हमारे देश में विरोध की राजनीति की बीमारी बहुत पुरानी है। यही बीमारी आजकल उदारीकरण समर्थकों को लगी है। वे मोदी सरकार द्वारा मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा और यूरोपीय संघ के साथ होने वाले मुक्त व्यापार समझौते पर भारत की धीमी चाल की आलोचना कर रहे हैं। भारत के घटते निर्यात के लिए भी वे इसी को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि इसके लिए कमजोर वैश्विक मांग और मुद्रा बाजार की उठापटक जिम्मेदार है न कि एफटीए की समीक्षा।
मुक्त व्यापार समझौतों के तहत दो या दो से अधिक देश आपसी व्यापार में सीमा और अन्य शुल्क संबंधी प्रावधानों में एक-दूसरे को वरीयता देते हैं। भारत का मुख्य बल बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था पर था, लेकिन विकसित देशों की कुटिल व्यापारिक चाल और विश्व व्यापार संगठन की एकांगी नीतियों के कारण भारत को इसमें अधिक सफलता नहीं मिली। इसीलिए उसने प्रमुख देशों के साथ मुक्त व्यापार व वरीयता व्यापार समझौता करने की नीति अपनाई। अब तक भारत ने 42 देशों के साथ एफटीए किया है लेकिन इसका नतीजा निर्यात की तुलना में आयात में बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आया। हां, कुछ देश ऐसे जरूर हैं जिनके साथ एफटीए फायदे का सौदा साबित हुआ। उदाहरण के लिए आसियान देशों के साथ वरीयता व्यापार समझौतों (पीटीए) से दोनो पक्षों को फायदा हुआ। एफटीए के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश देश बड़े बाजार की तलाश में एफटीए कर रहे हैं जबकि भारत अपने आपमें एक बड़ा बाजार है। साथ ही भारत को अपने बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए बाजार भी चाहिए। यही कारण है कि भारत एफटीए पर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहा है। भारत यह देख रहा है कि जिन देशों के उत्पाद भारतीय बाजारों में उतर चुके हैं, उन देशों में भारतीय उत्पादों की क्या संभावनाएं हैं।
समग्रत: एफटीए की संकल्पना को गलत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब धनी देश व्यापार में नैतिक मानदंडों को भूलकर शोषणकारी नीतियां अपना लेते हैं। यही कारण है कि कई देशों में एफटीए के खिलाफ आंदोलन हो रहे हैं। देश के हितों के खिलाफ जाने के कारण थाइलैंड के लोगों ने अमेरिका के साथ हुए एफटीए को ब्लॉक करा दिया। ऐसे में भारत सरकार द्वारा एफटीए की समीक्षा और यूरोपीय संघ के साथ एफटीए में सावधानी बरतना देश हित में है।
यूरोपीय संघ के देश एफटीए करने के लिए भारत पर दबाव डाल रहे हैं तो इसका कारण यह है कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट आ रही है और अधिकतर देशों का कर्ज जीडीपी अनुपात काफी असंतुलित है। यही कारण है कि वहां की सरकारों और कंपनियों को लगता है यदि नए बाजारों में हिस्सेदारी नहीं बढ़ाई गई तो उन्हें और कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। जहां यूरोपीय संघ को भारत में बड़ा उपभोक्ता बाजार दिख रहा है, वहीं भारत को पेशेवर सेवाओं का बाजार खुलता नजर आ रहा है। इसके बावजूद एफटीए को अंतिम रूप देने में कठिनाई आ रही है। यूरोपीय संघ के साथ सबसे बड़ी समस्या पेटेंट नियमों और भारत में खास पहुंच पाने की उसकी मांग की है। यूरोपीय संघ चाहता है कि भारत अपने यहां बौद्धिक संपदा कानूनों को और कड़ा बनाए। इसके साथ ही यूरोपीय देश कृषि और ऑटो बाजार में ज्यादा पहुंच चाहते हैं। अर्थात इन देशों की मांग है कि भारत कृषि उत्पादों और तैयार कारों के आयात पर लागू शुल्कों को कम करे ताकि उनके उत्पादों को भारतीय बाजार में ज्यादा जगह मिल सके।
लेकिन कृषि उत्पादों का मुक्त व्यापार भारत के लिए घाटे का सौदा साबित होगा क्योंकि यूरोपीय देशों में कृषि उत्पादों को भारी सब्सिडी मिलती है फिर इनके निर्यात पर भी सब्सिडी दी जाती है। जिससे उनका मुकाबला भारतीय निर्माता नहीं कर पाएंगे। इससे करोड़ों किसानों और पशु पालकों की रोजी-रोटी छिन जाएगी। यहां दुग्ध उत्पादों के मुक्त व्यापार का उदाहरण प्रासंगिक होगा। विकसित देशों में एक तो आबादी कम है, दूसरे मांसाहार से मिली चिकनाई ने वहां हृदय रोगों की समस्या इतनी बढ़ा दी है कि लोग दूध-मक्खन कम ही लेते हैं। खरीदार न मिलने का ही परिणाम है कि यूरोप-अमेरिका में दूध पाउडर और मक्खन के पहाड़ खड़े हो गए हैं। यही कारण है कि यहां की डेयरी कंपनियां मुक्त व्यापार समझौतों का सहारा लेकर दुग्ध उत्पादों की डंपिंग की नीति पर काम कर रही हैं। इस संबंध में समस्या यह है कि दुग्ध उत्पादों का सस्ता आयात न सिर्फ घरेलू डेयरी व्यवसाय को तहस-नहस कर देता है बल्कि डेयरी उद्योग को विकसित भी नहीं होने देता है। उदाहरण के लिए कई अफ्रीकी देश आयातित दुग्ध पाउडर पर निर्भर हैं और आयात प्रतिस्पर्धा के बीच वे अपने यहां स्वस्थ डेयरी उद्योग विकसित कर पाने में नाकाम रहे।
यही स्थिति भारतीय खुदरा व्यापारियों की होगी क्योंकि वे यूरोप की संगठित माल व्यवस्था के सामने टिक नहीं पाएंगे। जो स्थिति कभी ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने भारतीय हथकरघा की हुई थी वही स्थिति खुदरा की भी होगी। इसी प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव भारतीय दवा उद्योग पड़ेगा। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के लिए पेटेंट प्राप्त करना और सरल हो जाएगा जिससे अनेक दवाओं की कीमत बढ़ जाएंगी। दूसरी ओर अनेक भारतीय कंपनियां जो सस्ती जेनेरिक दवाइयां बना रही हैं उन पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। बौद्धिक संपदा के कानून और सख्त हुए तो इसका किसानों के बीज अधिकारों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा और बड़ी कंपनियों का बीज क्षेत्र में हस्तक्षेप बढ़ जाएगा। यूरोपीय देशों की भांति भारत में सामाजिक सुरक्षा के प्रावधान नहीं हैं। फिर एफटीए में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिससे रोजी-रोटी गंवाने वाले किसानों, मजदूरों की भरपाई की जा सके। ऐसे में इन परिणामों पर विचार किए बिना एफटीए करना आत्मघाती साबित होगा।
समग्रत: एफटीए की संकल्पना को गलत नहीं ठहराया जा सकता लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब धनी देश व्यापार में नैतिक मानदंडों को भूलकर शोषणकारी नीतियां अपना लेते हैं। यही कारण है कि कई देशों में एफटीए के खिलाफ आंदोलन हो रहे हैं। देश के हितों के खिलाफ जाने के कारण थाइलैंड के लोगों ने अमेरिका के साथ हुए एफटीए को ब्लॉक करा दिया। ऐसे में भारत सरकार द्वारा एफटीए की समीक्षा और यूरोपीय संघ के साथ एफटीए में सावधानी बरतना देश हित में है।
ये लेखक के निजी विचार हैं।