इस्लाम के इतिहास को देखें तो काफिरों के नरसंहार, उनकी लड़कियों को अगवा करना, बलात धर्मांतरण, विधर्मियों पर तरह-तरह के अत्याचार के करोड़ों उदाहरण मिल जाएंगे। चूंकि, लोकतांत्रिक व्यवस्था में वोट ज्यादा ताकतवर हथियार बन गया है, इसलिए मुस्लिम समुदाय संगठित होकर वोटिंग करता है। भारतीय संदर्भ में देखें तो जाति-धर्म की राजनीति करने वाली पार्टियों ने इसे अपने लिए मौका मानकर इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा देने की आत्मघाती नीति अपनाई। इसी का नतीजा है कि यह कट्टरपंथी अब बहुसंख्यकों को धार्मिक त्योहार भी नहीं मनाने दे रहे हैं। बंगाल-बिहार सहित देश के कई हिस्सों में फैले उन्माद की असली वजह यही है।
इसे वोट बैंक की ताकत ही कहेंगे कि एक ओर पश्चिम बंगाल कई हिस्से सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस रहे हैं तो दूसरी ओर वहां की मुख्यमंत्री दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपदस्थ करने के लिए साझा मोर्चा बनाने में जुटी हैं। वोट बैंक की राजनीति के चलते स्थानीय प्रशासन दंगाइयों का साथ दे रहा है और दंगा पीड़ित असहाय होकर पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं। दंगों के कारण सबसे बुरा हाल पश्चिम बंगाल का रहा। बंगाल के पुरूलिया, मुर्शीदाबाद, बर्धमान और रानीगंज सहित राज्य के तमाम हिस्सों में हिंसा की घटनाएं हुईं। सबसे भवायह मंजर आसनसोल में देखा गया। आसनसोल लगातार तीन दिनों तक हिंसा की आग में जलता रहा, लेकिन वहां का स्थानीय प्रशासन पूरी तरह से नपुंसक बना रहा।
स्थानीय नागरिकों का कहना है कि हम लोग अपने आप को बचाने के लिए सभी पुलिस अधिकारियों तथा अन्य सहायता नंबरों पर फोन करते रहे लेकिन किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। इसका नतीजा यह हुआ कि हजारों हिंदुओं को शरणार्थी शिविरों में रहने पर मजबूर होना पड़ रहा है। इसके बावजूद मुस्लिम वोट बैंक खोने के डर से अधिकांश राजनीतिक दल और उनके नेता मुंह सिले हुए हैं। स्पष्ट है, जो हालात आज पश्चिम बंगाल के हैं, वही हालात कभी कश्मीर और असम के थे जहां ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते हिंदुओं को अपना सब कुछ छोड़कर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा।
कश्मीर, असम, केरल और पश्चिम बंगाल में धार्मिक ध्रुवीकरण और वोट बैंक की राजनीति के जो दुष्परिणाम निकले हैं, वे अचानक आसमान से नहीं टपके हैं। इसकी जड़ इस्लामी वर्चस्ववादी नीतियों में निहित है। 2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमेड ने मुसलमानों की धार्मिक प्रवृत्तियों पर “स्लेवरी, टेररिज्म एंड इस्लाम- द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रेट” नामक पुस्तक लिखी। इसके साथ ही “द हज” के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस मुद्दे पर अपनी पुस्तकों में विस्तार से प्रकाश डाला है। इनके जो निष्कर्ष निकले हैं, वे समूची दुनिया के लिए चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के मुताबिक जब तक किसी देश की कुल आबादी में मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 2 फीसदी तक रहता है तब तक वे शांतिप्रिय, कानूनपसंद बनकर रहते हैं। जब मुसलमानों की आबादी दो से पांच फीसदी के बीच पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जब मुसलमानों की आबादी पांच फीसदी से अधिक हो जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों पर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं।
जब उनकी जनसंख्या 10 फीसदी से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश-प्रदेश या क्षेत्र विशेष के कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं। जब मुसलमानों की आबादी 20 फीसदी से अधिक हो जाती है, तब उनके विभिन्न कट्टरपंथी समूह जेहाद के नारे लगाने लगते हैं और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है। मुसलमानों की आबादी के 40 फीसदी के पार पहुंचते ही बड़े पैमाने पर नरंसहार, आतंकवादी घटनाएं आम हो जाती हैं। मुसलमानों की आबादी के 60 फीसदी होते ही वहां अन्य धर्मावलंबियों का बड़े पैमाने पर सफाया शुरू हो जाता है और कुछ ही साल के भीतर वहां सिर्फ इस्लाम के मानने वाले रह जाते हैं।
दुर्भाग्यवश भारतीय उपमहाद्वीप ने इस्लामी प्रसार के इन सभी चरणों को देखा है। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में गैर-मुस्लिमों के साथ हो रहे अत्याचार और इस्लामी वर्चस्व के बढ़ते कदम से भारतीय उपमहाद्वीप में गैर-मुस्लिमों के बीच अपने अस्तित्व के संकट की चिंता आने लगी है। यही कारण है कि जिस बौद्ध धर्म की बुनियाद अहिंसा पर रखी गई हो, उसी के अनुयाई हथियार उठा रहे हैं। म्यांमार और श्रीलंका में बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष को इसी संदर्भ में देखना होगा। इन दोनों ही देशों में जब मुसलमानों द्वारा कत्ल, अपहरण, बलात्कार, धर्मांतरण का खेल शुरू हुआ तब वहां के राजनेता से लेकर धार्मिक नेताओं को लगने लगा यदि समय रहते इस्लामी चरमपंथ को नहीं रोका गया तो उनका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा।
म्यांमार में बड़े पैमाने पर हिंसक अभियान चलाकर बौद्धों ने इस्लामी वर्चस्ववाद का जवाब देना शुरू किया जिसका परिणाम यह हुआ कि लाखों मुसलमान शरणार्थी बनकर बांग्लादेश, भारत में शरण लेने के लिए मजबूर हुए। कमोबेश यही हाल श्रीलंका का है। जब वहां के मुस्लिम नेताओं ने अल्लाह-ओ-अकबर के नारे के साथ अपनी राजनीतिक गतिविधियां शुरू कीं, तब वहां के बौद्धों ने उन्हें उसी भाषा में जबाव देना शुरू किया जिसका नतीजा सांप्रदायिक दंगों और इमरजेंसी के रूप में आया। दुर्भाग्यवश भारत लंबे अरसे से तुष्टीकरण के जरिए इस चुनौती से निपटने का दिवास्वप्न देख रहा है। यही कारण है कि यहां इस्लामी वर्चस्ववाद थमने का नाम नहीं ले रहा है।
(ये लेखिका के निजी विचार हैं।)