आज जब एक के बाद एक खुलासे सामने आ रहे हैं और मालेगाँव एवं अजमेर ब्लास्ट मामले में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को बरी किया जा रहा है, तो बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि मालेगाँव और अजमेर ब्लास्ट के बहाने तत्कालीन कांग्रेस सरकार किन साजिशों की रचना कर रही थी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ जैसे शब्द को गढ़ने की सुनियोजित साजिश कांग्रेस ने बेहद योजनाबद्ध ढंग से की थी! इन तमाम सवालों की तहों से पर्दा उठाना बेहद जरुरी है।
एक अंग्रेजी समाचार चैनल ने वर्ष 2008 से जुड़ा एक ऐसा खुलासा किया है, जो बेहद चौकाने वाला है। टाइम्स नाऊ ने फाइल्स नोटिंग से मिली जानकारी के आधार पर यह दावा किया है कि कांग्रेसनीत संप्रग-2 सरकार ने मालेगाँव एवं अजमेर ब्लास्ट मामले में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत से पूछताछ करने के लिए एनआईए पर दबाव बनाया था। रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं एवं मंत्रियों द्वारा मोहन भागवत को फंसाने की कोशिश भी की जा रही थी।
इस पूरे प्रकरण को जब मालेगाँव ब्लास्ट से जोड़कर देखते हैं, तो तमाम परतें खुलती जाती हैं। दरअसल मालेगांव और अजमेर ब्लास्ट के बहाने कांग्रेस खुले तौर पर ‘हिन्दू आतंकवाद’ नामक धारणा को स्थापित करने के प्रयास में लगी थी। सिलसिलेवार ढंग से कांग्रेस द्वारा इस शब्द को मान्यता में लाने की भरसक कोशिशों को अंजाम दिया गया। संघ प्रमुख मोहन भागवत के खिलाफ की गयी साजिश को इस कड़ी में ही कांग्रेस द्वारा किए गए एक प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है।
इससे पहले वर्ष 2013 अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में तत्कालीन गृहमंत्री एवं कांग्रेसी नेता सुशील कुमार शिंदे ने भी ‘हिन्दू आतंकवाद’ का राग अलापने का काम किया था। यह बयान सुशील शिंदे ने गृहमंत्री रहते हुए दिया था, जो तत्कालीन कांग्रेस सरकार की मंशा को दिखाता है। कांग्रेस महासचिव दिग्ग्विजय सिंह भी ‘संघी आतंकवाद’ जैसे शब्दों को गढ़ने का काम करते रहे हैं।
आज जब एक के बाद एक खुलासे सामने आ रहे हैं और मालेगाँव एवं अजमेर ब्लास्ट मामले में गिरफ्तार साध्वी प्रज्ञा जैसे लोगों को बरी किया जा रहा है, तो बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि मालेगाँव और अजमेर ब्लास्ट के बहाने तत्कालीन कांग्रेस सरकार किन साजिशों की रचना कर रही थी ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘हिन्दू आतंकवाद’ जैसे शब्द को गढ़ने की सुनियोजित साजिश कांग्रेस ने बेहद योजनाबद्ध ढंग से की थी! इन तमाम सवालों की तहों से पर्दा उठाना बेहद ज़रूरी है।
सुनियोजित योजना के धरातल पर रची गयी इस साजिश की पड़ताल के लिए थोड़ा पीछे जाकर देखना जरुरी हो जाता है। जब 29 सितम्बर को मालेगाँव धमाका हुआ उसके बाद यह मामला एटीएस के पास चला गया और शुरुआती कार्रवाई एटीएस ने की थी। जब यह मामला चल रहा था तब एटीएस चीफ हेमंत करकरे थे, जो 26/11 हमले में आतंकियों की गोली का शिकार बने। वर्ष 2011 में यह मामला राष्ट्रीय जांच एजेंसी के अंतर्गत आ गया और अपनी जांच में एनआईए ने एटीएस की तमाम कार्यवाहियों को सिरे से गलत ठहराते हुए खारिज किया था।
एनआईए ने पहले माना भी है कि महज एक मोटर साइकिल को आधार बनाकर किसी को मकोका के तहत इतने वर्षों तक जेल में नहीं रखा जा सकता है। दरअसल इस पूरे मामले का अगर बहुआयामी विश्लेषण करें तो यह एक देश के अंदर की राजनीतिक साजिश के साथ-साथ अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी हिन्दुओं को लेकर एक गलत अवधारणा विकसित करने की कोशिश के रूप में नजर आता है। चूँकि मालेगाँव ब्लास्ट के बाद अमेरिका का न्यूयार्क टाइम्स, लन्दन का बेलफ़ास्ट-टेलीग्राफ एवं बीबीसी ने ‘हिन्दू टेरिरिज्म‘ शब्द का इस्तेमाल किया।
न्यूयार्क टाइम्स ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था, ‘110 करोंड़ की जनसंख्या वाले हिन्दू बहुल देश में पहली बार पुलिस ने हिन्दू आतंकी संगठनों से जुड़े लोगों को गिरफ्तार करने की बात कहीं है।‘ गौर करना होगा कि उधर विदेशी मीडिया हिन्दू आतंकवाद शब्द को स्थापित करने में बढ़-चढ़कर काम रही थी, तो वहीं देश के कांग्रेस-नीत सरकार के मंत्री और घटक दल भी ‘हिन्दू आतंकवाद‘ शब्द को स्थापित करने की कोशिश में लग गये थे।
यूपीए के तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार अपने भाषणों में हिन्दू संगठनों पर निशाना साध रहे थे। शरद पवार का जिक्र इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि महाराष्ट्र में तब कांग्रेस-एनसीपी की सरकार थी और गृहमंत्रालय एनसीपी के पास था। शरद पवार ने भाषण में स्पष्ट कहा था कि हिन्दू संगठनों को बख्शा नहीं जाना चाहिए। मुंबई एटीएस ने इन्हीं शब्दों को अमल किया और बिना पुख्ता साक्ष्य के साध्वी प्रज्ञा को गिरफ्तार कर लिया। आरोप के तहत मुकदमा चलाने की बजाय मकोका के तहत उन्हें जेल में डाल दिया गया। मुम्बई एटीएस ने साध्वी प्रज्ञा की गिरफ्तारी की तारीख भी गलत बताई थी।
हिन्दू संगठनों से हुई इस गिरफ्तारी के बाद अंतर्राष्ट्रीय मीडिया तो ‘हिन्दू आतंकवाद‘ को स्थापित करने में लग ही गयी, देश का सेक्युलर खेमा भी जोर-शोर से सक्रिय हो गया था। इस घटना के बाद मुंबई में 26/11 की आतंकी वारदात होती हैं और तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह दुनिया में यह कहते फिरते रहे थे कि यह पाकिस्तान की साजिश है, जबकि वहीं देश में उन्हीं की पार्टी के शीर्ष नेता दिग्विजय सिंह एक किताब ’26/11आरएसएस की साजिश‘ का न सिर्फ विमोचन किए बल्कि यहाँ तक कह दिए कि हेमंत करकरे ने उन्हें फोन पर बताया कि उनको हिन्दू संगठनों से धमकियाँ मिल रही हैं।
कहीं न कहीं दिग्विजय सिंह यह साबित करना चाहते थे कि 26/11 का हमला संघ की देन है और हेमंत करकरे को हिन्दू संगठनों ने मारा है। हालांकि पिछले साल जब एनआईए ने अपने आरोप पत्र में एटीएस पर ही तमाम सवाल खड़े किये, तो एक बड़ा सवाल दिग्विजय सिंह पर उठा कि आखिर मुंबई एटीएस चीफ हेमंत करकरे किस प्रोटोकॉल के तहत कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से अपना दुखड़ा रो रहे थे ? चूँकि जब हेमंत करकरे से बातचीत का दावा दिग्विजय सिंह किये हैं, उस दौरान दिग्विजय सिंह न तो देश के गृहमंत्री थे और न ही सरकार में थे। वे कांग्रेस पार्टी के महासचिव थे। भला एक एटीएस चीफ एक राजनीतिक दल के नेता से अपना दुखड़ा क्यों साझा कर रहा था ?
उसी कड़ी में आज यह खुलासा भी हुआ है कि कांग्रेस की सरकार संघ प्रमुख मोहन भागवत को भी इस लपेटे में लेना चाहती थी, लेकिन एनआईए चीफ ने इससे कन्नी काट ली, और कांग्रेस अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाई। हालांकि कांग्रेस द्वारा तुष्टिकरण की राजनीति के लिए ‘हिन्दू आतंकवाद’ अथवा ‘भगवा आतंकवाद’ शब्द को गढ़ने की साजिश की गयी उसका कुछ असर तो आज भी देश को देश के अन्दर एवं देश के बाहर कलंकित कर रहा है। तभी तो न्यूयार्क टाइम्स के एक ट्वीट में भारत के एक बड़े राज्य के चुने हुए मुख्यमंत्री के लिए ‘हिन्दू मिलिटेंट’ शब्द का प्रयोग किया गया है। दरअसल कांग्रेस की सरकार ने संघ को फंसाने की भरसक कोशिश की, लेकिन वे अपने मंसूबों में पूरी तरह कामयाब होते, उससे पहले बेनकाब हो गये।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में रिसर्च फेलो हैं एवं नेशनलिस्ट ऑनलाइन के संपादक हैं।)