छठ पूजा की सबसे महत्वपूर्ण बात इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न तो विशाल पंडालों की,न भव्य मंदिरों की और ना ही ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की जरूरत होती है। आधुनिकता की चकाचौंध और शोरगुल से दूर यह पर्व बांस से बनें सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्तनों, गन्ने, गुड़, चावल और गेहूं से बनें प्रसाद और सुमधुर लोक गीतों से सबके जीवन में भरपूर मिठास भरने का काम करता है।
गौरतलब है कि प्राचीन काल से ही छठ पूजा का विशेष महत्व रहा है। इसका आरंभ महाभारत काल में कुंती ने किया था। सूर्य की आराधना से ही कुंती को पुत्र कर्ण की प्राप्ति हुई थी। इसके बाद कुंती पुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा शुरू की, वह भगवान सूर्य का परम भक्त था, प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा पाकर ही वह आगे चलकर महान योद्धा बना। इसलिए आज भी छठ पूजा में अर्घ्य दान की पद्धति प्रचलित है।
वहीं दूसरी ओर पांडवों की पत्नी द्रौपदी को भी नित्य सूर्य की पूजा करने के लिए जाना जाता है। वे अपने परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी उम्र के लिए नियमित सूर्य देव की पूजा किया करती थी। जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए थे, तब द्रौपदी ने छठ का व्रत रखा था। इस छठ के व्रत से द्रौपदी की सभी मनोकामनाएं पूरी हुईं साथ ही पांडवों को राजपाट भी वापस मिल गया। छठ पर्व का रामायण में भी उल्लेख किया गया है। लंका विजय के बाद रामराज्य की स्थापना के दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को भगवान राम और माता सीता ने उपवास किया था और भगवान सूर्यदेव की आराधना की थी, जिससे सप्तमी को सूर्योदय के समय पुनः अनुष्ठान कर उन्होंने सूर्यदेव से आशीर्वाद प्राप्त किया था।
दरअसल, सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध छठ पर्व को मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण जाना जाता है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र में और दूसरी बार कार्तिक में। लेकिन कार्तिक शुक्लपक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला यह छठ पर्व पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फलप्राप्ति के लिए प्रसिद्ध है। छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए भगवान सूर्य की आराधना की जाती है तथा गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर के किनारे पानी में खड़े होकर यह पूजा संपन्न की जाती है।
छठ पूजा का आरंभ कार्तिक माह की शुक्ल चतुर्थी व समापन सप्तमी को होता है। पहले दिन ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को खरना किया जाता है, पंचमी को दिनभर खरना का व्रत रखने वाले व्रती शाम के समय गुड़ से बनी खीर, रोटी और फल का सेवन प्रसाद रूप में करते हैं। लेकिन, व्रत रखने वाले व्रत समाप्त होने के बाद ही अन्न और जल ग्रहण करते हैं। देश-विदेश में रहने वाले सभी लोग इस पर्व को बहुत धूम-धाम से मनाते हैं। इसे करने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है तथा जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहता है।
छठ पूजा की सबसे महत्वपूर्ण बात इसकी सादगी, पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न तो विशाल पंडालों की,न भव्य मंदिरों की और ना ही ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की जरूरत होती है। आधुनिकता की चकाचौंध और शोरगुल से दूर यह पर्व बांस से बनें सूप, टोकरी, मिट्टी के बर्तनों, गन्ने, गुड़, चावल और गेहूं से बनें प्रसाद और सुमधुर लोक गीतों से सबके जीवन में भरपूर मिठास भरने का काम करता है। भारतीय श्रृंगार, संस्कृति और परम्पराओं की समन्वित छटा छठ के रोज किसी भी छठ घाट पर आपको मिल सकती है।
(लेखिका पेशे से पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)