देश के मुख्य न्यायधीश द्वारा जजों की नियुक्ति को लेकर बार–बार चिंता जाहिर की जाती है, लेकिन स्वयं इस सम्बन्ध में अबतक उन्होंने कोई पहल नहीं की। लेकिन इसकी अति तो तब हो गई जब स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के संबोधन पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री अदालतों में जजों की कमी पर कुछ नहीं बोले। ये आश्चर्यजनक ही है कि देश के मुख्य न्यायाधीश प्रधानमंत्री से स्वतंत्रता दिवस के जन-संबोधन में जजों की नियुक्ति पर बोलने की अपेक्षा करते हैं। यह एक बेहद गंभीर विषय है, जिसपर अगर मुख्य न्यायाधीश को कोई समस्या या असहमति हो तो उसे सरकार के साथ समन्वय और बातचीत के जरिये सुलझाया जा सकता है। मगर इससे अलग ऐसे मामले पर मुख्य न्यायाधीश का इस तरह सार्वजनिक रूप से बयान देना क्या उचित है ?
दरअसल जजों की नियुक्ति के लिए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) विधेयक को संसद के दोनों सदनों में पास कराया था। जिसमें सरकार ने आश्वासन दिया था कि एनजेएसी प्रकिया लागू होने के पश्चात जजों की नियुक्ति कॉलेजियम की अपेक्षा अधिक पारदर्शिता अपनाई आएगी। यह व्यवस्था पारदर्शी थी भी। लेकिन इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इस आयोग के आने से न्यायपालिका में सरकार का दखल बढ़ जायेगा। वहीँ, जजों की नियुक्ति जिस कॉलेजियम प्रणाली के तहत हो रही थी, उसे ही जारी रखा गया। गौर करें तो अपने फैसले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को स्वीकारा था कि कॉलेजियम में जो कमियां हैं, उन्हें जल्द ही दूर किया जायेगा। अब सवाल ये उठता है कि न्यायपालिका ने कॉलेजियम को लेकर सुधार की दिशा में क्या कदम उठाये हैं?
दरअसल जजों की नियुक्ति के लिए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) विधेयक को संसद के दोनों सदनों में पास कराया था। जिसमें सरकार ने आश्वासन दिया था कि एनजेएसी प्रकिया लागू होने के पश्चात जजों की नियुक्ति कॉलेजियम की अपेक्षा अधिक पारदर्शिता अपनाई आएगी। लेकिन इस विधेयक को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इस आयोग के आने से न्यायपालिका में सरकार का दखल बढ़ जायेगा। वहीँ, जजों की नियुक्ति जिस कॉलेजियम प्रणाली के तहत हो रही थी, उसे ही जारी रखा गया। गौर करें तो अपने फैसले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को स्वीकारा था कि कॉलेजियम में जो कमियां हैं, उन्हें जल्द ही दूर किया जायेगा। अब सवाल ये उठता है कि न्यायपालिका ने कॉलेजियम को लेकर सुधार की दिशा में क्या कदम उठाये हैं? जाहिर है कि कॉलेजियम व्यवस्था में भारी खामियां सामने आई हैं। मसलन इस प्रणाली में पारदर्शिता का आभाव देखने को मिलता रहा है। बंद कमरों में जजों की न्युक्ति की जाती रही है, व्यक्तिगत और प्रोफेशनल प्रोफाइल जांचने की कोई नियामक आज तक तय नहीं हो पायी है। जिसके चलते इसके पारदर्शिता को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं।
न्यायपालिका की इन खामियों के बीच इसकी मार आम आदमी झेल रहा है। न्याय प्रकिया में आम जनता उलझ कर रह जाती है। एक मुकदमें के निपटाने में पीढियां खप जा रही फिर न्यायपालिका से लोगों को विश्वास भी कम होनें लगा है जिसके कारणों की एक लम्बी फेहरिस्त है। मसलन न्याय अब महंगा हो गया है,सेलिब्रिटीज को लेकर जो निर्णय हाल ही में अदालतों द्वारा आयें हैं लोग उससे निराश हुए हैं। आज जनता के हितों को ध्यान रखते हुए यह जरूरी है कि न्यायपालिका अपनी इन खामियों पर ध्यान दे।
भारतीय न्याय व्यवस्था की रफ्तार कितनी धीमी है, ये बात किसी से छिपी नहीं है। आये दिन हम देखतें है कि मुकदमों के फैसले आने में साल ही नहीं अपितु दशकों लग जाते हैं। ये हमारी न्याय व्यवस्था का स्याह सच है,जिससे मुंह नही मोड़ा जा सकता। लोग कानूनों के मकड़जाल में उलझ कर रह जा रहें थे। संतोषप्रद बात यह है कि इस दिशा में मोदी सरकार ने अनावश्यक कानूनों को खत्म कर सराहनीय काम किया हैं। अब सही मायने में तो न्यायपालिका की जवाबदेही बनती है कि वो अपने अंदर फ़ैल रहे भ्रष्टाचार आदि पर अंकुश लगाये। अतः उचित होगा कि मुख्य न्यायाधीश सिर्फ जज नियुक्ति के लिए जब-तब सरकार पर आरोप लगाने की बजाय न्यायपालिका में मौजूद इन खामियों को ख़त्म करने के लिए कदम उठाएं व सरकार का सहयोग करें।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)