल होने यूपी विधानसभा चुनावों में जनता अखिलेश सरकार का भी वही हश्र करेगी, जो पिछले चुनावों में मायावती सरकार का की थी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)