जातिवाद, छुआछूत व दहेज जैसी सामाजिक बुराइयों से मुक्त और महिला-पुरुष समानता वाले पूर्वोत्तर को कांग्रेसी और वामपंथी सरकारों ने आजादी के बाद हिंसा और अलगाववाद की आग में झुलसाए रखा। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है, जब किसी सरकार ने पूर्वोत्तर की जमीनी समस्याओं के टिकाऊ समाधान करने के साथ-साथ यहां के लोगों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने की पहल की हो। भाजपा की विजय केंद्र की मोदी सरकार की इसी पहल का नतीजा है।
पूर्वोत्तर भारत में भारतीय जनता पार्टी को मिल रही कामयाबी के राजनीतिक मायने के साथ-साथ आर्थिक मायने भी हैं जो इस शोर में दब से गए हैं। आजादी के बाद अधिकांश सरकारों के लिए पूर्वोत्तर बेगाना ही रहा। उनके लिए गुवाहाटी ही पूर्वोत्तर का आदि और अंत दोनों था। जनजातियों में वर्गीय संघर्ष को बढ़ावा देकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने और बांग्लादेशी घुसपैठियों को सुनियोजित तरीके से बसाकर जनांकिकीय संतुलन बिगाड़ने का काम दिल्ली की कांग्रेसी सरकारों ने किया ताकि वोट बैंक की राजनीति पर आंच न आए। पूर्वोत्तर में रेल-सड़क संपर्क बढ़ाने, हस्तशिल्प की समृद्ध विरासत को सहेजने, उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के साथ स्थलीय संपर्क बहाल करने जैसे दूरगामी उपायों की घोर उपेक्षा की गई।
इसीका नतीजा है कि पूर्वोत्तर में मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों का नितांत अभाव है। उच्च शिक्षा के दूसरे पाठ्यक्रमों की मौजूदगी भी बहुत कम है। हथकरघा व कुछेक परंपरागत उद्योगों को छोड़ दिया जाए तो यहां रोजगार के साधनों की भारी कमी बनी हुई है। यही कारण है कि शिक्षा-दीक्षा और रोजी-रोटी के लिए पूर्वोत्तर के लाखों लोग देश के महानगरों में प्रवास किए हुए हैं। चूंकि इन राज्यों की जनता के पास कोई सशक्त विकल्प नहीं था, इसलिए वे कांग्रेस व इसके पिट्ठू नेताओं और वामपंथियों की राजनीति में उलझे रहे।
आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई सरकार पूर्वोत्तर की जमीनी समस्याओं का जानने और उसका टिकाऊ उपाय करने की पहल की हो। प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही नरेंद्र मोदी पूर्वोत्तर राज्यों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के काम में जुट गए। उन्होंने यह तय कर लिया कि हर पंद्रह दिन में एक केंद्रीय मंत्री पूर्वोत्तर का दौरा करेगा और वहां केंद्रीय योजनाओं की प्रगति की समीक्षा करेगा। इसका परिणाम हुआ कि केंद्र की योजनाएं पूर्वोत्तर की जमीन पर उतरनी शुरू हुईं। इससे लोगों को लगने लगा कि दिल्ली में बैठी सरकार पूर्ववर्ती सरकारों से अलग है और वह सही अर्थों में उनका विकास करना चाहती है।
पूर्वोत्तर की सबसे बड़ी समस्या कनेक्टीविटी की रही है। इसी को देखते हुए मोदी सराकार ने रेल व सड़क नेटवर्क का समयबद्ध लक्ष्य घोषित किया। इसमें रेल नेटवर्क को सर्वौच्च प्राथमिकता दी गई। सरकार ने समूचे पूर्वोत्तर में रेल नेटवर्क मजबूत बनाने के लिए 1385 किलोमीटर लंबाई की 15 नई रेल परियोजनाओं को मंजूरी दी जिन पर 47000 करोड़ रूपये की लागत आएगी। पिछले तीन वर्षों में पूर्वोत्तर के पांच राज्यों (मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय) को ब्रॉड गेज रेल नेटवर्क से जोड़ा गया। 2016-17 में 29 नई रेलगाड़ियां चलाई गई हैं।
पिछले तीन साल में 900 किलोमीटर मीटर गेज की रेल लाइन को ब्रॉड गेज में बदला गया और और अब समूचे पूर्वोत्तर में मीटर गेज रेल लाइन नहीं रह गई है। 2020 तक सभी राज्यों की राजधानियों को ब्रॉड गेज रेल नेटवर्क से जोड़ने का लक्ष्य है। जिरिबम व इंफाल के बीच देश की सबसे लंबी रेल सुरंग बन रही है। 2016 में अगरतला-अखौरा ब्राडगेज पर काम शुरू हुआ। 15 किमी लंबा रूट पूरा होने पर यह ट्रांस एशियन रेल नेटवर्क का हिस्सा बन जाएगा। इससे कोलकाता और अगरतला के बीच की दूरी कम हो जाएगी।
मोदी सरकार इस सच्चाई को जानती है कि पूर्वोत्तर की बदहाली तभी दूर होगी जब इन राज्यों का संपर्क-संचार दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ बढ़े क्योंकि यह इलाका सांस्कृतिक-आर्थिक दृष्टि से दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ गहराई से जुड़ा है। इसी को देखते हुए मोदी सरकार ने “एक्ट ईस्ट” नीति में पूर्वोत्तर को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ सड़क मार्ग से जोड़ने को सर्वोच्च प्राथमिकता दिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि एक दशक से धीमी गति से बन रहे भारत-म्यांमार-थाइलैंड सुपर हाईवे के निर्माण तेजी आई और इसका एक बड़ा हिस्सा खोल दिया गया है। यह हाईवे पूर्वोत्तर राज्यों को दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों से जोड़ने के साथ-साथ व्यापार, निवेश, रोजगार जैसे कई फायदे देने लगा है। स्पष्ट है कि अब पूर्वोत्तर के उत्पादों को आसियान देशों का समृद्ध बाजार मिलने लगा है। जैसे-जैसे यह प्रवृत्ति बढ़ेगी वैसे-वैसे पूर्वोत्तर में समृद्धि की फसल लहलहाएगी।
जो पूर्वोत्तर अब तक कांग्रेस और वामपंथियों की वोट बैंक की राजनीति का अखाड़ा बना था, वहां अब भाजपा सरकार के विकास की बयार बह रही है। इसका सुफल भी भारतीय जनता पार्टी को वोट के रूप में मिल रहा है। इसे त्रिपुरा के उदाहरण से समझा जा सकता है। 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा को जिस त्रिपुरा में महज डेढ़ फीसदी वोट मिले थे, उसी त्रिपुरा में पांच साल के भीतर भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया। यदि उसकी सहयोगी पार्टी के मत प्रतिशत को जोड़ दें तो यह आंकड़ा 49.6 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा।
स्पष्ट है कि मजबूत कैडर वाली मार्क्सवादी पार्टी की करारी हार और कांग्रेस के खाता न खुलने की असली वजह नरेंद्र मोदी की विकास की राजनीति ही है। कमोबेश यही हालत पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों की है इसीलिए इन राज्यों में आज भगवा लहरा रहा है। यहां वामपंथी सरकारों की शोषणकारी नीतियों का विश्लेषण अपेक्षित है।
अपने को सर्वहारा वर्ग का रक्षक कहलाने वाली वामपंथी सरकारें व्यवहार में पूंजीपतियों की पोषक रही हैं। उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल में लंबे अरसे तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु के पुत्र के पास 20,000 करोड़ रूपये से ज्यादा की संपत्ति है। वामपंथी सरकार वाले राज्यों में ऐसे सत्तापोषित धनकुबेरों की कमी नहीं है। दबे-कुचले वर्गों की चिंता में दुबले होने का दावा करने वाली वाममोर्चा सरकारों की यह कड़वी हकीकत है। यही कारण है कि इनका सूर्यास्त होने को है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)