पराजयों की श्रृंखला के बीच अगर कांग्रेस पार्टी की राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जीत हुई तो उसके पीछे वहां के स्थानीय नेताओं का हाथ ज्यादा रहा है। लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में गाँधी परिवार ने उन नेताओं को सत्ता की चाभी दी जो उनकी ‘हां में हां’ मिलाएं और जो आगे चलकर प्रियंका और राहुल के लिए चुनौती नहीं बन सकें। कांग्रेस जैसी परिवार पर आधारित पार्टियों की सबसे बड़ी मुसीबत यही है।
पिछले कुछ समय से कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष कौन है, ये बहुत से लोगों को ठीक से पता भी नहीं होगा। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस पार्टी को इतना हिला दिया कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कुछ समय के लिए अज्ञातवास पर ही चले गए, वापस आये तो इस इरादे के साथ कि वह कभी दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बनेंगे।
हार पार कर कांग्रेस पार्टी की कमान फिर से सोनिया गाँधी के हाथों में वापस पहुँच गयी जो पहले से ही गंभीर तौर पर बीमार चल रही थी। चुनाव के मध्य में सोनिया गाँधी ने अपनी बेटी प्रियंका वाड्रा को भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में आजमाया लेकिन नतीजे रहे ढाक के तीन पात।
2019 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नेतृत्व में भाजपा के हाथों मिली हार ने पार्टी को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया। यहाँ तक कि पार्टी से युवा कांग्रेसी नेताओं ने पलायन करना शुरू कर दिया। तो क्या यह मान लें कि कांग्रेस पार्टी से लोगों का मोहभंग ही गया या नेहरू-गांधी खानदान पर से अब लोगों का विश्वास हट गया है।
वैसे पिछले 70 वर्षों में नेहरू और गांधी ही कांग्रेस का पर्याय रहे हैं लेकिन कांग्रेस जनों और उनके हितैषियों में चिंता इस बात को लेकर बढ़ी है कि गांधी और नेहरू परिवार के लोग अगर सत्ता में नहीं रहे तो उनके हितों का क्या होगा?
पिछले दिनों जब सिंधिया परिवार के पूर्व नेता ज्योतिरादित्य कांग्रेस का त्याग कर बीजेपी में शामिल हुए तो अन्दर की बातें निकल कर सामने आने लगीं। ज्योतिरादित्य ग्वालियर के सिंधिया खानदान से ताल्लुक रखते हैं और उनके पिता कभी राजीव गाँधी के बराबरी के नेताओं में शुमार होते थे, जिनकी मौत एक हवाई दुर्घटना में हो गयी थी।
ज्योतिरादित्य की दादी राजमाता सिंधिया जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थीं। बीजेपी ने ज्योतिरादित्य के पार्टी में शामिल होने को सामान्य घटना माना, क्योंकि उनके परिवार की जड़ें तो संघ में ही हैं, लेकिन कांग्रेस को ऐसा लगने लगा कि इसके बाद युवा कांग्रेसियों का भी कांग्रेस और गाँधी परिवार से कहीं मोहभंग न हो जाये।
याद दिलाना ज़रूरी है कि माधवराव सिंधिया अपनी असमय हुई मौत से पहले राजीव गाँधी से कहीं ज्यादा लोकप्रिय थे, आज भी उनकी हवाई दुर्घटना में हुई मौत को संशय की दृष्टि से देखा जाता है।
खैर, यह सर्वविदित तथ्य है कि गांधी परिवार की पकड़ राष्ट्रीय राजनीति पर से ढीली हुयी है। पराजयों की श्रृंखला के बीच अगर कांग्रेस पार्टी की राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जीत हुई तो उसके पीछे वहां के स्थानीय नेताओं का हाथ ज्यादा रहा है। लेकिन राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में गाँधी परिवार ने उन नेताओं को सत्ता की चाभी दी जो उनकी ‘हां में हां’ मिलाएं और जो आगे चलकर प्रियंका और राहुल के लिए चुनौती नहीं बन सकें। कांग्रेस जैसी परिवार पर आधारित पार्टियों की सबसे बड़ी मुसीबत यही है।
एक समय वह भी था जब नेहरू और कृपलानी को सरदार पटेल जैसे कद्दावर नेताओं से बड़ी चुनौती मिलती थी, लेकिन कांग्रेस में सीडब्ल्यूसी के 20 वर्षों से चुनाव ही नहीं हुए। कांग्रेस पार्टी को अगर बचना है तो उसे नेहरू-गांधी परिवार की ड्राइंग रूम पॉलिटिक्स के खेल से बाहर निकलकर जमीन पर और आम आदमी के बीच जाना पड़ेगा तभी उसका भला हो सकता है, अन्यथा समय किसीको इतिहास बनाने में सोचता नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)