भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए कांग्रेस किसी भी स्तर पर जाने की कसम खाई हुई लगती है, इसका अंदाज़ा गुलाम नबी आज़ाद के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने राज्यपाल को धमकाते हुए कहा कि अगर राज्यपाल भाजपा को सरकार गठन करने के लिए आमंत्रित करते हैं, तो राज्य में बड़ा खून-खराबा हो जाएगा। गुलाम नबी आज़ाद का यह हिंसक बयान शिकस्त खाई कांग्रेस की मानसिक स्थिति को दर्शाता है। गुलाम नबी आजाद के इस विवादित बयान से यह गंभीर सवाल खड़ा होता है कि जनता से बार–बार नकारे जाने के उपरांत, राज्यवार सत्ता गँवाने के बाद, कांग्रेस क्या अब सत्ता के लिए दंगा-फसाद कराएगी ?
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के परिणाम सबके सामने हैं। किसी भी दल को वहाँ की जनता ने स्पष्ट जनादेश नहीं दिया, लेकिन भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सामने आई और बहुमत के आकड़े को छूते-छूते रह गई। कौन मुख्यमंत्री पद की शपथ लेगा ? इस खंडित जनादेश के मायने क्या है ? ऐसे बहुतेरे सवाल इस खंडित जनादेश के आईने में लोगों के जेहन में थे।
सरकार बनाने के लिए तमाम प्रकार की जद्दोजहद कांग्रेस और जेडीएस ने की, किन्तु कर्नाटक की जनता ने बीजेपी को जनादेश दिया था, इसलिए राज्यपाल ने संविधान सम्मत निर्णय लेते हुए बी. एस. येदुरप्पा को सरकार बनाने का न्यौता भेजा। राज्यपाल के निर्णय से बौखलाई कांग्रेस आधी रात को सुप्रीम कोर्ट की शरण में गई, लेकिन उसे वहां भी मुंह की खानी पड़ी।
खैर, बृहस्पतिवार की सुबह येदुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। राज्यपाल के निर्देशानुसार पन्द्रह दिन के भीतर उन्हें विधानसभा में बहुमत साबित करना होगा। फिलहाल अगर कर्नाटक की राजनीति को समझें तो बीजेपी के लिए यह बहुत कठिन नहीं होगा, क्योंकि जेडीएस और कांग्रेस के बीच हुए इस अनैतिक गठबन्धन से दोनों दलों के अधिकतर विधायक भीतर से नाराज चल रहें है, जिससे यह संभावना बन रही है कि वह भाजपा के साथ हो सकते हैं। ऐसे में भाजपा के लिए बहुमत साबित करना बहुत कठिन नहीं होगा। यह भी माना जा रहा है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर्नाटक चुनाव प्रचार में जल्दी आए होते, तो शायद भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार होती और उन्हें ऐसे झंझटों से मुक्ति मिल गई होती।
बहरहाल, इस जनादेश के उपरांत एक बात स्पष्ट है कि कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ़ अपना मत दिया है। राजनीतिक लाभ के लिए सिद्धारमैया ने लिंगायत जैसे संवेदनशील मुद्दे को छेड़ा, किन्तु कांग्रेस का यह दाँव भी उल्टा पड़ गया। लिंगायत समुदाय किसी भी तरह के प्रलोभन में नहीं आया और उसने अपना समर्थन बीजेपी को देना उचित समझा। खुद सिद्धारमैया दो सीटों पर चुनाव मैदान में उतरे थे, किन्तु, चामुंडेश्वरी सीट से उन्हें करारी शिकस्त झेलनी पड़ी तो, बादामी सीट से भी उन्होंने बेहद मामूली अंतर से जीत दर्ज की है।
कौन-सा दल कर्नाटक में सरकार बनाएगा, इसको लेकर ऊहापोह की स्थिति बनी हुई थी। परन्तु, अंततः यहाँ ताज येदुरप्पा के सिर पर सज चुका है। कांग्रेस ने कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाने की चाल के साथ अपना समर्थन जेडीएस को देने का एलान कर दिया था और कुमारस्वामी ने भी बिना देर किये इसे स्वीकार कर लिया था। इस सरकार का गठन कैसे होता तथा गठबंधन का आधार क्या होता ? इन सब गंभीर बातों को दरकिनार करते हुए, सत्ता में बने रहने के लिए दोनों विरोधी दलों ने यह गठबंधन किया, जो कर्नाटक की जनता का अपमान है।
कर्नाटक की जनता ने यह भी देख लिया कि चुनाव के पहले यह दोनों दल कैसे एक–दूसरे के खिलाफ़ आरोप–प्रत्यारोप लगाते रहे थे, किन्तु सत्ता के लिए बिना देर किये एक–दूसरे को गले लगा लिए। लिहाज़ा इस लोभपूर्ण गठबंधन ने कर्नाटक की जनता का भ्रम दूर कर दिया है कि कौन किसकी बी-टीम है। परिणाम के उपरांत ही येदुरप्पा ने राज्यपाल से मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश किया था, वहीं कुमारस्वामी ने भी कर्नाटक की कुर्सी पर अपना अनैतिक अधिकार जताया था। लेकिन, राज्यपाल ने उसे ख़ारिज कर दिया।
सत्ताधारी दल कांग्रेस यहाँ अपनी सत्ता, संवैधानिक और नैतिक हर तरह से गवां चुकी है। किन्तु, मोदी और अमित शाह की रणनीति तथा भाजपा के विजय रथ को रोकने के लिए कांग्रेस किसी भी स्तर पर जाने की कसम खाई हुई लगती है, इसका अंदाज़ा गुलाम नबी आज़ाद के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने राज्यपाल को धमकाते हुए कहा कि अगर राज्यपाल भाजपा को सरकार गठन करने के लिए आमंत्रित करते हैं, तो राज्य में बड़ा खून-खराबा हो जाएगा। गुलाम नबी आज़ाद का यह हिंसक बयान शिकस्त खाई कांग्रेस की मानसिक स्थिति को दर्शाता है।
गुलाम नबी आजाद के इस विवादित बयान से यह गंभीर सवाल खड़ा होता है कि जनता से बार–बार नकारे जाने के उपरांत, राज्यवार सत्ता गँवाने के बाद, कांग्रेस क्या अब सत्ता के लिए दंगा-फसाद कराएगी ? वह राष्ट्रीय दल होते हुए जिस तरह से कर्नाटक में सत्ता के लिए घुटनों के बल खड़ी हो रही है, वह इस बात को दर्शाता है कि कांग्रेस किसी भी तरह से राज्य में सत्ता बचाने की जुगत में लगी हुई है। सरकार बनाने का दंभ भर रही कांग्रेस यह बताने से क्यों बच रही है कि राहुल गाँधी के नेतृत्व में उसकी पार्टी को एक और पराजय का सामना क्यों करना पड़ा ?
दरअसल यह हार राहुल गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस की एक और हार है, जिसे छिपाने के लिए कांग्रेस तरह–तरह के हथकंडे अपना रही है। एक कुशल और परिपक्व राजनीतिक दल का यह कर्तव्य है कि वह अपने हर जय–पराजय का मूल्यांकन करे, लेकिन अपरिपक्व अध्यक्ष के रहते कांग्रेस से परिपक्वता की उम्मीद करना बेमानी होगी।
प्रायः राजनीति में यही होता है कि जिस दल के पास विधायकों की संख्या अधिक होती है, मुख्यमंत्री उसी दल का बनता है; किन्तु, कांग्रेस की बेबसी इस बात से समझी जा सकती है कि जेडीएस के पास कांग्रेस के बरक्स आधे से भी कम विधायक हैं, फिर भी कांग्रेस कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद देने पर राजी हो गयी। ऐसे में, एक बात सामने निकलकर आती है कि कांग्रेस किसी भी स्थिति में बीजेपी को रोकना चाहती थी। पर, यहाँ भी उसकी रणनीति विफल रही है।
इन सब के बीच कर्नाटक के चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति को कितना प्रभावित करते हैं, यह भी देखने वाली बात होगी, क्योंकि भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव में परास्त करने के लिए जिस महागठबंधन की बात हो रही थी, उसकी बुनियाद कर्नाटक की सत्ता पर कौन काबिज होता है, इसी पर निर्भर थी। कर्नाटक में भाजपा का सबसे बड़े दल के रूप में उभरना यह साबित करता है कि उसकी लोकप्रियता कर्नाटक में पहले की अपेक्षा बढ़ी है। अब येदुरप्पा मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। हालांकि उनका अभी बहुमत साबित करना शेष है। कर्नाटक की जनता की भावना और राज्य के विकास के लिए यह जरूरी है कि वहां एक स्थायी सरकार बने।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)