2014 में मिली करारी पराजय के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने जनभावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया। वह गठबंधन के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत में लग गई। इस क्रम में उसने कई विरोधाभाषी गठबंधन भी किए जिससे जनता में उसकी छवि बिगड़ी।
2014 के लोक सभा चुनाव में 44 सीटों की तुलना में 2019 के आम चुनाव में भले ही कांग्रेस की सीट 52 तक पहुंची हो लेकिन लगातार दूसरी बार उसे लोकसभा में विपक्ष के नेता दर्जा हासिल नहीं होगा। इतना ही नहीं उसके कई दिग्गजों को चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा। खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अपनी पारिवारिक सीट (अमेठी) से पराजय का मुंह देखना पड़ा। 17 राज्यों में पार्टी खाता ही नहीं खोल पाई है। इसमें वे राज्य भी शामिल हैं जहां कांग्रेस की सरकार है।
देखा जाए तो 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय में कुछ भी अजूबा नहीं है। इसका कारण है कि कभी देश के हर गांव-कस्बे-शहर से नुमाइंदगी दर्ज कराने वाली पार्टी लगातार पांच साल विपक्ष में रहने के बावजूद मतदाताओं के समक्ष कारगर विकल्प प्रस्तुत करने में नाकाम रही। चुनाव के ठीक पहले तक विभिन्न पार्टियों से गठबंधन और सीटों के बंटवारे पर असमंजस की स्थिति बनी रही। इससे मतदाताओं में कांग्रेस प्रति नकारात्मक संदेश गया।
2014 में मिली करारी पराजय के बावजूद कांग्रेस पार्टी ने जनभावनाओं को समझने का प्रयास नहीं किया। वह गठबंधन के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की जुगत में लग गई। इस क्रम में उसने कई विरोधाभाषी गठबंधन भी किए जिससे जनता में उसकी छवि बिगड़ी। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने 27 साल यूपी बेहाल नामक नारा लगाकर जातिवादी राजनीति को कटघरे में खड़ा किया, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले उसी कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर लिया।
इसी तरह पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वाम मोर्चा से गठबंधन किया तो केरल विधानसभा चुनाव में उसी वाम मोर्चा के खिलाफ चुनाव लड़ा। सबसे बुरी स्थिति तो दिल्ली में रही। जिस आम आदर्मी पार्टी ने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर उससे सत्ता छीनी थी उसी पार्टी से कांग्रेस ने गठबंधन की कवायद शुरू कर दी। इससे भी जनता के मन में उहापोह की स्थिति बनी।
लोकसभा चुनाव में कर्नाटक, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, केरल, तमिलनाडु सहित कई राज्यों में गठबंधन में चुनाव लड़ा। लेकिन इन राज्यों में आखिरी वक्त तक सीटों के बंटवारे पर तालमेल नहीं बन पाया जिससे जनता के मन में गलत संदेश गया। फिर जिन राज्यों में कांग्रेस ने गठबंधन किया वहां उसका राष्ट्रीय चरित्र नहीं रह गया। इन राज्यों में वह दूसरे व तीसरे दर्जे की क्षेत्रीय पार्टी बन गई।
जिस कांग्रेस पार्टी का इतिहास राष्ट्रवाद पर आधारित था, वह कांग्रेस पार्टी अल्पसंख्यक वोटों के छिटकने के डर से राष्ट्रवादी रूख अख्तियार करने से बचती रही। आतंकवाद, इस्लामी उग्रवाद, अलगाववाद पर नरम रवैया अपनाने के साथ-साथ सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाया। इस प्रकार पार्टी पर 2014 में मुस्लिमपरस्ती की जो मुहर लगी थी, उससे वह आगे नहीं बढ़ पाई जिसकी उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी।
कांग्रेस ने एक ओर मुस्लिमपरस्ती की नीति अपनाई तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हिंदू वोटरों को जाने से रोकने के लिए मंदिर दर्शन कार्यक्रम चलाया। चूंकि जनता समझ गई थी कि यह सब चुनाव जीतने का हथकंडा है इसलिए चंदा देकर जुटाई गई कांग्रेसी भीड़ ने भी वोट देते समय राष्ट्रवाद को प्राथमिकता देते हुए भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान किया।
कभी न पूरा होने वाले चुनावी वायदों की राजनीति भी कांग्रेस की पराजय का कारण बनी। यद्यपि राहुल गांधी ने कर्जमाफी, न्याय योजना, नकद आमदनी जैसी अनेक लोकलुभावन योजनाएं शुरू करने का वादा किया लेकिन कांग्रेस के अतीत को देखते हुए जनता ने इस पर विश्वास नहीं किया। गौरतलब है कि पिछले पचास वर्षों से कांग्रेसी सरकारें गरीबी हटाओ का नारा लगा रही हैं, लेकिन गरीबी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है।
दूसरी ओर मोदी सरकार पिछले पांच वर्षों में बिजली, सड़क, पेयजल, बीज, उर्वरक, सिंचाई, उपज की बिक्री, रसोई गैस, शौचालय, अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं को आम आदमी तक बिना किसी भेदभाव के पहुंचाया। सबसे बढ़कर हर स्तर पर बिचौलिया मुक्त पारदर्शी शासन व्यवस्था की स्थापना हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि जनता ने कांग्रेस के साठ हजार रूपये सालाना के चुनावी वायदे के बजाए मोदी सरकार के छह हजार रूपये सालाना को प्राथमिकता दिया। कांग्रेस की पराजय और भारतीय जनता पार्टी की विजय की असली वजह यही है।
(लेखक केन्द्रीय सचिवालय में अधिकारी हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)