प्रसिद्ध जर्मन भाषाविद और लेखक मैक्समूलर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘इंडिया व्हॉट कैन इट टीच अस’ में कहते हैं- ‘अगर मुझसे पूछा जाए कि वह कौन सा स्थान है, जहां मानव ने अपने भीतर सद्भावों को पूर्ण रूप से विकसित किया है और गहराई में उतर कर जीवन की कठिनतम समस्याओं पर विचार किया है, तो मेरी उंगली भारत की तरफ उठेगी।’ ज़ाहिर है जब पश्चिम तक सभ्यता के सूरज ने पहुंचने की यात्रा भी शुरू नहीं की थी, तब हिन्दुस्थान मानव मन की समस्या और कठिनाइयों पर विचार करना शुरू कर चुका था। न केवल विचार बल्कि समाधान की उसकी कोशिश भी साथ ही शुरू हो चुकी थी।
कागज आदि का आविष्कार भले काफी बाद की बात हो, लेकिन भारत ज्ञान का अर्जन और उसे श्रुति के द्वारा ही स्मृति में (सुन और याद कर) संरक्षित करना आदिकाल से ही शुरू कर चुका था। राष्ट्र का ज्ञान-समुद्र जिन वाचिक परम्परा में पीढ़ियों तक संप्रेषित होता आया था, वही तो आज उपनिषदों के रूप में हमारी थाती है। उपनिषद का अर्थ ही ‘नज़दीक बैठना’ होता है। यानी गुरुओं के समीप बैठ कर चिंतन और विमर्श के माध्यम से जिन सिद्धांतों तक पहुंच जाया जाता था, उसे ही आगे स्मरणों में हम अगली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाते थे। पाश्चात्य दार्शनिक शॉपेनहॉवर का कहना है- ‘यदि कोई सर्वाधिक शक्तिशाली और दिगंतव्यापी सांस्कृतिक क्रांति कभी आई है, तो वह केवल उपनिषदों की भूमि, भारत में ही आई है।’
ज्ञान की इस अकूत परम्परा वाले देश में स्वतंत्रता के बाद विचारों का ऐसा अकाल रहा कि शासन चलाने के लिए भी हमारे पास अपने विचार नहीं बचे थे। आज़ादी मिल भले गयी थी, लेकिन इस आज़ादी का हमें करना क्या है ? देश को कौन सी दिशा देनी है ? ऐसी कोई भारतीय सोच बची ही नहीं थी। कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़कर किसी तरह देश ने अपना कुनबा खड़ा किया, ऐसा भानुमती का कुनबा जहां भारतीयता के अलावा सब कुछ था। ऐसे विचार-निर्वात की स्थिति में हमारे मनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय विशुद्ध भारतीय चिंतन और वैशिष्ट्य पर आधारित अपनी विचारधारा के साथ आये जिसे आज हम ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में जानते हैं।
तो भारत में सामान्यतः हर क्रांतिकारी बदलाव का वाहक ‘ज्ञान’ ही रहा है। यहां तलवार से नहीं अपितु ‘विचार’ से दुनिया बदले, इस जुगत में हमेशा से मनीषी जुटे रहे हैं। यह जान कर हमें गर्व हो सकता है कि हज़ार डेढ़ हज़ार साल पहले ही हमारे पास नालंदा विश्वविद्यालय जैसे संस्थान थे, जहां के पुस्तकालय में उस ज़माने में तीन लाख से अधिक विभिन्न विषयों की पुस्तकें उपलब्ध थीं। कहते हैं, अलाउद्दीन खिलजी ने जब हमारी इस समृद्धतम थाती को नष्ट किया तो महीनों तक वह इन पुस्तकों को जला कर पानी आदि गर्म करता रहा था। फिर वाया चीन और तिब्बत के हमारी इन ज्ञान संपदा के कुछ हिस्सों का वापस हम तक वापस आने की गाथा लम्बी है। बहरहाल।
आशय यह कि बदलाव वही शास्वत है जिसमें ‘ज्ञान’ की भूमिका हो। ज्ञान आज पुस्तकों की शक्ल में उपलब्ध है और अगर किसी संस्था पर समाज में बदलाव का उत्प्रेरक बनने का दायित्व हो, तो उसे पुस्तकों की शरण में जाना ही होगा। भारत में आजादी से पहले के नेतृत्व पर भी गौर करें तो पायेंगे कि तब के हमारे हर नेता अन्य चीज़ों के अलावा एक अच्छे चिन्तक और लेखक भी थे। विमर्श और अध्ययन की दीर्घ कालीन परंपरा ने ही उन्हें आज़ादी के लिए अपना प्राण तक समर्पित करने को प्रेरित किया था। लेकिन अफ़सोस यह है कि स्वतंत्र भारत में देश को आगे ले जाने की जिम्मेदारी जिन कर्णधारों पर थी, वे क्रमशः पठन-पाठन से दूर होते गए। देश की तमाम विसंगतियों का कारण आज ‘राजनीति के पढ़ाई से वंचित रहने या किये जाने’ को भी माना जा सकता है।
ज्ञान की इस अकूत परम्परा वाले देश में स्वतंत्रता के बाद विचारों का ऐसा अकाल रहा कि शासन चलाने के लिए भी हमारे पास अपने विचार नहीं बचे थे। आज़ादी मिल भले गयी थी, लेकिन इस आज़ादी का हमें करना क्या है ? देश को कौन सी दिशा देनी है ? ऐसी कोई भारतीय सोच बची ही नहीं थी। कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़कर किसी तरह देश ने अपना कुनबा खड़ा किया, ऐसा भानुमती का कुनबा जहां भारतीयता के अलावा सब कुछ था। ऐसे विचार-निर्वात की स्थिति में हमारे मनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय विशुद्ध भारतीय चिंतन और वैशिष्ट्य पर आधारित अपनी विचारधारा के साथ आये जिसे आज हम ‘एकात्म मानववाद’ के रूप में जानते हैं। यह संभव ही इसलिए हुआ क्योंकि तब तक भी ‘राजनीति’ के एक हिस्से ने पढ़ना-लिखना सतत जारी रखा था। निश्चित रूप से भाजपा (और भारतीय जनसंघ) काफी हद तक राजनीति में पढ़ाई के संकट का तब भी अपवाद जैसी ही रही। राष्ट्रवादी आन्दोलन में हमेशा से पढ़ने-लिखने वाले लोग बड़ी संख्या में तब भी कायम रहे। महज़ वोटों की तिजारत से किसी तरह सत्ता हासिल कर लेना मात्र ही तब भी इनका मकसद नहीं हुआ था। आज पंडित जी की उसी विचारधारा की देश में और दर्ज़न भर से अधिक प्रदेशों में पूर्ण बहुमत की सरकार इस विचार के चमत्कार की कहानी कहती नज़र आ रही है। खैर।
सुखद यह है कि इस अच्छे दिन में भाजपा ने और ज्यादा उत्साह के साथ विचार की अपनी परम्परा को नयी ऊंचाई तक ले जाने की कोशिश शुरू की है। इसे आप ‘सुख में सुमिरन’ कह सकते हैं। पार्टी ने यह तय किया है कि उसके केन्द्रीय कार्यालय में तो एक भव्य पुस्तकालय हो ही, पार्टी के प्रदेश कार्यालयों और देश के सभी जिलों तक में भाजपा के पुस्तकालयों की एक श्रृंखला स्थापित हो। इसी क्रम में छत्तीसगढ़ को पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर एक मॉडल पुस्तकालय स्थापित करने की जिम्मेदारी दी गयी। केन्द्रीय नेतृत्व यह बेहतर जानता है कि छत्तीसगढ़ पिछले तेरह वर्षों से दीनदयाल के विचारों की प्रयोग भूमि बना हुआ है ही, अतः यह भरोसा उचित ही था कि एक मॉडल पुस्तकालय बनाने का दायित्व भी उसी निष्ठा और आदर्श के साथ पूरा होगा, ऐसा हुआ भी। देखते ही देखते ‘नानाजी देशमुख वाचनालय’ आज साकार रूप ले चुका है। प्रदेश भाजपा के नए परिसर में हर आवश्यक सुविधाओं के साथ इसे बनाया गया है। पुस्तकालय में राष्ट्रवादी विचारधारा के अतिरिक्त अन्य तमाम विचारों की पुस्तकों के साथ इतिहास, राजनीति, अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति और तमाम लोक सरोकारों की दस हज़ार से अधिक पुस्तकों का संग्रहण किया गया है। इसके अलावा ढाई हज़ार से अधिक ई-पुस्तकें, दर्ज़नों दुर्लभ पांडुलिपियां भी पुस्तक मंदिर को शोभायमान कर रहे हैं।
इस 12 दिसंबर को जब डा. रमन सिंह जी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने छत्तीसगढ़ में अपने ऐतिहासिक 13 वर्ष पूरे किये, उसी दिन भाजपाध्यक्ष श्री अमित शाह ने इस पुस्तकालय का उदघाटन किया। उसी दिन श्री शाह ने रायपुर में एक महती कार्यकर्ता सम्मलेन को संबोधित करते हुए छग की कल्याणकारी भाजपा सरकार की जमकर तारीफ़ की। वास्तव में भाजपा ने अपने इन तेरह सालों के शासन में जिस तरह प्रदेश के अटल स्वप्न को साकार किया है, उसके लिए कई ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। और यह संभव ही इसलिए हुआ क्योंकि पढ़ने-लिखने में रूचि रखने वाले मुख्यमंत्री को दीनदयाल के लोगों के पांवों की फटी बिबाई का अंदाज़ा था। अपने मनीषी की विचारधारा के अनुरूप दरिद्रनारायण तक पक्के मकान उपलब्ध कराने का दर्शन उनकी आंखों में एक सपने की तरह समाहित था। प्रदेश के अंतिम व्यक्ति तक भोजन-वस्त्र-आवास-शिक्षा उपलब्ध कराने का नाम ही शासन है, ऐसा पढ़ चुके थे वे। जैसा कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने कहा है- ‘विचारों के युद्ध में पुस्तकें ही अस्त्र है।’ विसंगतियों के खिलाफ सतत चले युद्ध में सच में तब दीनदयाल के विचार रूपी पुस्तकों को ही अस्त्र बनाया गया था।
उचित ही भाजपा नेतृत्व ने ऐसे विचारों को हमेशा अमल में लाने लायक बनाए रखने, उसे स्थायित्व प्रदान करने के लिए भाजपाजनों को पुस्तकों की तरफ फिर से मोड़ने की कोशिश में ऐसा कदम उठाया है। इस कदम का लाभ अंततः समूचे राष्ट्र को अनेक रूपों में देखने को मिलेगा। निश्चय ही एक दूरगामी और सकारात्मक परिणाम का वाहक बनने में सफल होगा भाजपा का यह सुपठित-सुचिंतित कदम। पुस्तकालय के बारे में जैसा कि किसी ने कहा भी है कि वह स्थान ऐसा मंदिर है, जहां पुस्तकों के रूप में मूक; किन्तु ज्ञान के चेतनायुक्त देवता निवास करते हैं।
(यह लेख छत्तीसगढ़ भाजपा के मुखपत्र ‘दीपकमल’ में प्रकाशित है।)