बंगाल में हाल के वर्षों में हुई सांप्रदायिक हिंसा की प्रकृति का अगर अवलोकन करें तो ज्यादातर मामलों में मुस्लिम समुदाय ने किसी एक मामूली-सी वजह को आधार बनाकर हिंसा और उत्पात की शुरुआत की है। मुस्लिमों में इस बढ़ी आक्रामकता का एक कारण अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं, जिनके संरक्षण के ममता सरकार पर लगातार आरोप लगते रहे हैं। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के लिबास में लिपटीं ममता बनर्जी अपने मुस्लिम वोट बैंक के मोह में इस पूरी स्थिति को जानते-बूझते भी कोई ठोस कार्रवाई करने से बचती रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप आज स्थिति काफी ख़राब हो चुकी है।
पश्चिम बंगाल में एकबार फिर सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़क उठी है। सूबे के उत्तरी परगना जिले के बसिरहाट के बादुरिया में एक युवक द्वारा फेसबुक पर की गयी कथित आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर राज्य के कई हिस्सों में सांप्रदायिक तनाव और हिंसा ने जन्म ले लिया। साफ़ शब्दों में मामले को समझें तो ख़बरों के अनुसार, सौरव सरकार नाम के एक बारहवीं में पढ़ने वाले लड़के ने बीती दो जुलाई को अपनी फेसबुक वाल पर इस्लामिक उपासना प्रतीक को लेकर कुछ आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी। इस टिप्पणी के बाद बादुरिया इलाके में मुस्लिम समुदाय की भावना को ऐसी ठेस पहुँची कि उन्होंने क़ानून और व्यवस्था को धता बताते हुए सड़क पर उतरकर उपद्रव और हिंसा का तांडव मचा दिया।
स्थानीय लोगों के अनुसार तकरीबन दो हजार मुसलमान सड़क पर उतर पड़े थे। पुलिस ने सौरव को गिरफ्तार कर लिया था, मगर हिंसा के उन्माद में बौराए ये मुसलमान थाने के बाहर इकठ्ठा होकर सौरव को उन्हें सौंपने की मांग करने लगे। इसी आवेश में पुलिस की जीप जलाने से लेकर हिन्दुओं के घर तहस-नहस करने तक अनेक प्रकार की अराजकता इन्होने फैलायी। इसपर हिन्दुओं की तरफ से भी संभवतः छिट-पुट प्रतिक्रिया हुई और एक छोटी-सी फेसबुक टिप्पणी से उपजा यह विवाद इतनी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा की शक्ल ले लिया कि बादुरिया में केंद्र द्वारा अर्धसैनिक बलों को तैनात करना पड़ा।
इस पूरे प्रकरण में पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार सवालों के घेरे में है। सवाल है कि जब मुस्लिम समुदाय के लोग सड़क पर इकठ्ठा होकर अराजकता फैला रहे थे, उसवक्त ममता सरकार का पुलिस-प्रशासन क्या कर रहा था ? उन्हें दो हजार की संख्या में संगठित होकर सड़क पर उतरने का अवसर कैसे मिल गया ? इसकी भनक प्रशासन को क्यों नहीं लगी ? क्या इलाके का पुलिस-प्रशासन हालात के बेकाबू होने की प्रतीक्षा कर रहा था ? ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब ममता बनर्जी को देने चाहिए। मगर इन सवालों का जवाब देने की बजाय उन्होंने तो एक नया ही शिगूफा छेड़ दिया।
हुआ ये कि बादुरिया के सांप्रदायिक तनाव के बाद पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने राज्य में बदहाल हो रही क़ानून व्यवस्था के विषय में ममता बनर्जी से बात की। इस दौरान शायद उन्होंने ममता से राज्य की बिगड़ती स्थिति को लेकर कुछ सवाल पूछ दिए। बस इसके बाद क्या था, ममता ऐसी बिगड़ीं कि इस पूरी बातचीत का पूरा बवंडर ही बना दिया। उन्होंने राज्यपाल पर भाजपा के नेता की तरह बात करने से लेकर अपना अपमान करने तक अनेक प्रकार के सवाल उठा दिए। यहाँ तक कि ममता बनर्जी ने राज्यपाल की शिकायत राष्ट्रपति से करते हुए उन्हें पद से हटाने की मांग भी कर दी।
राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी की तरफ से ममता बनर्जी के सभी आरोपों को गलत बताया गया है। उनका कहना है कि उन्होंने ममता का कोई अपमान नहीं किया, लेकिन वे राज्य की स्थिति पर मूकदर्शक बनकर नहीं रह सकते। खैर, ममता बनर्जी को यह बताना चाहिए कि राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी पर वे इतना बिफरीं क्यों ? यदि उन्होंने उनसे कुछ प्रश्न किए, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। राज्य में राज्यपाल का पद केंद्र में राष्ट्रपति के पद के समानांतर होता, अतः वे राज्य के मुख्यमंत्री से शासन-प्रशासन के विषय में जवाब मांग सकते हैं।
विचार करें तो ममता बनर्जी का राज्यपाल द्वारा उनके शासन-प्रशासन से सम्बन्धी सवाल पूछे जाने से बिगड़ जाना एक हद तक समझ आता है। कारण कि ममता ने मोदी सरकार के सत्ता में आने के कुछ समय बाद से ही अपनी राजनीति का केंद्र बिंदु भाजपा के अंधविरोध को बना लिया है। ये कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भाजपा और मोदी के प्रति उनका विरोध घृणा के स्तर तक जा पहुँचा है। इस कारण भाजपानीत केंद्र सरकार के प्रत्येक निर्णय से लेकर भाजपा से जुड़े किसी भी व्यक्ति के विरोध का एक भी अवसर वे नहीं चूकतीं।
फिर चाहें वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विषय में बेहद घटिया टिप्पणी करने वाले बरकती के साथ मंच साझा करना हो, दिल्ली में केजरीवाल के नोटबंदी विरोध में शामिल होना हो या फिर अपने यान में तकनीकी खराबी आने पर इसे केंद्र की साज़िश बताना हो; ऐसे तमाम मामले हैं जिनमें भाजपानीत केंद्र सरकार के प्रति ममता बनर्जी का अंधविरोध स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। वर्तमान में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल के प्रति ममता बनर्जी ने जिस तरह का रोष व्यक्त किया है, वो भी उनकी इसी अंधविरोधी प्रवृत्ति का एक उदाहरण है।
ममता द्वारा यह पूरा वितंडा रचने के पीछे एक दूसरा कारण बादुरिया में हुए दंगे से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश भी हो सकती है। अब जो भी हो, मगर इतना स्पष्ट है कि हाल के एकाध वर्षों में पश्चिम बंगाल में दंगों के मामले काफी ज्यादा बढ़े हैं।
अभी गत वर्ष के आखिर में राज्य धूलागढ़ समेत अन्य कई इलाकों में हुए दंगों से त्रस्त रहा। महीनों तक इन दंगों ने राज्य में हालात को अत्यंत तनावपूर्ण बनाए रखा। सूबा इन दंगों की दहशत से अभी उबरा ही था कि बादुरिया का ये मामला सामने आ गया है। इन सबके अलावा गत वर्ष के आरम्भ में घटित मालदा प्रकरण भी उल्लेखनीय है:
जब विहिप नेता कमलेश तिवारी की एक आपत्तिजनक टिप्पणी भर से मुस्लिम समुदाय इतना बौखला उठा था कि उनकी गिरफ्तारी के बावजूद मालदा की सड़कों पर बीस लाख मुसलमान कमलेश तिवारी का सर काटने की आवाज के साथ उतर पड़े थे। समझा जा सकता है कि बीस लाख लोगों की उस भीड़ ने कितनी अराजकता और तबाही फैलाई होगी। यह सब मामले पश्चिम बंगाल में क़ानून-व्यवस्था के स्तर पर राज्य सरकार की विफलता को ही दिखाते हैं।
दरअसल बंगाल में हाल के वर्षों में हुई सांप्रदायिक हिंसा की प्रकृति का अगर अवलोकन करें तो ज्यादातर मामलों में मुस्लिम समुदाय ने किसी एक मामूली-सी वजह को आधार बनाकर हिंसा और उत्पात की शुरुआत की है, जिसके प्रतिक्रियास्वरूप कुछ मामलों में हिन्दू भी आक्रामक हो गए। मुस्लिमों में इस बढ़ी आक्रामकता का एक कारण अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं, जिनके संरक्षण के ममता सरकार पर लगातार आरोप लगते रहे हैं। तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के लिबास में लिपटीं ममता बनर्जी अपने मुस्लिम वोट बैंक के मोह में इस पूरी स्थिति को जानते-बूझते भी कोई ठोस कार्रवाई करने से बचती रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप आज राज्य के मुस्लिम समुदाय के अराजक तत्वों का मन इतना बढ़ गया है कि वे अब राज्य सरकार की क़ानून व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन गए हैं।
ममता बनर्जी के अलावा देश का कथित बुद्धिजीवी वर्ग जो इखलाक से लेकर जुनैद तक मुस्लिम समुदाय के एक भी व्यक्ति की हत्या से देश में असहिष्णुता का पैमाना तय करने लगता है, वो भी बंगाल में मुस्लिमों की उग्र और हिंसात्मक गतिविधियों पर एकदम सन्नाटा मारे हुए है। ये स्थिति इनके विरोध के दोहरेपन को ही उजागर करती है।
बहरहाल, ममता बनर्जी को समझना चाहिए कि वे केवल किसी एक समुदाय का मत पाकर मुख्यमंत्री नहीं बनी हैं और न आगे ही ऐसी कोई संभावना है, अतः धर्मनिरपेक्षता की आड़ लेकर मुस्लिम तुष्टिकरण के अन्धोत्साह में राज्य की क़ानून व्यवस्था को बर्बाद मत करें। वर्ना जिस बंगाल की जनता ने वामपंथियों को अर्श से फर्श पर पहुँचाया, वो उन्हें भी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं करेगी।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)