एक बात और समझ लेनी चाहिए कि चीन सरकार पर अपने देश की दर्जनों कंपनियों का भी दबाव है कि वो भारत से संबंध सुधारे। चीन का प्राइवेट सेक्टर भारत से संबंध सुधारना चाहता है व्यापारिक संबंधों को गति देकर। पर, वहां की सरकार विस्तारवादी नीति पर ही चल रही है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी चीन यात्रा से एशिया की दो महाशक्तियों के बीच डोकलाम विवाद के बाद पैदा हुई खटास खत्म होने की संभावना है। डोकलाम विवाद पर दोनों देश रणभूमि में आमने-सामने थे। मोदी 27 और 28 अप्रैल को चीन यात्रा पर होंगे। वहां वे अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर विचारों का आदान-प्रदान करने तथा दोनों देशों के बीच परस्पर संवाद को बढ़ावा देने के लिए चीन के वुहान शहर में एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेंगे।
दरअसल डोकलाम विवाद पर बंदर भभकी देने के बाद अपने पैर पीछे खींचने वाला चीन समझ गया है कि अब भारत 1962 वाला नहीं रहा है। अब युद्ध हुआ तो भारत उसके गले में अंगूठा डाल देगा। यही नहीं, उसका भारत से होने वाले निर्यात पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा। बेशक, डोकलाम सीमा विवाद पर भारत के आत्मविश्वास और हौंसलों के आगे चीन पस्त हो गया था। उसने अपनी रेड आर्मी को वापस बैरक में भेजने का फैसला कर लिया। ये सुखद है। निश्चित रूप से प्रधानमंत्री मोदी शी जिनपिंग की आंख में आंख में डालकर बात करेंगे। हाँ, भारत आपसी सहयोग बढ़ाने और सीमा पर जारी तनाव को दूर करने के लिए भी तैयार है।
चीन पर अपनी कंपनियों का दबाव
एक बात और समझ लेनी चाहिए कि चीन सरकार पर अपने देश की दर्जनों कंपनियों का भी दबाव है कि वो भारत से संबंध सुधारे। आप कभी दिल्ली से सटे गुरुग्राम के एमजी मेट्रो स्टेशन से 500 कदम की दूरी पर टाइम टॉवर नाम की शानदार बिल्डिंग में सुबह पहुंचिए। गॉर्ड रूम से रिसेप्शन तक पहुंचने में आपको तीन-चार मिनट लगते हैं। अब आपकी आँखें फटी की फटी रह जाती है। लिफ्ट तक आपको कोई भी भारतीय नहीं मिलता। अंदर–बाहर सिर्फ विदेशी ही चहलकदमी कर रहे हैं। उनके नैन-नक्श देखकर पहली नजर में लगता कि ये चीनी होंगे। पूछने पर पता चलता है कि इस बिल्डिंग में कई चीनी कंपनियों के आफिस हैं। कहते है, चीनी जिधर जाते हैं, वहां पर ये चाइना टाउन बना लेते हैं। अकेले गुरुग्राम में करीब तीन-साढ़े तीन हजार चीनी हुआवेई, ओप्पो मोबाइल, मित्तु, बेडु जैसी कंपनियों से जुड़े हैं।
हुआवेई में शायद सबसे अधिक चीनी पेशेवर हैं। ये अधिकतर सुशांत लोक, साऊथ सिटी और डीएलएफ जैसे पॉश इलाकों में रेंट पर रहते हैं। इस तरह के मौके कम ही आते हैं, जब ये चीनी आपस में मिलें। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग दो साल पहले सितबंर, 2015 में भारत आए थे। तब चीनी दूतावास ने भारत में करीब 100 सालों से बसे हुए चीनी मूल के भारतीय नागरिकों और यहां पर काम करने वाले चीनी पेशेवरों को आमंत्रित किया था। उस मिलबैठ में चीनी राष्ट्रपति ने सबका का आह्वान किया था कि वे भारत के विकास में भागीदर बने। करीब दो घंटे के कार्यक्रम में नोट्स एक्सचेंज हुए थे। तब चीनी पेशेवरों को हैरानी जरूर हुई थी कि दिल्ली में चीनियों की ठीक-ठाक आबादी है।
डोकलाम विवाद ख़ड़ा करके चीनी नेतृत्व ने साबित कर दिया था कि उसे अपने देश की निजी कंपनियों के हितों की कोई परवाह नहीं है। साल 2014 में जब चीन के राष्ट्रपति भारत आए थे, तो उनके साथ उनके देश की करीब 80 शिखर कंपनियों के प्रतिनिधि भी आए थे, जिनमें विमानन से लेकर मत्स्यपालन क्षेत्र की कंपनियों के सीईओ थे। चीनी नेता की टोली में एयर चाइना ,जेडटीई, हुआवेई टेक्नोलॉजी, शांगहाई इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन, चाइना डेवलपमेंट बैंक आदि के प्रतिनिधि शामिल थे। यानी चीन का प्राइवेट सेक्टर भारत से संबंध सुधारना चाहता है व्यापारिक संबंधों को गति देकर। पर, वहां की सरकार विस्तारवादी नीति पर ही चल रही है।
यात्रा की तैयारी का दौर
प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा की तैयारी के लिए विदेश मंत्री मंत्री सुषमा स्वराज चीन गई थीं। उन्होंने दौरे की जमीन तैयार की। मोदी और शी की शिखर बैठक से पहले दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय संवाद की श्रृंखला संपन्न हो चुकी है। इसकी शुरूआत पिछले साल दिसंबर में चीनी विदेश मंत्री वांग की भारत यात्रा से हुई थी। डोकलाम गतिरोध के बाद दोनों देशों के बीच यह पहला उच्च स्तरीय संवाद था। इसके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और उनके चीनी समकक्ष यांग जिशी के बीच मुलाकात हुई। इस साल के शुरू में विदेश सचिव विजय गोखले भी बीजिंग गए थे।
भारत चीन से बराबरी के संबंध चाहता है। भारत की ख्वाहिश है कि भारत-चीन आपसी व्यापारिक संबंध और बढ़ें। लेकिन, अब भारत को चीन की धौंस नामंजूर है। चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है, लेकिन उसके साथ भारत का 29 अरब डॉलर का विशाल व्यापार घाटा भी है। अब इस व्यापार घाटे को संतुलित करने की जरूरत है, जिस दिशा में सरकार प्रयास कर रही है।
भारत को अपेक्षाकृत कम होड़ वाले देशों से व्यापारिक मुनाफे की स्थिति में रहना चाहिए जबकि अधिक होड़ वाले देशों के साथ व्यापार घाटे को कम करना चाहिए। फिलहाल दोनों देशों के बीच करीब 70 अरब डॉलर से अधिक का द्विपक्षीय व्यापार होता है। इसमें चीन से भारत में आयात की हिस्सेदारी करीब 61 अरब डॉलर की है।
इसके विपरीत भारत से चीन को निर्यात महज नौ अरब डॉलर का है। यानी चीन से भारत होने वाला आयात इसके भारत से निर्यात के मुकाबले छह गुना से अधिक है। यह भारत में होने वाले कुल आयात का 15 फीसद है। यह व्यपार घाटा गत सरकारों की लम्बे समय की गलत नीतियों के कारण इतना बढ़ा है। बहरहाल, चीन से होने वाले आयात में कमी करने के उपाय तलाश करने होंगे ताकि उसे चोट पहुंचे। एक बार चीन से आयात घटना चालू हुआ तो वहां पर हड़कंप मच जाएगा। तब चीनी नेतृत्व की आंखें खुलेगी कि मित्र देशों से मित्र धर्म का निर्वाह करना चाहिए। मौजूदा सरकार इसे कम करने की दिशा में गंभीर है।
सन 2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी की यह चौथी चीन यात्रा है। निश्चित रूप से आगामी अनौपचारिक शिखर सम्मेलन नेताओं के स्तर पर परस्पर संवाद को बढ़ावा देने के उद्देश्य से, दूरगामी असर डालने वाले और व्यापकता के संदर्भ में द्विपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों पर विचारों का आदान प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण अवसर होगा।
इस दौरान दोनों नेता द्विपक्षीय संबंधों के लिए नयी पहल की कोशिश करेंगे जो विभिन्न विवादों और मतभेदों के चलते तनावग्रस्त हो गए थे। वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी की यह चौथी चीन यात्रा होगी। वे 9 और 10 जून को क्गविंदाओ शहर में होने जा रहे एससीओ शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए भी चीन आने वाले हैं। दोनों देशों के बीच संवाद जारी रहना चाहिए। संवाद से मतभेद दूर होते हैं और संबंधों में मजबूती आती है। फ़िलहाल इतना तो साफ़ है कि अब भारत के आगे चीन धौंस दिखाने की हालत में नहीं है।
(लेखक यूएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)