भारत में तुष्टिकरण की राजनीति का दायरा बहुत व्यापक है। गरीबी, बेकारी, जनसंख्या विस्फोट, आतंकवाद, अलगावाद, नक्सलवाद, सांप्रदायिक दंगों के साथ-साथ कुदरती ढांचे को तहस-नहस करने में भी वोट बैंक की राजनीति की अहम भूमिका रही है। इसका ज्वलंत उदाहरण है केरल की बाढ़।
केरल में आई भीषण बाढ़ का एक कनेक्शन तुष्टिकरण की राजनीति से भी जुड़ा है जिसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जा रहा है। केरल का सबसे बड़ा चर्च है सायरो-मालाबा कैथोलिक चर्च। केरल के पश्चिमी घाट पर रहने वाले ज्यादातर ईसाई इसी से जुड़े हैं और इनके बड़े-बड़े बागान हैं। इस चर्च ने 2013 में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर गाडगिल समिति की सिफारिशों के खिलाफ आंदोलन किया था जिसका परिणाम यह हुआ कि केरल में कुदरती ढांचे को तहस-नहस करने की रफ्तार बढ़ गई।
गौरतलब है कि पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी पर मंडराते संकट को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2010 में माधव गाडगिल समिति का गठन किया था। हालांकि समिति ने 2011 में ही अपनी रिपोर्ट दे दी थी, लेकिन ईसाई संगठनों और वामपंथियों के दबाव में तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। बाद में केंद्रीय सूचना आयोग के दखल से रिपोर्ट जारी की गई।
गाडगिल समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि पश्चिमी घाट का 37 फीसदी हिस्सा पर्यावरण की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है, अत: इसे यथास्थिति में रखा जाए। समिति ने पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकी दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित करते हुए सुझाव दिया कि पहली दो श्रेणियों में आने वाले इलाकों के लिए कोई नया लाइसेंस न दिया जाए और जहां खनन गतिविधि जारी है, वहां इसे पांच वर्षों में चरणबद्ध तरीके से 2016 तक समाप्त कर दिया जाए। समिति ने पश्चिमी घाट में खनन और गैर-वन प्रयोजनों के लिए जमीन के उपयोग और बहुमंजिली इमारतों के निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि समिति की सिफारिशों पर अमल करने के बजाए केरल की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने सभी पार्टियों की एक बैठक बुलाकर सरकार से गाडगिल समिति की रिपोर्ट खारिज कर देने की मांग की। कांग्रेसी नेता पी सी जार्ज ने तो गाडगिल समिति की सिफारिशों को लागू करके जंगल बचाने की कोशिश करने आने वाले लोगों को पीटकर भगाने की धमकी तक दे डाली।
जंगलों को काटने पर आमादा वामपंथी पार्टियों ने कहा कि जंगलों को ना काटने का ये आदेश केरल की तरक्की को रोक देगा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि विकास का हवाला देकर जंगल काटने, बांध, पर्यटन स्थल, आवास, रबर के बागान आदि के लिए पश्चिमी घाट की पारिस्थितिकी से छेड़छाड़ जारी रही। जहां सीपीआई-एम अथिरापल्ली हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट बनाने पर तुला रहा, वहीं जंगल बचाने की कोशिशों को सायरो-मालाबार कैथोलिक चर्च ने अंतरराष्ट्रीय साजिश करार दिया।
इसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप किया तब केंद्र सरकार ने गाडगिल समिति की सिफारिशों को जांचने का कार्य अंतरिक्ष वैज्ञानिक जी. कस्तूरीरंगन को सौंपा। कस्तूरीरंगन ने कुछेक संशोधनों के साथ गाडगिल समिति की रिपोर्ट को सही ठहराया। इसके बावजूद केरल में पर्यावरण संरक्षण का कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया।
केरल में आई बाढ़ से ठीक एक महीने पहले एक सरकारी रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि यह राज्य जल संसाधनों के प्रबंधन के मामले में दक्षिण भारतीय राज्यों में सबसे खराब स्थिति में है। इस अध्ययन में हिमालय से सटे राज्यों को छोड़कर 42 अंकों के साथ केरल को 12वां स्थान मिला था। 2018 की शुरूआत में केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक आकलन में केरल को बाढ़ से सबसे असुरक्षित राज्य माना गया था लेकिन राज्य सरकार ने तबाही के खतरे को कम करने के लिए पुख्ता इंतजाम नहीं किया।
दरअसल वामपंथी शासन के दौरान केरल में ईसाईयों और मुसलमानों का एक मजबूत वोट बैंक बन चुका है। केरल में सरकार चाहे कांग्रेस की हो या वामपंथियों की, इस वोट बैंक की उपेक्षा करने का दुस्साहस कोई नहीं करता। यही कारण है इस वोट बैंक से जुड़े लोग सरकारों को अपने इशारों पर नचाते रहे हैं। स्पष्ट है, केरल में आई बाढ़ के आपदा का रूप लेने के लिए प्रकृति विरोधी आधुनिक विकास के साथ-साथ वोट बैंक की राजनीति भी जिम्मेदार है। सबसे बड़ी बात यह है कि मीडिया इस पर चुप्पी साधे हुए है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)