देश में कन्हैया कुमार से लेकर उमर खालिद जैसे राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त लोगों का समर्थन करने वाले वामी और तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड का देश की लोकतान्त्रिक संस्थाओं व शासन व्यवस्थाओं पर बेवजह के सवाल उठाना मुख्य शगल बन गया है। लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले इस ब्रिगेड का बात-बात पर देश की व्यवस्थाओं से भरोसा उठ जा रहा है। ये उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में धूल में मिल गए तो इनका ईवीएम मशीनों से भरोसा उठ गया। इससे पहले इनका मुंबई धमाकों के गुनाहगार याकूब मेमन को फांसी होने पर सुप्रीम कोर्ट से भरोसा उठ जाता है। मेमन को फांसी की सजा से राहत नहीं मिली तो इनका राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से भरोसा उठ गया था। पाकिस्तान में घुसकर आतंकियों के ठिकानों को नष्ट करने वाले सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत नहीं मिलने पर सरकार और सेना से भी इनका भरोसा उठ जाता है। दरअसल इन्हें देश की किसी व्यवस्था में कोई भरोसा है ही नहीं, इन्हें सिर्फ ‘अपनी ढपली अपना राग’ ही भाता है। ये निर्लज्जता से कश्मीर की आजादी के नारे लगाते हैं, सड़कों से लेकर सोशल मीडिया पर। जब इनसे आजादी के नारे लगाने के कारण पूछे जाते हैं, तो ये पाखंडपूर्ण प्रलाप करते हैं कि हम तो बेरोजगारी और अन्याय से आजादी के नारे लगा रहे थे।
राष्ट्रविरोधी विचारों वाले बुद्धिजीवियों को वाम दलों का हर हाल में समर्थन मिलता है साथ ही अब इनके एक नए नवेले समर्थक अरविन्द केजरीवाल भी खड़े हो गए हैं। माकपा के नेता सीताराम येचुरी से लेकर प्रकाश करात और अब आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल तक देश को तोड़ने वाली शक्तियों के साथ हमेशा खड़े नज़र आते हैं। वाम दलों को तो याद रखना चाहिए कि उनकी निंदनीय नीतियों के कारण ही उन्हें जनता देश भर में खारिज़ कर रही है। केरल और बंगाल जैसे राज्यों को छोड़ दें तो लगभग पूरे देश में माकपा और बाकी वाम दलों का सूपड़ा साफ हो गया है। रहे केजरीवाल तो उन्हें भी पंजाब में हुए अपने हश्र से सबक लेते हुए इधर-उधर कूदने की बजाय दिल्ली पर ध्यान लगाना चाहिए।
अब हाल ही में आए यूपी चुनाव के परिणामों में भाजपा की बम्पर जीत के बाद इस ब्रिगेड ने एक नया शिगुफा छेड़ दिया है। दरअसल यूपी चुनावों में जनता द्वारा खारिज किए जाने के बाद बसपा नेत्री मायावती ने ईवीएम में मीन-मेख निकालना चालू कर दिया। बस, इसके बाद सेक्युलर बिरादरी मैदान में उतर आई। ईवीएम की खराबी के पक्ष में अनेक कुतर्कों से इन्होने सोशल मीडिया को रंग दिया। मगर, ये उत्तर प्रदेश से इतर राज्यों के चुनाव नतीजों को लेकर शांत हैं। यानी इन्हें वहां पर ईवीएम में कोई खामी नजर नहीं आ रही। दरअसल मामला गंभीर है और देश इस सवाल का उत्तर उन सभी से चाहता है,जो मेमन और बुरहान को हीरो के रूप में पेश करने में शर्मिंदगी महसूस नहीं करते और जो अब ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर उंगुलियां उठा रहे हैं। ईवीएम पर सवाल उठाकर ये सीधे-सीधे देश की निर्वाचन प्रणाली और लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर प्रश्न उठा रहे हैं। इनका यह आचरण हर तरह से शर्मनाक और निंदनीय है।
कायदे से देश को इन तत्त्वों को पहचान लेना चाहिए, क्योंकि ये ही भारतीय सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मारे गए आतंकी बुरहान मुजफ्फर वानी की मौत के बाद निकले जनाजे में हजारों लोगों के उमड़ने को वाजिब मान रहे थे। ये मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेमन की मुंबई में निकली शव यात्रा को भी सही बता रहे थे। मुंबई में वर्ष 1993 में हुए सीरियल बम विस्फोट के मामले में दोषी याकूब मेमन को नागपुर केंद्रीय कारागार में फांसी दी गयी। इसके बाद उसकी मुंबई में शव यात्री निकली। उसमें हजारों लोग शामिल हुए। सवाल यह है कि क्या कानून की नजरों में गुनहगार साबित हो चुके मेमन को लेकर समाज के एक वर्ग का इस तरह का सम्मान और प्रेम का भाव दिखाना जायज है ? नहीं। पर, आजादी के नारे लगाने वालों के समर्थक वामी और सेक्युलर ब्रिगेड वाले उस जनाजे में शामिल हुए लोगों के साथ खड़े थे।
इसके अलावा यही स्वयंभू सेक्युलरवादी लेखक छतीसगढ़ के दीन-हीन आदिवासियों का खून बहाने वाले माओवादियों के साथ खड़े होते हैं। उन्हें कश्मीर के अलगाववादी नेताओं यासीन मलिक और इफ्तिखार गिलानी के समर्थन में लिखने में भी लज्जा नहीं आती। इनमें अरुंधति राय भी शामिल हैं। वो कश्मीर की आजादी की पैरोकार हैं। इसके लिए उन्हें मोटी रकम वाले विदेशी पुरस्कार से भी कई बार नवाज़ा गया है। यानी वह भारतीय संसद के उस प्रस्ताव को कागज का टुकड़ा मान रही हैं, जिसमें संकल्प लिया गया है कि भारत पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके) का अपने में विलय करेगा। और इन राष्ट्रविरोधी विचारों वाले बुद्धिजीवियों को वाम दलों का हर हाल में समर्थन मिलता है साथ ही अब इनके एक नए नवेले समर्थक अरविन्द केजरीवाल भी खड़े हो गए हैं। माकपा के नेता सीताराम येचुरी से लेकर प्रकाश करात और अब आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल तक देश को तोड़ने वाली शक्तियों के साथ हमेशा खड़े नज़र आते हैं। वाम दलों को तो याद रखना चाहिए कि उनकी निंदनीय नीतियों के कारण ही उन्हें जनता देश भर में खारिज़ कर रही है। केरल और बंगाल जैसे राज्यों को छोड़ दें तो लगभग पूरे देश में माकपा और बाकी वाम दलों का सूपड़ा साफ हो गया है। रहे केजरीवाल तो उन्हें भी पंजाब में हुए अपने हश्र से कुछ सबक तो लेना ही चाहिए। वर्ना पांच साल पूरे होने पर दिल्ली भी चली जाएगी। ये चाहें जो करें, मगर देश को इनसे सदैव सावधान रहने की आवश्यकता है।
(लेखक युएई दूतावास में सूचनाधिकारी रहे हैं। वरिष्ठ स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)