घाटी में कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए बनने लगा माहौल

सन १९९० में कश्मीरी पंडितो को कट्ट्रपंथियों के दबाव में मजबूरन अपना घर छोड़कर घाटी को अलविदा कहना पड़ा था, मगर आज २७ साल बाद उन्हें पुन अपने घर वापसी का रास्ता मिल गया है। २० जनवरी २०१७ को जम्मू कश्मीर विधान सभा में सभी दलों की सर्वसहमति  के पश्चात् घाटी के पंडितो को विस्थापित करने का प्रस्ताव पारित कर दिया गया है। गौरतलब है कि इस प्रस्ताव के पारित होने के ठीक २७ वर्ष पहले १९ जनवरी १९९० को हजारों की संख्या में कश्मीरी पंडित कट्टरपंथी गुटों की हिंसात्मक गतिविधियों से त्रस्त होकर घाटी से पलायन करने पर मजबूर हुए थे। कश्मीरी पंडितों के नेता टिका लाल टपलू सहित कई अन्य लोगो की सामूहिक हत्या एवं अपने प्रति हिंसात्मक वातावरण से खौफ खाए कश्मीरी पंडितों को अपनी रक्षा हेतु अपनी ही जमीन को छोड़कर पलायन करना पड़ा था। तभी से १९ जनवरी को कश्मीरी पंडित निष्कासन दिवस के रूप में मनाते आए हैं।

कश्मीर में जन-समूह जाग चुका है और अलगाववादियों के ख़िलाफ़ खुलकर खड़ा हो रहा है तथा केंद्र व राज्य सरकारें भी जनता से प्राप्त समर्थन को अलगाववादियों के ख़िलाफ़ मजबूती के साथ इस्तेमाल करते हुए घाटी के हालातों को बेहतर बनाने के लिए काम करने की दिशा में बढ़ने लगी है। विकास की मुख्यधारा से कश्मीर के युवाओं को जोड़ना केंद्र की भाजपानीत मोदी सरकार और राज्य की भाजपा-पीडीपी गठबंधन की सरकार की एक बड़ी पहल थी, जिसमे वह कामयाब होती दिख रही है। यह जम्मू-कश्मीर के हितों की दिशा में शुभ-संकेत कहा जा सकता है।

दरअसल धारा ३७० के चलते कश्मीरी पंडितो की घाटी में वापसी पर अनेक क़ानूनी दाँव-पेंच उलझ रहे हैं, जिन पर उक्त प्रस्ताव में विचार किया जाएगा। कश्मीरी पंडितो के मन में इस प्रस्ताव के बाद अपने पुनर्वास को लेकर अब दोबारा नयी उम्मीद जागी है। इसे भाजपा-पीडीपी सरकार की बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जाना चाहिए।

उल्लेखनीय यह भी है कि निष्कासन दिवस की सुबह विधानसभा में विपक्षी नेता उमर अब्दुल्ला ने सदन के समक्ष कश्मीरी पंडितो के विस्थापन पर अपना पक्ष रखा और साथ ही उनके पुनर्वास पर एक प्रस्ताव पारित करने की पेशकश की, जिसके बाद स्पीकर कविन्द्र गुप्ता जो कि भाजपा के विधायक हैं, की सहमति से सरकार की और से सदन में प्रस्ताव पेश किया गया, जिसे निर्दलीय विधायक इंजिनियर रशीद के अलावा सभी की रजामंदी प्राप्त हुई। कश्मीर में उचित माहौल बनाने की दिशा में इसे एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। हालांकि अलगाववादी इससे बिलकुल खुश नहीं हैं, जिनका यह मानना है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी होनी चाहिए, मगर साथ ही आजादी के दौरान भारत से पाकिस्तान गये मुसलमान परिवारों को भी वापस लाया जाना चाहिए। उदारवादी हुरियत प्रमुख मीरवाइज, मौलवी उमर फारुख को अचानक कश्मीरी पंडित अपने भाई लगने लगे, जिनका कहना यह है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी का वे पूरा समर्थन करते है, मगर उसके लिए विधेयक लाने की आवश्यकता नही है। वही जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अध्यक्ष मुहम्मद यासीन मलिक का कहना है, वे कश्मीरी पंडितों की आड़ में गैर-सियासी लोगो का घाटी में आने को लेकर विरोध जारी रखेंगे।

असलियत तो यही है कि अलगाववादियों को कश्मीर में पुनर्वास का यह माहौल रास नही आ रहा। लेकिन, अपने प्रति लगातार घटते जन-समर्थन और सरकार के कड़े रुख के कारण उनमें अब पहले जैसी ताक़त नहीं रह गयी है। राज्य में उनकी बुनियाद चरमरा चुकी है। इस कारण वे अब पहले की तरह तेवर नहीं दिखा पा रहे। स्पष्ट है कि कश्मीर में जन-समूह जाग चुका है और अलगाववादियों के ख़िलाफ़ खुलकर खड़ा हो रहा है तथा केंद्र व राज्य सरकारें भी जनता से प्राप्त समर्थन को अलगाववादियों के ख़िलाफ़ मजबूती के साथ इस्तेमाल करते हुए घाटी के हालातों को बेहतर बनाने के लिए काम करने की दिशा में बढ़ने लगी है। विकास की मुख्यधारा से कश्मीर के युवाओं को जोड़ना केंद्र की भाजपानीत मोदी सरकार और राज्य की भाजपा-पीडीपी गठबंधन की सरकार की एक बड़ी पहल थी, जिसमे वह कामयाब होती दिख रही है। यह जम्मू-कश्मीर के हितों की दिशा में शुभ-संकेत कहा जा सकता है।

(लेखिका पत्रकारिता की छात्रा हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)