पॉलिटिकल कमेंटरी

क्या प्रियंका का राजनीति में आना राहुल की विफलता पर मुहर है?

इन दिनों टीवी स्टूडियोज में एंकर और कांग्रेस के प्रवक्ता बड़े प्रसन्नचित्त हैं कि कांग्रेस के खानदान से एक और सदस्य ने राजनीति में एंट्री मार ली है। कांग्रेसी प्रवक्ताओं को ऐसा उत्साह है  जैसे इससे कांग्रेस की सारी समस्याएं छू-मंतर हो जाएंगी। पिछले दिनों कांग्रेस पार्टी ने सोनिया गांधी की बेटी और उत्तर प्रदेश के व्यवसायी रोबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका वाड्रा गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपने का ऐलान किया।

प्रियंका गांधी : परिवारवादी कांग्रेस में परिवारवाद के नए अध्याय की शुरुआत

आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को पार्टी का पूर्वी यूपी महासचिव एवं प्रभारी बनाने का ऐलान किया है। इसीके साथ अबतक पार्टी के चुनाव प्रचार में जब-तब नजर आती रहीं प्रियंका गांधी का सक्रिय राजनीति में आधिकारिक प्रवेश हो गया है। कहते हैं कि केंद्र की सरकार का रास्ता यूपी से होकर गुजरता है। ऐसा कहे जाने का कारण है कि यूपी सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाला राज्य है

महारैली : साबित हुआ कि विपक्षी दलों के पास मोदी विरोध के सिवा और कोई एजेंडा नहीं है!

कोलकाता की विपक्षी महारैली में कहने को लगभग बीस पार्टियों की भागीदारी हुई, लेकिन इनमें से किसी का भी पश्चिम बंगाल की राजनीति में महत्व नहीं है। रैली का पूरा इंतजाम ममता बनर्जी ने अपने लिए किया था। उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधने के प्रयास किया। पहला तो वह अपनी पार्टी का चुनाव प्रचार शुरू करना चाहती थीं। इसके लिए भीड़ जुटाई गई। दूसरा, वह

कांग्रेस की वोट बैंक की राजनीति को समझने की जरूरत

जब वोट बैंक और मुफ्तखोरी की राजनीति का इतिहास लिखा जाएगा तब उसमे कांग्रेस का नाम स्‍वर्णाक्षरों से अंकित होगा। जाति-धर्म, क्षेत्र-भाषा, अगड़े-पिछड़े, दलित-आदिवासी के नाम पर राज कर चुकी कांग्रेस पार्टी अब नये मोहरों की तलाश में है। मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़ और राजस्‍थान विधान सभा चुनावों में उसे एक नया मोहरा मिल गया- किसानों की कर्जमाफी।

मध्य प्रदेश : किसानों के साथ छलावा साबित हो रही कांग्रेस की कर्जमाफी

मध्‍य प्रदेश में कांग्रेस की नवगठित सरकार अपने गठन के बाद से एक के बाद एक नकारात्मक कारणों से चर्चा में है। अब कर्जमाफी को ही लीजिये। मप्र में विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने किसानों को लुभाने के लिए कर्जमाफी का लुभावना वादा किया था। जब कांग्रेस जीतकर सत्‍ता में आ गई तो वादे पूरे करने की सूची में कर्जमाफी सबसे शीर्ष क्रम पर थी।

क्यों लगता है कि सपा-बसपा गठबंधन से भाजपा को नहीं होगी कोई मुश्किल?

2019 लोक सभा चुनाव से पूर्व देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को न चाहते हुए भी अपना दुश्मन नंबर-2 बना लिया है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को हराने की मजबूरी में दो ऐसी पार्टियों सपा और बसपा के बीच गठबंधन हुआ जो पिछले दो दशक से एकदूसरे की धुर विरोधी रही हैं। 

तथ्यों के धरातल पर बार-बार मात खाने के बावजूद राहुल राफेल-राफेल करने से बाज क्यों नहीं आ रहे!

राफेल पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद होना तो यह चाहिए था कि राहुल गांधी राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मसले पर तथ्यहीन आरोप उछालने के लिए अपनी गलती मान लेते, लेकिन विद्रूप देखिये कि इसके बाद उनके सुर और ऊंचे हो गए। फैसले की एक पंक्ति पकड़कर वे सरकार को घेरने लग गए।

नागरिकता संशोधन बिल : पड़ोसी देशों के प्रताड़ित अल्‍पसंख्‍यकों की सुध लेती मोदी सरकार

आजादी के बाद पहली बार किसी सरकार ने अफगानिस्‍तान, पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश में धर्मिक भेदभाव और उत्‍पीड़न झेल रहे धार्मिक अल्‍पसंख्‍यकों को भारतीय नागरिकता देने के लिए उदार कानून बनाने की पहल की है। नागरिकता कानून 1955 में संशोधन करते हुए मोदी सरकार ने अफगानिस्‍तान, पाकिस्‍तान और बांग्‍लादेश में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई धर्म के मानने वालों को

सामान्य वर्ग आरक्षण : सामाजिक न्याय की दिशा में एक नयी पहल

भारत की राजनीति का वो दुर्लभ दिन जब विपक्ष न चाहते हुए भी सरकार का समर्थन करने के लिए मजबूर हो गया, इसे क्या कहा जाए? कांग्रेस यह कह कर क्रेडिट लेने की असफल कोशिश कर रही है कि बिना उसके समर्थन के भाजपा सामान्य वर्ग आरक्षण बिल को पास नहीं करा सकती थी, लेकिन सच्चाई यह है कि बाज़ी तो मोदी ही जीतकर ले गए हैं। 

बड़ी लकीर खींचने की बजाय शिवराज सरकार की लकीर मिटाने में क्यों लगे हैं कमलनाथ!

मध्‍यप्रदेश में इन दिनों कांग्रेस की नई सरकार काबिज हो चुकी और सरकारी मशीनरी ने नए ढंग से काम करना शुरू कर दिया है। किसी भी प्रदेश में नई सरकार बनती है तो अपने तरीके से काम करती है। इसमें नई योजनाओं को शुरू करना, नई चीजें लाना आदि शामिल रहता है, लेकिन मप्र में कमलनाथ की सरकार कुछ करने की बजाय कुछ “ना” करने पर अधिक ज़ोर देती