वामपंथियों के उत्थान व पतन को एक वाक्य में इस रूप में कहा जा सकता है, “एक रोटी खाते हुए व्यक्ति को दो रोटी का सपना दिखाकर हाथ की रोटी फिंकवा देना ही सच्चा वामपंथ है।” इसे कोलकाता और कानपुर के उदाहरण से समझा जा सकता है।
पिछले दिनों हुए पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव कई मामलों में मील का पत्थर साबित हुए। सबसे बड़ा झटका कांग्रेस पार्टी को लगा। राहुल व प्रियंका गांधी की लाख कोशिशों के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन गिरा। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में 399 सीटों पर चुनाव लड़ा था जिसमें से 97 प्रतिशत प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई।
इतना ही नहीं, कांग्रेस को महज 2.4 प्रतिशत वोट शेयर मिला जबकि उससे ज्यादा वोट राष्ट्रीय लोकदल को 2.9 फीसदी मिले, जो केवल 33 सीटों पर चुनाव लड़ी थी। इसी तरह की दुर्दशा गरीबों की चिंता में दुबली-पतली होने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी की हुई।
इन चुनावी नतीजों ने वाम दलों के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया। वामपंथी दलों का खाता खुलना तो दूर उनका कोई नाम लेवा ही नहीं रहा। इसका कारण है कि वामपंथियों के सिद्धांत लगातार अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं। जमीनी स्तर पर काम नहीं होने से वामदलों की पकड़ ढीली पड़ती जा रही है और उसका असर चुनावों में वोट प्रतिशत और सीटों के रूप में सामने आ रहा है।
सिमटते जनाधार के बावजूद वाम दलों ने अपनी रणनीति में बदलाव नहीं किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उनकी झोली खाली होती गई। उदाहरण के लिए जिस बंगाल में वामपंथी दल 34 वर्ष तक लगातार सत्ता में रहे थे उसी बंगाल में आज वे अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
वामपंथियों के उत्थान व पतन को एक वाक्य में इस रूप में कहा जा सकता है “एक रोटी खाते हुए व्यक्ति को दो रोटी का सपना दिखाकर हाथ की रोटी फिंकवा देना ही सच्चा वामपंथ है।” इसे कोलकाता और कानपुर के उदाहरण से समझा जा सकता है।
एक समय था जब कोलकाता के सामने मुंबई को पिछड़ा हुआ शहर माना जाता था। कोलकाता में तब भारत की टॉप फाइव कंपनियों में से तीन बिड़ला, जेके और थापर के मुख्यालय थे। कोलकाता में लगभग सभी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कार्यालय थे। भारत के सभी एयरपोर्ट को मिलाकर जितनी उड़ानें संचालित होती थीं उससे अधिक उड़ानें अकेले कोलकाता एयरपोर्ट से संचालित होती थीं। कोलकाता समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का केंद्र था। दुर्भाग्यवश बंगाल की समृद्धि को वामपंथियों की नजर लग गई।
जैसे ही वामपंथी दल बंगाल की सत्ता पर काबिज हुए उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि उद्योगपतियों, महाजनों, सेठ-साहूकारों को गरीब का खून चूसने वाला घोषित कर दिया और उनके विरूद्ध हिंसा का आह्वान किया। इसके बाद बंगाल की मिलों में हड़ताल सामान्य बात हो गई। प्राय: हड़ताल हिंसा का रूप ले लेती जिसमें लोगों को जान भी गंवानी पड़ती। सरकार इस सबका समर्थन करती।
इसका परिणाम यह हुआ कि बड़े उद्योग मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, हैदराबाद आदि शहरों की ओर पलायन कर गए। अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने भी बंगाल छोड़ दिया। सबसे बड़ी बात यह रही कि वामपंथियों ने हर हिंसा को यह कहकर जायज ठहराया कि ये अभिजात्य वर्ग के विरुद्ध गरीबों की क्रांति है।
कोलकाता जैसी घटना कानपुर में भी घटी। कानपुर की पहचान कपड़ा मिलों से थी इसीलिए इसे पूरब का मैनचेस्टर कहा जाता था। लाल इमली जैसी फैक्टरी के कपड़े प्रतिष्ठा के प्रतीक होते थे। लाखों कुशल-अकुशल लोगों को कानपुर में रोजगार मिला था। अपनी मेहनत की रोटी खा रहे कानपुर शहर में धीरे-धीरे वामपंथियों ने अपनी पैठ बढ़ानी शुरू की। उन्होंने नारा लगाया आठ घंटे मेहनत मजदूर करें और गाड़ी से चलें मालिक।
आगे चलकर वामपंथियों ने उद्योगपतियों को मजदूरों का खून चूसने वाला घोषित कर दिया। कानपुर से वामपंथी सुभाषिनी अली के सांसद बनते ही हड़ताल और हिंसक प्रदर्शनों का सिलसिला तेज हो गया। अंतत: वही हुआ जो कोलकाता में हुआ था। मिल मालिक कानपुर छोड़कर देश के दूसरे शहरों में बसने लगे। इस प्रकार कानपुर बंद पड़ी मिलों का शहर बन गया।
स्पष्ट है, आज देश में वामपंथ का राजनीतिक सूर्यास्त हो रहा है तो इसके लिए उनकी जनविरोधी नीतियां ही जिम्मेदार हैं। गरीबों लिए आवाज उठाने का दावा करने वाले वाम दल और बुद्धिजीवी वामपंथी शासन वाले राज्यों में गरीबों की बढ़ती संख्या पर खामोश होने लगे। इसका नतीजा यह हुआ वामपंथी दलों को गरीबों ने ही नकार दिया।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)