काठ की हांडी है भाजपा-विरोधी एकजुटता की अवधारणा

राजनाथ सिंह सूर्य 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जनता दल (यू) का अध्यक्ष बनने के साथ ही संघ मुक्त भारत बनाने का आह्वान करते हुए सभी गैरभाजपा दलों की एकजुटता की अपील की। यद्यपि संघ मुक्त भारत का नारा एक शिगूफा ही है, लेकिन कांग्रेस ने इसका स्वागत करते हुए खुद अपने नेतृत्व में गैरभाजपा दलों की एकजुटता की बात कहने में देर नहीं लगाई। कांग्रेस की इस प्रतिक्रिया के बाद यह स्पष्ट हो गया कि इस नारे का क्या हश्र होने वाला है। नीतीश कुमार की जो भी महत्वाकांक्षा हो, लेकिन अपने इस नारे के लिए उन्होंने जिस तरह डॉ. लोहिया के गैरकांग्रेसवाद का स्मरण किया उससे यह स्वाभाविक सवाल जरूर खड़ा हो गया कि क्या अतीत में किसी दल के खिलाफ इस तरह के जो आह्वान हुए उनसे लोकतंत्र मजबूत हुआ है? डॉ. लोहिया के इस नारे के अनुरूप कांग्रेस के विरुद्ध माहौल बनने के बावजूद 1967 के निर्वाचन में गैरकांग्रेसी दल मिलकर चुनाव नहीं लड़े, लेकिन कई राज्यों में कांग्रेस को बहुत क्षीण बहुमत मिला था। इसके फलस्वरूप कुछ राज्यों में एक नई राजनीतिक शैली की शुरुआत हुई, जिसके तहत मुख्यमंत्री बनने के प्रलोभन में कुछ बड़े नेता कांग्रेस से अलग हुए और संयुक्त विधायक दल जैसी अवधारणा का सूत्रपात हुआ। अपने दल का अस्तित्व बनाए रखने के साथ सरकार में की गई साङोदारी में अधिक हिस्सा पाने की होड़ ने संयुक्त विधायक दलों की सभी सरकारों को अल्पजीवी बना दिया। इसके दो परिणाम हुए। एक यह कि लोकसभा और विधानसभा के जो चुनाव 1967 तक एक साथ होते रहे, उनके अलग-अलग होने की शुरुआत हुई और दूसरे भ्रष्टाचार के कारण जनता की निगाह से उतरती कांग्रेस को राहत मिली। डॉ. लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय, दोनों ही गैर कांग्रेसवाद के प्रणोता बने थे, लेकिन वे 1968 में इस संसार से विदा हो गए। यदि वे होते तो संभव था कि इस संयुक्त विधायक दल के प्रयोग के परिणामस्वरूप किसी और विकल्प को अंजाम देते। कांग्रेस के बाद सबसे प्रबल रूप से उभरी जनसंघ अगले कई चुनावों तक फिर से सिकुड़ गई और समाजवादी आस्था वालों ने कांग्रेस के रास्ते राजनीति में बने रहने का रास्ता अपनाकर डॉ. लोहिया को केवल एक रस्मी नेता भर बनाकर सत्ता के लिए कभी इस दल और कभी उस दल के साथ सरकार बनाकर प्रतिबद्धता की परिभाषा ही बदल दी। नीतीश कुमार इसके नवीनतम प्रतीक हैं।1डॉ. लोहिया का गैर कांग्रेसवाद अवसरवाद के रूप में बदल जाने के साथ ही कांग्रेस के विकल्प की जब संभावना पूरी तरह से क्षीण हो गई तो इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभर रहे आंदोलन को कुचलने के लिए देश में आपातस्थिति लगाकर सभी दलों के नेताओं को जेल में डाल दिया। इंदिरा गांधी के इस आचरण का एक सार्थक परिणाम हुआ। पहली बार वास्तविक गैरकांग्रेसवाद ने अपनी जड़ें जमाईं। जेल में रहते हुए ही सभी दलों के नेताओं ने एक दल बनाने का संकल्प किया और 1977 का लोकसभा चुनाव एक चिन्ह पर लड़कर कांग्रेस को केंद्रीय सत्ता से बाहर कर दिया, लेकिन राज्यों में उसकी सरकारें यथावत कायम रहीं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु आदि राज्यों में कांग्रेस को बढ़त मिली, लेकिन बंगाल से लेकर पंजाब तक नौ राज्यों में उसे एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली। तत्कालीन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी की सरकार में नौ राज्यों की कांग्रेसी सरकारों को सदन में बहुमत होते हुए भी इस आधार पर बर्खास्त कर दिया कि उसने जनता का विश्वास खो दिया है। कार्यवाहक राष्ट्रपति बीडी जत्ती ने सरकार के इस निर्णय पर मोहर लगाने से इन्कार कर एक संवैधानिक संकट खड़ा कर दिया था। बाद में कार्यवाहक राष्ट्रपति ने प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए। यद्यपि जनता पार्टी की सरकार जनता की भावनाओं के आधार पर गैरकांग्रेसी समूह के रूप में उभरी पहली सरकार थी तथापि उसमें 1967 के समान ही ‘कांग्रेसियों’ का वर्चस्व होने के कारण निजी अहंकार की टकराहट से उपजे घटकवाद के टकराव ने उसे न केवल अल्पजीवी बना दिया, बल्कि तीन वर्ष बाद 1980 में इंदिरा गांधी को भारी बहुमत से सत्ता में लौटने का अवसर प्रदान किया।1चाहे 1967 में राज्यों की सरकारें रही हों या फिर 1977 की जनता पार्टी सरकार, दोनों को अल्पजीवी बनाने में समाजवादियों की अहम भूमिका रही है। 1967 में उन्होंने अपने घोषणापत्र को लागू करने की जिद से सरकार को अपदस्थ किया और जनता पार्टी के समय चरण सिंह की महत्वाकांक्षा के कारण। चरण सिंह की कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जरूर पूरी हो गई, लेकिन समय से पूर्व पहली बार लोकसभा भंग हुई और उसके बाद कई बार ऐसे अवसर आए जब कांग्रेस के समर्थन पर चल रही गैरकांग्रेसी सरकारों के अल्पजीवी होने के कारण लोकसभा पांच वर्ष का कार्यकाल पूरी नहीं कर सकी। इसमें चंद्रशेखर के नेतृत्व में बनी सरकार भी शामिल है।1डॉ. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के समान ही ‘गैर संघवाद’ का आह्वान करने वाले नीतीश कुमार 1967 में संभवत: हाईस्कूल के भी विद्यार्थी नहीं रहे होंगे-इसलिए उनको उसकी समझ सिर्फ नारे तक रहना स्वाभाविक है, लेकिन 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार के समय तो वह परिपक्व राजनेता थे और आपातकाल में जेल भी गए थे। दोनों ही सरकारों ने विधानसभाओं और लोकसभा के चुनावों को अलग-अलग समय पर कराने की जो नौबत उत्पन्न की उसके चलते अब प्रति वर्ष देश के किसी न किसी भाग में चुनाव होता ही रहता है। प्रति वर्ष चुनाव की इस स्थिति ने दलों को केवल वोट की राजनीति करने तक सीमित कर दिया है। लोकलुभावन सरकारी निर्णय और समरसता खंडित कर वोट बैंक बनाने की प्राथमिकता ने देश का माहौल तो बिगाड़ा ही है, आर्थिक प्रगति को भी बाधित किया है तथा सत्ता से संपन्नता के नए क्षेत्रों का सृजन किया है। सिद्धांत, मर्यादा, नैतिकता, संवैधानिक आचरण अब केवल नाम के शब्द रह गए हैं। यह सब देन है किसी दल के विरोध के नाम पर दिखावटी राजनीतिक एकता के प्रयोग की। पहले यह गैरकांग्रेसवाद के नाम पर किया गया और अब गैरसंघवाद के नाम पर किया जा रहा है। किसी दल के खिलाफ यह दिखावटी एकता तात्कालिक लाभ भले ही दिला दे, लेकिन अपनी नकारात्मकता के कारण वह न तो स्थायी हो पाती है और न ही लोकतंत्र को मजबूत कर पाती है। जहां तक संघ का सवाल है तो वरिष्ठ स्वयंसेवक माधव गोविंद वैद्य की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि ऐसे विरोध संघ को मजबूत ही बनाते हैं।

(लेखक राज्यसभा सदस्य रह चुके हैं. यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित है)