वैसे तो हर चुनाव का मुद्दा और कलेवर अलग होता है। उसमे भी स्थानीय निकाय और नगर पंचायत चुनावों का मुद्दा पूर्णतया स्थानीय होता है। परंतु पिछले दिनों महाराष्ट्र और गुजरात मे निकाय चुनाव का आयोजन विमुद्रीकरण के साए में हुआ जहां पर अन्य स्थानीय मुद्दों के अलावा विमुद्रीकरण चुनाव में बड़ा मुद्दा था और हर पार्टी इस मुद्दे को भुनाने में लगी थी। इस चुनाव मे भाजपा ने भारी जीत दर्ज की जिसे प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कलेधन के खिलाफ उठाए गए कदम पर जनता की मुहर माना जा सकता है। सभी विपक्षी पार्टियाँ विमुद्रीकरण के कारण जनता की परेशानी का हवाला देते हुए संसद के शीतकालीन सत्र को लगभग-लगभग हंगामे की भेंट चढ़ा चुकी हैं। वहीँ, जनता जनार्दन ने निकाय चुनावों में भाजपा की जीत दिलाकर इस फैसले पर मुहर लगाने का संदेश दिया है। विपक्षी पार्टियो की दलील थी कि ग्रामीण भारत सबसे ज्यादा विमुद्रीकरण की मार झेल रहा है, इसलिए वह विमुद्रीकरण का विरोध कर रहे हैं, लेकिन इन स्थानीय निकाय चुनावों मे जनता ने सत्तारूढ़ भाजपा के पक्ष मे अपनी मुहर लगाई है, जिसने नोटबंदी को लेकर सरकार से जनता की नाराजगी जैसी विपक्ष की सभी दलीलों की पोल खोल दी है। स्पष्ट हो गया कि नोटबंदी के बाद भाजपा के प्रति जनसमर्थन बढ़ा है। ऐसे में प्रतीत तो ये हो रहा कि विपक्षियों चिंता जनता की नहीं खुद के काले धन की है, जो कि नोटबंदी के बाद महज कागज बन कर रह गया। इसी क्रम में अगर इन चुनावों के परिणामों पर नजर दौड़ाएँ तो साफ-साफ पता चलता है कि जनता ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ जाना पसंद किया है, जबकि विपक्षी पार्टियों के सारे आरोप और लामबंदी हवा हो गए।
जितना तमाशा लोकतन्त्र का वर्तमान विपक्षी पार्टियां कर रहीं हैं, उसे देश कभी नहीं माफ करेगा। नोटबन्दी का विरोध विपक्ष द्वारा महज़ खुद को सक्रिय दिखाने की एक नाकाम और नकारात्मक कोशिश है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। चुनाव के परिणाम बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी दिन-प्रतिदिन मजबूत होते जा रहे हैं। यह भी तय मानिए कि जितना विरोध प्रधानमंत्री का होगा, उतना ही वह मजबूत होकर बाहर आएंगे।
गुजरात की दो नगरपालिकाओं के चुनावों में भाजपा ने एकतरफा जीत दर्ज की है। केंद्र और राज्य में सत्ताधारी पार्टी को वापी नगरपालिका चुनाव में 44 में से 41 सीटें मिली हैं, वहीं सूरत के कनकपुर- कनसाड़ नगरपालिका में 28 में से 27 सीटों पर विजय मिली। विपक्षी दल कांग्रेस को वापी में तीन और कनकपुर-कनसाड़ में महज एक सीट से संतोष करना पड़ा। वहीं जिला पंचायत, तालुका पंचायत और नगरपालिका उपचुनावों में भाजपा ने 23 और कांग्रेस ने आठ सीटें फतेह की। ज्ञात हो कि पिछले साल सम्पन्न हुए स्थानीय चुनाव मे कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन मे कुछ सुधार किया था, जिसे उसने प्रधानमंत्री योजनाओं की हार के तौर पर प्रदर्शित किया था। लेकिन, अब इस निकाय चुनाव में जब कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया तो उसके पास बोलने के लिए कुछ नहीं बचा है।
बीते दो दशक से सत्ता से बाहर कांग्रेस की स्थिति दिन-प्रतिदिन खराब होती जा रही है, परंतु वह है कि मानने को तैयार नहीं। गुजरात के अलावा महाराष्ट्र के स्थानीय चुनावों मे भी करारी हार का सामना करना पड़ा। महाराष्ट्र में 147 नगर परिषद में से अकेले भाजपा को 52 सीट, सहयोगी शिवसेना जो कि इस चुनाव में भी बागी तेवर अपनाए हुए थी, उसे भी महज़ 23 सीटें हाथ लगीं, कांग्रेस को 19 और एनसीपी को 16 पर जीत मिली है। अन्य उम्मीदवारों के खाते में 28 सीटें गर्इ हैं। वहीं 17 नगर पंचायतों के 3510 सदस्यों के लिए हुए चुनाव में सत्ताधारी भाजपा को 851 सीटें मिली हैं। कांग्रेस के खाते में 643, एनसीपी को 638 और शिवसेना को 514, मनसे को 16, सीपीएम को 12, बसपा को 9, निर्दलीयों को 324, स्थानीय गठबंधनों को 384 और बाकियों को 119 सीटों पर जीत मिली है। स्पष्ट है कि यहाँ भी भाजपा हर तरह से सबसे आगे है।
इस जीत को भी विमुद्रीकरण के फैसले पर जनता की मुहर और राज्य के मुखिया देवेंद्र फडणविस के विकास प्रायोजित कामकाज पर जनता की सहमति कहना गलत नहीं होगा। इन सब चीजों से विपक्षी दल दरअसल बौखलाए हुए हैं, उन्हे कुछ सूझ नहीं रहा है कि वह करें तो क्या करें। अब इस पर विपक्षियों का तर्क ये है कि इन चुनावों में नोटबंदी कोई मुद्दा नहीं था। मसला हार-जीत का नहीं है, मसला है तो विपक्ष के दोमुंहे चरित्र का। जब विपक्ष का सफाया हो जाये तो मुद्दे स्थानीय थे, पर वहीं अगर सत्तारूढ़ पार्टी हार जाए तो उस पार्टी की हार है, उसके योजनाओं की हार है। देखने वाली बात यह है कि हर किसी को पता है कि स्थानीय निकाय के चुनावों में जीत के कारण अलग होते हैं, लेकिन जब हारने पर भाजपा के मत्थे नोटबंदी मढ़ दी जाती तो जीतने पर श्रेय क्यों नहीं ? और वैसे भी विमुद्रीकरण तो समग्र राष्ट्र को प्रभावित करने वाला मुद्दा है, फिर निश्चित तौर पर इन चुनावों में भी इसका प्रभाव रहा ही होगा। उल्लेखनीय होगा कि अभी नोटबंदी के बाद ही हुए एपीएमसी के चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा था, तो उस वक्त इन विरोधी दलों ने कहा था कि नोटबंदी के कारण हार हुई है। जबकि अब निकाय चुनावों में इनके हिसाब से नोटबंदी कोई मुद्दा ही नहीं है। ये सिर्फ और सिर्फ इनके दोमुंहेपन को दिखाता है। कहना गलत नहीं होगा कि जितना तमाशा लोकतन्त्र का वर्तमान विपक्षी पार्टियां कर रहीं हैं, उसे देश कभी नहीं माफ करेगा। नोटबन्दी का विरोध विपक्ष द्वारा महज़ खुद को सक्रिय दिखाने की एक नाकाम और नकारात्मक कोशिश है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। चुनाव के परिणाम बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी दिन-प्रतिदिन मजबूत होते जा रहे हैं। यह भी तय मानिए कि जितना विरोध प्रधानमंत्री का होगा, उतना ही वह मजबूत होकर बाहर आएंगे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।ये उनके निजी विचार हैं।)