यह हमला सिर्फ इसलिए नहीं किया गया है कि ब्रिटेन ने आईएसआईएस से लड़ाई में अमेरिका का साथ दिया, बल्कि इसके पीछे इस्लामिक कट्टरपंथ से अभिप्रेरित आतंकवाद की गहरी साजिश है। दिक्कत ये है कि दुनिया के तमाम देश अब भी इस्लामिक आतंकवाद को खुलकर स्वीकारने से हिचकते रहते हैं।
सांप और मेंढक वाली कहानी सभी को विदित है। जिसका सार ये हैं कि एक मेढक साँप को इस शर्त के साथ तालाब में रहने देता है कि वो कम से कम उसे और उसके परिवार को क्षति नहीं पहुंचाएगा। लेकिन यह नहीं हो पाता, एक दिन ऐसा भी आता है जब उस तालाब के सारे मेढक खत्म हो जाते हैं और धीरे-धीरे उसका परिवार और एक दिन स्वयं शर्त रखने वाला मेढक भी खत्म हो जाता है। इस कहानी का ताज़ा संदर्भ यह है कि ब्रिटेन के मैनचेस्टर में जो हमला हुआ है, वह निंदनीय है; लेकिन उसमें पूर्णतः नहीं तो कम से कम आधे दोष का हिस्सेदार ‘ब्रिटेन’ खुद है। इसके पीछे कहीं न कहीं ब्रिटेन द्वारा आतंकियों को दी गई बेजा शह भी जिम्मेदार है।
विदित हो कि यह एक दिन में उपजा हुआ मामला नहीं है। यह हमला सिर्फ इसलिए नहीं किया गया है कि ब्रिटेन ने आईएसआईएस से लड़ाई में अमेरिका का साथ दिया, बल्कि इसके पीछे इस्लामिक कट्टरपंथ से अभिप्रेरित आतंकवाद की गहरी साजिश है। दिक्कत यही है कि दुनिया के ज्यादातर देश अब भी इस्लामिक आतंकवाद को खुलकर स्वीकारने से हिचकते नज़र आते हैं। हालांकि अमेरिका के राष्ट्रपति ने हिम्मत दिखाई और उन्होंने पहली बार खुलकर ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द का सार्वजनिक प्रयोग किया।
चूँकि ब्रिटेन में बोलने की खुली आजादी है और अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी बोला जा सकता है। वहां इसका कैसे दुरुपयोग होता है, एक उदहारण देखिए।
बात उस समय की है, जब नासा द्वारा भेजा गया अंतरिक्षयान ‘कोलंबिया’ 2003 में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। उस पर वहां की ‘फ़िसम्बरी मस्जिद’ के कुख्यात मौलाना ‘अबू हमजा’ ने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि अल्लाह ने कोलंबिया चालक दल को सजा दी है। क्योंकि उस दल में एक यहूदी ‘ऐलान रोमां’ और एक हिंदू ‘कल्पना चावला’ भी शामिल थी।
उसी हमजा ने लंदन में जमात-उद-दावा की 10000 लोगों की रैली (14 अगस्त 2003) में खुलेआम पूछा था कि “क्या तुम लोग हिंदुओं को अपने दांतो के बीच में चबाने के लिए तैयार हो? जवाब में भीड़ जोर से चिल्लाई…. हां। उसने फिर पूछा क्या तुम यहूदियों को अपने दांतों तले……? भीड़ ने फिर वैसे ही चिल्लाकर हाँ कहा।” लेकिन दुर्भाग्य से इस प्रकार की घटनाओं पर ब्रिटेन द्वारा कभी संज्ञान नहीं लिया गया।
‘शंकर शरण’ ने अपनी पुस्तक ‘जेहादी आतंकवाद’ में लिखा है कि ब्रिटेन में जमात-उद-दावा के नेता ताहिर रब्बानी का मत है कि “जिहाद की मांग है कि पश्चिम और इस्लाम के बीच निर्णायक लड़ाई हो। हमारा लक्ष्य है, पूरे विश्व में इस्लाम की स्थापना हो और उसके लिए जिहाद हमेशा चलता रहे, जिहाद के बिना कभी शांति नहीं हो सकती।” (क्रिश्चियन साइंस मॉनिटर, 18 अगस्त 2003 )।
ब्रिटेन का आतंक के प्रति गैरजिम्मेदार रुख तब भी सामने आया जब “सन् 1983 में जिहादियों ने जम्मू कश्मीर के आतंकवादी मकबूल भट्ट को छुड़ाने के लिए ब्रिटेन में भारतीय दूतावास के अधिकारी रवि म्हात्रे को बंधक बना लिया। भारत सरकार द्वारा मकबूल को न छोड़ने पर म्हात्रे की हत्या कर दी गई और उसका मृत शरीर सड़क पर फेंक दिया गया। किंतु ब्रिटिश सरकार ने मामले की जांच में भारत का कोई सहयोग नहीं किया।”
इतना ही नहीं सितंबर 2003 में इस्लामी संगठन ‘अल मुहाजिरों’ ने न्यूयार्क, पेंटागन और पेनसिलवेनिया में 11 सितंबर की तबाही मचाने वाले आतंकवादियों का गुणगान करते हुए (शानदार उन्नीस) के पोस्टर लगाए। इसमें जलते हुए वर्ल्ड सेंटर के साथ उन सभी 19 आतंकवादियों और मुस्कुराते हुए ओसामा बिन लादेन की तस्वीरें थी, जिसकी लगातार दूसरी वर्षगांठ मनाते हुए इस संगठन ने ‘बर्मिंघम’ में बड़ा जलसा किया। ‘अल मुहाजिरों’ का घोषित उद्देश्य ब्रिटेन को इस्लामी देश में बदलना और डाउनिंग स्ट्रीट पर इस्लाम का काला झंडा फहराना है। उसके नेता शेख उमर बकरी को बिन लादेन की आंख कान भी कहा जाता है।
शंकर शरण लिखते हैं कि ब्रिटिश मीडिया इतना भीरू है कि “प्रसिद्ध ब्रिटिश विद्वान और जाने-माने लेखक डेविड सेलबोर्न को अपनी इस्लाम संबंधी पुस्तक (द लूजिंग बैटल विद इस्लाम) के लिए वहां प्रकाशक नहीं मिला। वह कोई उपन्यास नहीं, बल्कि विशुद्ध तथ्यों पर आधारित एक दस्तावेजी कृति है। जिसमें 1970 के दशक से आरंभ हुए इस्लामी पुनरुत्थान के वर्तमान युग को सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है। सेलबोर्न ने स्पष्ट कहा है कि केवल भय से पेंग्विन, हार्पर कॉलिन्स, हाइनमान जैसे छह बड़े प्रकाशकों ने उसे छापने से इंकार कर दिया।”
इसके अलावा देखा जा सकता है कि आज भी दुनिया के किसी भी बड़े आतंकी को ब्रिटिश मीडिया बीबीसी टेररिस्ट न कहकर हमेशा मिलिटेंट कहता है। आखिर क्यों? कब तक? ज्ञात हो कि भारत में भी कुछ विचारधारा विशेष के कथित बुद्धिजीवी और तथाकथित सेकुलर हैं, जो बीबीसी के तर्ज पर बुरहान वानी जैसे आतंकियों को मिलिटेंट के विशेषण से नवाजते रहते हैं।
इन सभी बातों पर शायद ब्रिटेन इसलिए चुप रह हो कि उसका अघोषित हिसाब यह रहा हो कि इतनी सुविधाएं देने के बाद शायद आतंकी उन्हें माफ कर देंगे। उनके साथ बर्बर व्यवहार नहीं करेंगे। लेकिन वह यह भूल गया कि “आखिर बुरे साथ का बुरा नतीजा ही होता है।” और ब्रिटेन को इसका भान तब हुआ जब लंदन में जुलाई 2005 में जेहादी हमला हुआ। इसके बावजूद ब्रिटेन ने अपनी पॉलिसी में ज्यादा सुधार नहीं किया। परिणाम आज पूरी दुनिया के सामने है। अतः अब वक्त आ गया है, जब ब्रिटेन को चाहिए कि वह छद्मी सेकुलरता का ढोंग करना छोड़कर दुनिया में फैले इस्लाम की कट्टरपंथी सोच से प्रेरित आतंकवाद के ख़ात्मे के लिए प्रतिबद्ध होकर काम करे।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। ये उनके निजी विचार है।)