‘तीन तलाक’ के बहाने फिर बेनकाब हुआ वामपंथी गिरोह

देश में कुछ ही समय बाद एक बड़ा मसला फिर से उठने वाला है। यह हालांकि दीगर बात है कि जब से केंद्र में नरेंद्र मोदी नीत एनडीए सरकार आयी है, तब से ही तथाकथित बुद्धिजीवी, चिंतक और कलाकार किसी न किसी बहाने इस सरकार को घेरने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहे। यह भी कोई अनजानी बात नहीं कि ये सभी किसी न किसी तरह वामपंथी और कांग्रेसी वित्त पोषित और उन्हीं के गिरोह के भी हैं। यह भी एक खुला रहस्य है कि सरकार द्वारा विदेशी फंड पर नकेल कसने के बाद धवलकेशी महिलाओं-पुरुषों के एनजीओ और तथाकथित ‘सिविल सोसायटी’ की भी सांस घुटने लगी है।

बहरहाल, जिन एनजीओ के कर्ताधर्ताओं ने गुजरात के दंगापीड़ितों के नाम पर जमा रकम को भी डकार लिया, वे भी जब असहिष्णुता और सरकारी दमन की बात करें, तो उसे समझने के लिए रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। हालांकि, अभी जो मुद्दा गरमाने वाला है, वह पिछले सात दशकों से इस देश में चली आ रही मुस्लिम तुष्टीकरण और वामपंथी बौद्धिक दोमुंहेपन की साझी उपज मात्र है। ‘तीन तलाक’ पर केंद्र सरकार ने सख्त तौर पर ना कहते हुए सुप्रीम कोर्ट में इसका विरोध किया है और अब जैसी कि उम्मीद थी, इसका विरोध ठीक उन्हीं ठिकानों से हो रहा है, जहां से होना चाहिए था। मुस्लिम कट्टरपंथियों और वामपंथी बौद्धिक लफ्फाजों के गिरोह द्वारा।

केन्द्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक और चार निकाह के विरोध में पक्ष रखने के बाद वृंदा करात ने कहा है कि तीन तलाक के विरोध के बहाने मोदी ‘समान नागरिक संहिता’ थोपने की साज़िश में लगे है। पहली बात तो वृंदा से यह पूछी जानी चाहिए कि ‘समान नागरिक संहिता’ उस देश में एक साज़िश कैसे हो सकती है, जिसकी प्रस्तावना में ही ‘धर्मनिरपेक्ष और समतामूलक’ जुड़े हुए हों। साज़िश तो अब तक हुई है, इस देश के साथ- अब तक समान नागरिक संहिता को लागू न करके। दूजे, इन वामपंथी नेत्री से यह भी पूछा जाना चाहिए कि सदियों से घुट-घुट कर जी रहीं मुस्लिम महिलाओं की आजादी के पक्ष में खड़े होना एक साजिश है? बहुविवाह के खिलाफ आज के समय खड़े होना, महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन समझने के खिलाफ खड़े होना एक साजिश है? किसी मुस्लिम पुरुष द्वारा कभी भी अपनी पत्नी को तीन बार तलाक बोलकर घर से बाहर फेंक देने का विरोध करना एक साजिश है ? फिर उसी पत्नी से दोबारा शादी करने के लिए उसे ‘हलाला’ जैसी बर्बर और अमानवीय प्रथा (जिसमें उस पत्नी को किसी दूसरे पुरुष से यौन सम्बन्ध बनाना होता है) में झोंकने का विरोध करना एक साजिश है?

जिन एनजीओ के कर्ताधर्ताओं ने गुजरात के दंगापीड़ितों के नाम पर जमा रकम को भी डकार लिया, वे भी जब असहिष्णुता और सरकारी दमन की बात करें, तो उसे समझने के लिए रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। हालांकि, अभी जो मुद्दा गरमाने वाला है, वह पिछले सात दशकों से इस देश में चली आ रही मुस्लिम तुष्टीकरण और वामपंथी बौद्धिक दोमुंहेपन की साझी उपज मात्र है। ‘तीन तलाक’ पर केंद्र सरकार ने सख्त तौर पर ना कहते हुए सुप्रीम कोर्ट में इसका विरोध किया है और अब जैसी कि उम्मीद थी, इसका विरोध ठीक उन्हीं ठिकानों से हो रहा है, जहां से होना चाहिए था। मुस्लिम कट्टरपंथियों और वामपंथी बौद्धिक लफ्फाजों के गिरोह द्वारा।

अगर यह सब साज़िश है, तो यह सारी साज़िशें आज से सात दशक पहले हो जानी चाहिए थीं और आज तक यह साज़िश न होना ही एक साज़िश है। कहने की बात नहीं कि वृंदा कम्युनिस्ट हैं और महिला भी। वह नारीवादी भी लगाती हैं खुद को। मध्ययुग की इन जहालत से भरी और रेगिस्तानी कबीलों की बर्बर प्रथाओं को ख़त्म करने में वृंदा को साज़िश की बू आती है। असल में, वृंदा कुछ भी ग़लत नही कर रही हैं, वह तो अपने वैचारिक ‘पुरखों’ की उस प्रथा का पालन ही कर रही हैं, जिसमें मुस्लिम कट्टरपंथ को किसी भी हालत में जिलाने और समर्थन देने की रस्म सिखायी गयी है। इसके सबूत में सैकड़ों पन्ने रंगे जा सकते हैं, पर फिलहाल इतना ही याद कर लीजिए कि पाकिस्तान का पहला ड्राफ्ट किसी कट्टरपंथी मुस्लिम ने नहीं, वामपंथी ब्रिगेड के एक तथाकथित बौद्धिक ने लिखा था।

दरअसल, झूठ और राष्ट्रद्रोह ही वामपंथ के दो पैर हैं। विषयांतर का ख़तरा उठाते हुए भी यह लेखक आपको हालिया कुछ वाकयों की याद दिलाना चाहेगा। जेएनयू में लगे राष्ट्रविरोधी नारे फर्जी थे, उनकी आड़ में यूनिवर्सिटी पर अत्याचार हो रहा है- ऐसे जज्बाती नारों का सहारा लेकर अपनी टीवी स्क्रीन काला करनेवाले पत्रकार ने क्या नारों की रिपोर्ट आने पर और उनके सही माने जाने पर माफी मांगी देश की जनता से ? दादरी पर आंसू बहानेवाले, तुरंत वहां का मार्च कर आनेवाले, गंगा-जमनी तहज़ीब पर भाषण देनेवाले वामपंथी बौद्धिकों ने अपनी टीवी स्क्रीन क्या कैराना पर एनएचआरसी की रिपोर्ट आने पर सच्चाई बताने की जहमत उठाई ? अपनी टीवी स्क्रीन को काला किया या फिर  चुप्पी साध ली ?

मुज़फ्फरनगर का झूठ बेचनेवाले धवलकेशी एनजीओ वाले हर्ष मंदर औऱ दंगापीड़ितों का पैसा अय्याशी में उड़ानेवाली तीस्ता सीतलवाड़ जैसे बौद्धिक बेईमानों ने क्या देश की जनता से माफी मांगी, डॉ. नारंग की हत्या पर, एक समुदाय-विशेष के अपराधियों को बचाने के लिए, झूठी ट्वीट किए जाने पर क्या कोई वामी बोला ? क्या वजह है कि भरी-पूरी सड़क हरेक शुक्रवार को मस्जिद बन जाती है, पूरे महीने भर के लिए कुछ इलाकों में हिंदुओं के लिए नो-एंट्री का बोर्ड टंग जाता है। शबे-बरात, ईद और मुहर्रम का भी हंगामा याद कर लीजिए।

वृंदा उसी कम्युनिस्ट बिरादरी की हैं, जिसने 30 वर्षों में बंगाल को खौलते नरक में बदल दिया। उसी बंगाल में दुर्गापूजा को एक इलाके में प्रतिबंधित कर दिया जाता है और वृंदा उस जमात की भी प्रतिनिधि हैं जिनके लिए ‘भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब “हिंदू-विरोधी” होना है’। इतना ही नहीं, ममता बनर्जी की सेकुलर सरकार ने तो इस बार विसर्जन पर भी मुहर्रम की वजह से रोक लगा दी थी, वो तो भला हो कोलकाता हाईकोर्ट का जिसने ममता सरकार को जम कर फटकार लगाईं है। हाई कोर्ट ने ने ममता सरकार से पूछा है कि किस आधार पर उसने मूर्ति विसर्जन पर रोक लगाईं है ? जज ने लताड़ तो लगाई ही, साथ ही यह भी राज्य सरकार से पूछा कि अगर ताजिया निकलेगा तो क्या मूर्ति विसर्जन नहीं होगा ?

31587776-cms

भारत में एक बड़ा वर्ग है जो मुसलमानों की गुंडागर्दी को जायज ठहरा कर इसे उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता करार देता है, हिंदुओं के साथ की गयी गुंडागर्दी उसे धर्मनिरपेक्षता लगती है और अगर कहीं किसी हिंदू के पलटवार की ख़बर आ गयी, तो वह असहिष्णुता हो जाती है। डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के सर काटने की मांग करना जायज है, लेकिन सरस्वती और भारत माता के नग्न चित्र बनानेवाले उस महान चित्रकार पर बोलना भी असहिष्णुता हो जाता है. यह बात भी बड़ी आसानी से भुला दी जाती है कि उसी महान चित्रकार ने जब भी आयशा, फातिमा या खुद अपनी मां के चित्र बनाए, तो अपनी सारी रचनात्मकता और कलात्मकता को कपड़ों का परदा ओढ़ा दिया।

सलमान रश्दी के लिए फतवा, तो तसलीमा के बाल खींचकर उसकी बेइज्जती। अखलाक को 40 लाख तो कैराना के हिंदुओं को कश्मीर। यह दरअसल, 70 वर्षों के उस तुष्टीकरण का नतीज़ा है, जिसने कई दशक पहले ही हमें पाकिस्तान का नासूर दे रखा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी आखिर यह कहना ही पड़ा कि मुसलमानों को वोट की मंडी का माल मत समझो। हालांकि, इसके अपने और गहरे राजनीतिक अर्थ और यथार्थ हैं। मोदी ने एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय की परिभाषा को फिर से दोहराते हुए यह बात कही कि कि मुस्लिम आबादी का न तो तिरस्कार करो, न पुरस्कृत करो, बल्कि इन्हें परिष्कृत करो। सच भले यह हो कि मुस्लिम भाजपा का भरोसा नहीं करते और उसी का डर दिखाकर तमाम पार्टियां इनके वोटों का सौदा करती हैं, लेकिन पहले अटल बिहारी वाजपेयी और अब नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में ऐसा देखने को नहीं मिला कि वास्तव में केन्द्रीय सत्ता मुस्लिम आबादी के खिलाफ भेदभाव करती है या फिर मुस्लिम आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक मानती है। कई बार तो खुद को पाक-साफ दिखाने के चक्कर में भाजपा ने भी खुद को वहीं खड़ा कर लिया है, जहां कांग्रेस या दूसरी पार्टियां खड़ी होती हैं। उदाहरण के लिए दादरी से लेकर असहिष्णुता प्रकरण तक, कई बार भाजपा के कट्टर और अतिवादी समर्थकों की अपेक्षा पर सरकार कमतर ही नज़र आयी है।

बहरहाल, बात वामपंथी दोमुंहेपन की हो रही थी। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में उन कम्युनिस्ट पार्टियों पर उंगली नहीं उठी है जो पश्चिम बंगाल में 30 सालों तक शासन की थी ? तथाकथित सेकुलर राजनीतिक पार्टियां भी भय और प्रलोभन को छोड़कर मुस्लिम आबादी की वास्तविक समस्याओं का समाधान करने के लिए कब और कौन सा काम करती हैं ?  उन्होंने मुस्लिम आबादी को वोट की मंडी के माल से बढ़कर या हटकर कब और क्या समझा है ? ज़ाहिर तौर पर, वह ज़हालत और गरीबी के उन्हीं अंधेरों में मुसलमानों को रखना चाहते हैं, जहां वे इनके भय का दोहन कर इन्हें केवल और केवल इस्तेमाल कर सकें, और कुछ नहीं। मुसलमान अब तक तो नहीं ही चेते हैं, आगे भी ऐसे आसार जल्द नज़र नहीं आ रहे हैं।

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)