देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहने वाली मायावती का राजनीतिक भविष्य अंधकार की ओर अग्रसर है। यह बात हाल ही में हुए यूपी के उपचुनावों में पुनः साफ़ हो गयी। सबसे बड़ी बात यह है कि मायावती पार्टी के पराभव की समीक्षा न करके बहुजन समाज पार्टी को उसी परिवारवाद की ओर ले जा रही हैं जिसके कारण कई राजनीतिक दलों का असमय सूर्यास्त हो चुका है।
समय बहुत बलवान होता है इस कहावत बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती से अधिक कोई नहीं समझ सकता। जिस बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन के लिए कभी राष्ट्रीय दल लाइन लगाए रहते थे वही बसपा अब अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है। उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा उप चुनाव में मिली करारी शिकस्त ने बसपा प्रमुख मायावती की नींद उड़ा दी है। उन्हें डर लगा रहा है कि यदि इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में विकास और सुशासन की राजनीति चलती रही तब तो बसपा का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा।
देखा जाए तो कभी राष्ट्रीय राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाली मायावती का पराभव भ्रष्टाचार की राजनीति के चलते हुआ। 2011-12 में भाजपा सांसद कीरिट सोमैया ने नोएडा-ग्रेटर नोएडा में भूमि आवंटन घोटाले की फाइल आयकर विभाग को सौंपी थी। उस समय केंद्र में यूपीए की सरकार थी और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की। चूंकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी भ्रष्टाचार और वोट बैंक की राजनीति की उपज थीं इसलिए तत्कालीन केंद्र व उत्तर प्रदेश सरकार ने बसपा प्रमुख मायावती और उनके भाई आनंद कुमार को क्लीन चिट दे दी।
2007 में बसपा को उत्तर प्रदेश में 30.43 प्रतिशत वोट मिला। उस समय पार्टी ने ब्राह्मण, मुस्लिम, अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों की सहायता से पूर्ण बहुमत हासिल किया था। लेकिन दलितों–वंचितों की राजनीति करने वाली बसपा ने सरकार बनते ही प्रदेश में लूट तंत्र कायम कर दिया। सरकार गरीबों को सड़क, बिजली, पक्के मकान, रसोई गैस जैसी बुनियादी सुविधाएं देने के बजाए हाथी की मूर्ति लगवाने में जुट गई। इसका नतीजा यह हुआ कि बसपा का जनाधार तेजी से गिरा। 2012 के विधान सभा चुनाव में बसपा का मत प्रतिशत घटकर 25.9 रह गया और उसे करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा। 2014 के लोक सभा चुनाव में तो उसका खाता भी नहीं खुला।
2017 के विधान सभा चुनाव में बसपा का मत प्रतिशत घटकर 22.23 रह गया। 2019 के लोक सभा चुनाव में बसपा ने अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल से गठबंधन किया। इस गठबंधन का लाभ पार्टी को मिला और उसे लोक सभा की दस सीटें हासिल हुई। मायावती गठबंधन की राजनीति करके उसका फायदा उठाने में माहिर हैं। इसीलिए समाजवादी पार्टी से गठबंधन तोड़ने में देर नहीं की। अब एक बार फिर बसपा अपनी अकेले की ताकत बढ़ा रही है ताकि 2022 के विधान सभा चुनाव के समय सौदेबाजी की जा सके लेकिन हालिया उपचुनाव परिणामों से संकेत मिलता है कि जनता बसपा का खेल समझ गयी है।
अब बसपा को पुरानी राजनीतिक हैसियत पाना मुश्किल है क्योंकि उत्तर प्रदेश अब विकास की राजनीति की ओर अग्रसर है। दूसरी ओर मायावती परिवारवाद पर भी उतर आई हैं। मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और भतीजे आनंद प्रकाश को राष्ट्रीय समन्वयक (नेशनल कोऑडिनेटर) बनाया है। गौरतलब है कि मायावती ने इससे पहले 2010 में आनंद कुमार को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया था लेकिन बाद में यह कहते हुए उन्हें पद से हटा दिया कि उन पर परिवारवाद का आरोप लगा रहे हैं।
इस प्रकार दलितों-वंचितों की चिंता का दावा करने वाली पार्टी कांग्रेसी स्टाइल में परिवारवाद की की गिरफ्त में पड़ती दिख रही है। स्पष्ट है, वैचारिक प्रतिबद्धताओं से दूर जाने के कारण बहुजन समाज पार्टी और मायावती अपनी राजनीतिक जमीन खोती जा रही हैं।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)