सबसे बड़ी बात यह है कि तीसरा और चौथा स्थान पाने के लिए भी कांग्रेस और वाम दलों ने अपनी-अपनी विचारधारा को तिलांजलि दे दी है। केरल में जहां कांग्रेस और वाममोर्चा एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं वहीं पश्चिम बंगाल में ये दोनों साथ-साथ मिलकर चुनाव मैदान में हैं और सरकार बनाने के सपने देख रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस केरल में चुनाव खत्म होने का इंतजार कर रही है ताकि वह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के साथ मिलकर चुनाव प्रचार कर सके।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के अंतिम नतीजे किसके पक्ष में आएंगे यह कहना जल्दबाजी होगी लेकिन क्रमश: दो और तीन दशकों तक राज्य में एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस और वामपंथी दलों का चुनावी परिदृश्य से गायब होना आश्चर्यजनक है। चुनावी विश्लेषकों के अनुसार दोनों दल तीसरे और चौथे स्थान के लिए लड़ रहे हैं। दूसरे शब्दों में दशकों तक एकछत्र राज करने वाले दल आज मुकाबले से बाहर हो चुके हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि तीसरा और चौथा स्थान पाने के लिए भी दोनों दलों ने अपनी-अपनी विचारधारा को तिलांजलि दे दी है। केरल में जहां कांग्रेस और वाममोर्चा एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं वहीं पश्चिम बंगाल में ये दोनों साथ-साथ मिलकर चुनाव मैदान में हैं और सरकार बनाने के सपने देख रहे हैं। यही कारण है कि कांग्रेस केरल में चुनाव खत्म होने का इंतजार कर रही है ताकि वह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के साथ मिलकर चुनाव प्रचार कर सके।
फिलहाल स्थिति यह है कि कांग्रेस पार्टी पश्चिम बंगाल में वामपंथियों की खुलकर प्रशंसा करने से बच रही है क्योंकि केरल में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी वामदलों पर हमला करते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटकर महज 4 प्रतिशत रह गया था। इसीलिए कांग्रेस अपने धुरविरोधियों से भी समझौता करने पर मजबूर हुई है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) पश्चिम बंगाल में 34 वर्षों तक सत्ता पर काबिज रही और अपने को जाति, धर्म और मजहब को दूर रखकर धर्मनिरपेक्षता का दंभ करती है। लेकिन आज हालत यह हो गई है कि माकपा को अब्बास सिद्दीकी के इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आइएसएफ) से चुनावी गठजोड़ करना पड़ा रहा है। यही हालत कांग्रेस की भी है।
कांग्रेस का एक वर्ग आइएसएफ से गठबंधन को कांग्रेस की मूल विचारधारा के खिलाफ बता रहा है। लेकिन सत्ता के लिए किसी भी हद तक गिरने वाली कांग्रेस को असंतुष्टों की आवाज सुनाई नहीं दे रही है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में चुनावी गठबंधन के तहत कांग्रेस के खाते में 92 सीटें आई हैं जबकि बाकी बची हुई सीटें वाममोर्चा और आइएसएफ को दी गई हैं।
294 सीट वाली पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जहां तृणमूल कांग्रेस के 211 विधायक हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी के पास सिर्फ 3 विधायक हैं। इसके बावजूद भाजपा ममता सरकार के भ्रष्टाचार और मोदी सरकार द्वारा किए जा रहे विकास कार्यों को मुद्दा बनाकर पूरे दमखम से चुनाव मैदान में है और उसे जनता का भरपूर समर्थन भी मिल रहा है। भाजपा के उत्साह का कारण पार्टी का राज्य में बढ़ता जनाधार भी है।
2014 के लोक सभा चुनाव में जहां भाजपा को 42 सीटों में से केवल दो सीटें मिली थीं वहीं 2019 के लोक सभा चुनावों में वह 18 सीटें जीतने में कामयाब रही। भाजपा का मत प्रतिशत भी 2014 के 17.02 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 40.64 प्रतिशत तक पहुंच गया। दूसरी ओर राज्य की 42 सीटों में वामपंथी दलों का खाता भी नहीं खुला था।
अधिकतर सीटों पर वो तीसरे और चौथे स्थान पर आए। एक उम्मीदवार को छोड़कर वाम मार्चा को कोई भी उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सका था। पार्टी का मत प्रतिशत भी 2014 के 30 प्रतिशत से घटकर 2019 में महज 7 प्रतिशत रह गया। यही कारण है कि विधान सभा चुनावों में वाम मोर्चा की सक्रियता नहीं दिख रही है।
कांग्रेस और वाम मोर्चा की हालत देखते हुए यह स्पष्ट है कि जो भी दल सत्ता में रहते हुए जन भावनाओं का सम्मान नहीं करेगा वह जनता का समर्थन खो देगा। जनभावनाओं का सम्मान न करने का ही नतीजा है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस राज्य में अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए दिन-रात एक किए हुए है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं।)