मैं आतंकवाद के मामले में स्वार्थी हूँ। मैं, नीस में ट्रक से कुचलने से हुयी मौतों पर, फ्रांस के साथ किसी भी शोक और श्रधांजलि में नही खड़ा हूँ। मैं आप सबसे यही कहूँगा की आप भी कोई शोक मत मनाइये, यह काम राजनैतिज्ञों और आदर्श लिबरल का है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? क्या मेरे अंदर का इंसान मर गया है या फिर मैं ही दानव हो गया हूँ? नही, ऐसी कोई बात नही है। न मेरे अंदर का इंसान मरा है और न ही वह दानव बना है, लेकिन यह जरूर है की जो राष्ट्र और समाज, जानते बुझते आत्महत्या पर उतारू हो, उस पर मैं व्यर्थ संवेदनाये नही खर्च कर पाता हूँ। आखिर, इस मौत के तांडव को तो हमारे ही समाज ने पाला पोसा है, हमने ही उसे छोटा जानकर उसकी सब जिदें पूरी की है। फिर आज, जब वह बड़ा हो गया है और कहे से बाहर है, तब हम कैसे इस दानव की जिम्मेदारी से अपना मुँह मोड़ सकते है?
कल ही मैं पढ़ रहा था की फ्रांस के आंतरिक सुरक्षा के प्रमुख पैट्रिक सलवर ने फ्रेंच पार्लियामेंट्री कमीशन को रिपोर्ट किया है की,’हम(फ्रांस) गृह युद्ध की तरफ बढ़ रहे है। फ्रांस एक ऐसे नाज़ुक मोड़ पर खड़ा हुआ है जहाँ एक और इस्लामिक आतंकवाद का हमला, फ्रेंच दक्षिण पन्थियों की तरफ से महती प्रतिक्रिया को जन्म देगी।’ फ्रेंच अख़बार ल फिगरो को दिए एक साक्षत्कार में उन्होंने कहा, ‘इस्लामिक आतंकी आक्रमण जरूर करेंगे और इसी लिए यह आगामी टकराव (इस्लामिक धर्मावलंबी और दक्षिण पंथी के बीच) भी होगा।’ आज फ्रांस जिस भयानक सत्य से रूबरू हो रहा है, वह उसके लिए स्वयं ही जिम्मेदार है। दुनिया को फ्रांस ने लोकतन्त्र और मानवतावाद को नए मायने जरूर दिए है लेकिन उसके साथ ही दूसरों की संस्कृति का समागम अपनी संस्कृति से कराने की भूल भी की है। फ्रांस का मध्यपूर्व एशिया में हो रही उथल पुथल में आगे बढ़ कर हाथ बढ़ाना, आज उनके लिए उसी हाथ के खो देने का सबब बनता जारहा है।
जो बात फ्रांस के लिए सत्य है, वही बात भारत के लिए भी सत्य है। हमने भी भारतीय संस्कृति को मध्यपूर्व से आई संस्कृति के हिसाब से बदलने की भूल की है, जिसने उन अतिवादियों को, जो मध्यपूर्व से लायी गयी, मध्यकालीन युग में कैद संस्कृति को ही सिर्फ संस्कृति बनाना चाहते है, समाज पर हावी कर दिया है। यही अतिवादी लोग इस्लामिक आतंकवादी हैं या उनके समर्थक हैं। ये जानते है कि वे संख्या में कम है लेकिन वह यह भी जानते है की उनकी नुइसेंसे वैल्यू है। उनका यह वहशीपन, सभ्य समाज के लोगो को समझौतावादी बना देता है, जिससे जहाँ वह दूसरी संस्कृति के उदारवादियों को समझौते के साथ जीने के लिए मानसिक रूप से हरा देते हैं, वही अपनी संस्कृति के उदारवादियों को, मजहब के नाम पर, ‘ओमेराता’ ( Omerata सिसीलियन कोड ऑफ़ साइलेंस है, जिसमे आप अपने बिरादरी के किसी भी क्रिया कलाप के बारे में नही बोलेंगे, भले ही आप को वह स्वीकार्य है या नही) के बन्धन में बांध कर पंगु बना देते है।
हमको उदारवादियों की हारी हुई मानसिकता के ‘उदारवादी’ को हराना होगा और इस खुशफहमी से दूर होना होगा की हम भारतीय, इस संस्कृतियों के टकराव में अपवाद बने रहेंगे। लेकिन उसके ही साथ यह भी कटु सत्य स्वीकार करना होगा की मध्यपूर्व की मध्यकालीन युग में कैद संस्कृति से आधुनिक सभ्य समाज तभी जीत सकता है जब ‘ओमेराता’ के बन्धन को काट कर कुछ हाथ साथ आते है। आज भी कुछ हाथ, भले ही वह अभी नगण्य है, आज़ाद है लेकिन जिस दिन आप हारी हुई मानसिकता से बाहर निकलेंगे उस दिन आपको और लोग भी मिल जायेंगे क्योंकि हारे हुए मन के साथ जुआरी भी हाथ नही मिलाता है। आखिर तारिक फतेह, मारूफ़ रज़ा, अकबरुद्दीन, हसन निसार, सलीम खान, तस्लीमा नसरीन ऐसे लोग निकले तो यही से है, उनका भी तो अस्तित्व आपके ही अस्तित्व से बंधा हुआ है!
ये लेखक के निजी विचार हैं